कबीरा
कहे....
ईमान
से, ईमानदारी की खटिया अभी
नब्बे डिग्री तक नहीं खड़ी हुई.
साधो!
कुछ दिन हुए ईमानदारी कुछ इस तरह् चर्चा में आई कि लगा ये चर्चा तो पूरी ईमानदारी से
हो रही है. पूरे देश में ईमान का डोलता पेंडुलम रुक नहीं गया तो कुछ सहमा-सहमा डोलता
नज़र आया. ईमान का एक स्तूप सा उभर आया बेईमानी के जंगल में और उसकी एक अदद प्रतिकृति
हर गली कूचे में चमकने लगी. ईमान के भिक्षु ‘हा हंते-हा हंते’ चिल्लाते घूमने लगे.
उनके चहरे के तेज़ के आगे हर शै काली दिखने लगी.
उधर
खुद ईमान पर इतनी उंगलियाँ उठीं कि बगलें शरीर में जहां भी थीं झाँक-झाँक कर देखी जाने
लगीं. ईमान का सिक्का खरा-खरा सा चमकने लगा. खोटे सिक्के सेफों में छुपा दिए गए. सारी
बिल्लियाँ हज की दिशा में हसरत से यूं देखने लगीं मानों वीज़ा-पासपोर्ट की व्यवस्था
होते ही निकल पड़ेंगी क्योंकि सत्तर चूहे तो हर बिल्ली अपने पूरे करियर में खा ही लेती
है. अपना-अपना ईमान अंटी में दबाये हर खासो-आम खुले में आ गया और उसे मैडल की तरह प्रदर्शित
करने लगा. ईमानदारी का एक मजमा- सा लग गया. देखते-देखते ईमानदारी आम हो चली.
ईमानदारी
सर चढ़ कर बोलने लगी. ज़ुबानों पर थिरकने लगी. स्क्रीनों पर चमकने लगी. सडकों पर लेट
गई. धरने पर बैठ गयी. तीन का तेरह वसूलने वाले ऑटो-रिक्शा की पीठ पर चिपक गयी. ईमानदारी
बिजली के तारों में करंट-सी दौड़ी, पानी की पाईपों से बूँद-बूंद रिसी.
वह ट्रैफिक हवलदार के चालान-बुक पर स्याही की बूँद-सी टपकी, दंगा-पुलिस
के जिरह-बख्तर के अन्दर पसीने-सी चुह्चुहाई. वो बाबुओं की लपलपाती उँगलियों पर नन्हे-नन्हें
कैमरों का डंक मारने लगी. वो निराश लोमड़ी के खट्टे अंगूरों में मिठास का भ्रम भरती
नज़र आई. उम्मीद की लहरों पर बैठ वो राजधानी में खूब लहराई.
फिर
ईमानदारी एक रोज़ गद्दी पर जा बैठी. वो राजमहल में टहली. जनपथ और राजपथ पर भी सुगबुगाई.
फिर एक आबंटित सरकारी बंगले के गेट पर रास्ता रोके नज़र आई. आगे वो घर-घर में घुसी, झोंपड़- पट्टियों में रुकी, देर रात छापे मारती मिली. सेक्रेटेरियेट की फाइलों से जूझी, जांचों में उलझी. कभी घबराई और भीड़ से बचकर भागती नज़र आई. बयान-दर बयान दिए,
बहसों में अझुराई, कभी अड़ गई तो कभी कतरा के निकल
आई. इलज़ाम उठाये, इलज़ाम लगाए, बेईमानी के
पैतरें खुद भी आजमाए.
कुछ
दिन हुए ईमानदारी ज़मीन छोड़ कर वृहतर आसमानों की ओर निकल भागी.
कबीरा
कहे- ईमान से,
ईमानदारी तो दिलों में होती है- टोपी या गद्दी में नहीं. सच मानों
तो सच, नहीं तो ठिठोली है.
बुरा
न मानो होली है.
आहटें कहती हैं तूफान है आने वाला
जवाब देंहटाएंकाश आ जाये वो आइना , बचाने वाला
कमलेश भाई !! आज ईमान , वफा और विश्वास –ये सब लुप्तप्राय अनुभूतियाँ हैं – उमीद के बाज़ार में खूब बिक सकती हैं – खूब कहा हि आपने –संक्षिप्त और सारगर्भित आलेख – जो विषयवस्तु की गहराइयों को सामने लाने में सफल रहा – और आपके व्यंग्यकार का लोहा तो सभी मानते ही हैं – मयंक
कमलेश भाई !!! इस आलेख पर एक कमेण्ट से जी नहीं भरा – कुछ पंक्तियाँ और कह रहा हूँ ---
जवाब देंहटाएंकविता
गधे मैदान में उतरे तो हमको ये लगा था
हमें निर्भार करने के लिये आयें हैं ये तो
हमारा बोझ कम हो जायेगा सोचा था हमने
दुलत्ती मार कर बाहर करेंगे उन सभी को
अवांछित पशु जगत जो पल रहा है हरित निधि पर
गधे उतने गधे हरगिज़ नहीं थे , साफ है अब
अब उनकी दूरदर्शी दृष्टि है मंज़िल पे अपनी
हमारा बोझ वापस लद चुका है पुश्त पर फिर
वो दिन भी दूर अब शायद नहीं , देखेंगे हम सब
गधे अब केन्द्र में बैठे हैं और हम हैं परिधि पर
मयंक अवस्थी )
मयंक भाई बहुत आभार! और जवाब में जो लाजवाब पंक्तियाँ भेजी हैं आपने उनका क्या कहना.. गधे उतने गधे हरगिज़ न थे.. हास्य-व्यंग्य कविता पर भी हाथ आजमाते रहें ...
हटाएंकमलेश