हो ज़ुरूरी तभी हदपार क़दम रखते हैं ।
हम समुन्दर हैं किनारों का भरम रखते हैं ।।
हम फ़रिश्ते तो नहीं फिर भी जुदा हैं हमलोग ।
फूल से दिल में भी पत्थर के सनम रखते हैं ।। ।
एक भी मन का मरज़ मन से निकाला न गया ।
दुश्मनों को भी बड़े ठाठ से हम रखते हैं ॥
हम भी शिकवों को रखा करते हैं दिल में लेकिन ।
उम्र इन शोलों की शबनम से भी कम रखते हैं ।।
सादा जीवन है मगर उच्च विचारों के साथ ।
टाट के ज़ेब में सोने के क़लम रखते हैं ।।
नवीन सी. चतुर्वेदी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (19-10-2013) "शरदपूर्णिमा आ गयी" (चर्चा मंचःअंक-1403) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तुम ही कहते थे ग़ज़ल ज़ख्मों को भर देगी 'नवीन'
जवाब देंहटाएंतुम भी जिद छोड़ दो और हम भी कलम रखते हैं ..
बहुत खूब ... क्या बात कही है नवीन जी ... सुभान अल्ला ... काबिले तारीफ़ ...
वाह ..उम्दा ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंअब आ रहे हैं नवीन भाई अपने पुराने रंग में। पुराने नवीन भाई का स्वागत है।
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