परबत कहाँ? राई बराबर भी नहीं
लोगों में अब लज्जा नहीं, डर भी नहीं
फ़ीतों से नापे जा रहा हूँ क़ायनात
औक़ात मेरी जबकि तिल भर भी नहीं
सोचा - टटोलूँ तो खिरद के हाथ-पाँव
पर अक़्ल के हिस्से में तो सर भी नहीं
मैं वो नदी हूँ थम गया जिस का बहाव
अब क्या करूँ क़िस्मत में कंकर भी नहीं
क्यूँ चाँद की ख़ातिर ज़मीं छोड़ें 'नवीन'
इतना दीवाना तो समन्दर भी नहीं
: नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे रजज मुसद्दस सालिम
2212 2212 2212
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
लाजवाब गजल।
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