28 फ़रवरी 2014

मिल गये ख़ाक में आदाबेनज़र आने तक - इब्राहीम अश्क़

मिल गये ख़ाक में आदाबेनज़र आने तक
कोई मंज़िल न मिली शह्र से वीराने तक

हम तो ये सोच के बैठे रहे तनहाई में
शम्अ इक रोज़ तो ख़ुद आयेगी परवाने तक

बेख़ुदी दिल पे अजब छाई तेरे आने से
बात भी तुझ से न कर पाये तेरे जाने तक

आख़िरी साँस भी कब इश्क़ से आज़ाद हुई
क़र्ज़ उतरा ही नहीं डूब के मर जाने तक

धीरे-धीरे ही सही शह्र में चर्चा तो हुआ
दुश्मनी आप की पहुँची मेरे याराने तक

हर कोई राहगुजर मिलती है क़दमों से मेरे
सारी दुनिया का सफ़र है तेरे दीवाने तक

बज़्मेजानाँ में ये एजाज़ मिला है किस को
ख़ामुशी मेरी पहुँच जाती है अफ़साने तक

जुस्तजू यार की ले जायेगी अब और कहाँ
आ गये दैरो-हरम छोड़ के मैख़ाने तक

कितने सादा हैं कि फिर भी है भरोसा उन पर
अपने वालों में नज़र आये हैं बेगाने तक


बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें