आज वर्षों बाद हवाओं में संगीत सा घुल गया था।
हमेशा चारदीवारी में घुटकर साँस लेनेवाला मेरा मन कुलांचे भर रहा था। सोये हुये अरमानों
को पंख लग गये थे, ऐसे जैसे कोई पंछी पिंजरे से बाहर निकलकर देश-परदेश की सीमाओं की चिंता छोड़कर
उड़ा जा रहा हो। मेरी क्षीण होती जीजिविषा को तुम्हारे आने की आस ने प्राण वायु से
भर दिया था। मुझे लग रहा था कि ग्यारह वर्षों का ये अंतराल क्षणभर में अदृश्य हो गया।
मैं तो समझता था कि ये अंतराल मेरे जीवन के अंत तक यूँ हीं बना रहेगा परंतु आज पता
चला कि ईश्वर ने मुझे तुम्हारे प्रेम की संजीवनी पाने के लिये अबतक बचाये रखा था। मैं
कितना भाग्यशाली हूँ अरू कि जिस मरीचिका को पाने के लिये मैं दिन-रात प्रार्थना करता
था वो स्वयंमेव मुझ तक आ रही है। मैं यह भी जानता हूँ कि जैसे ही तुम मेरी ये बातें
सुनोगी तो मुस्कुराकर कहोगी कि मुझे न भाग्य में विश्वास है न प्रेम में, लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरे प्रेम की शक्ति और ईश्वर का आशीर्वाद ही है जो
तुम्हे मेरे पास ला रहा है।
इन ख्यालों के धुँध से बाहर निकलना नहीं चाहता
हूँ लेकिन जिसके ख्यालों में हूँ उसे ही तो लेने आया हूँ, सोचकर ही मै हँस पड़ा
था और इसके साथ झटक दिया था ग्यारह वर्षों से अपने और अरूणिमा के बीच जमा हो चुके गर्दो-गुबार
को भी। अरू की फ्लाइट कब की आ चुकी थी, वो कहीं खड़ी होकर मेरा
इंतजार कर रही होगी, सोचकर ही मुझे गुदगुदी होने लगी थी। मैं
तुम्हे देखने के लिये इतना व्याकुल हो रहा था कि सही से चल भी नहीं पा रहा था। भावातिरेक
में हाथ-पैरों में कंपन सी होने लगी थी.. अपनी नजरों के विस्तार को अनंत कर तुम्हे
जल्दी से देखने की हड़बड़ी में दो-तीन लोगों से टकरा गया था, एक बार तो गिरते-गिरते बचा लेकिन उस वक्त मुझमें इतनी सभ्यता भी नहीं बची थी
कि किसी को सॉरी बोलूँ। ऐसी स्थिति में तुम मेरे साथ होती तो जरूर कहती कि गंवार कहीं
के, सॉरी बोलना कब सीखोगे ? लेकिन अभी तुम
नहीं थी और तुम तक पहुँचने की इस कोशिश में ही सारी गलतियाँ हो रही थीं। मैं इधर उधर
भाग रहा था तभी तुमने पीछे से आवाज दी- इतनी जल्दी क्या है, तुम्ही
से मिलने आई हूँ... मैंने पलटकर पीछे देखा था, तुम खड़ी थी। मैं
कुछ क्षण तक तुम्हें निहारता रहा था। बहुत बदल गई थी तुम। झूठ नहीं बोलूँगा,
सेकेंड के शायद हजारवें हिस्से में ये विचार कौंधा था कि तुम पहले जैसी
खूबसूरत नहीं रही लेकिन इस लंबे अंतराल ने तुम्हे मेरे लिये दुनिया की सबसे बेशकीमती
चीज बना दी थी। तुम्हारे जाने के बाद मैंने तुम्हारा महत्व समझा था। तुम जब मेरे साथ
थी तो मैं तुम्हारे साथ साहचर्य कर रहा था और जब तुम मुझसे दूर थी तो मैंने तुमसे प्रेम
करना सीखा, खुद को तुम बनकर जीना सीखा। मेरा दिल चाह रहा था कि
तुम्हे अपने अंक में लेकर खूब ठहाके लगाऊँ, ठीक वैसे हीं जैसे
तुम हँसा करती थी लेकिन मुझे याद आया कि तुम तो चुपचाप खड़ी हो। मैंने खुद को संयत
रखने की कोशिश करते हुये कहा था, इतने दिनों बाद मिल रही हो,
एक मुस्कुराहट तो जरूरी है... और तुमने कहा- अब मैं तुम्हारी तरह हो
गई हूँ सुजीत.. तुम्हे मेरी हँसी अच्छी नहीं लगती थी तो मैंने हँसना छोड़ दिया.. मेरी
उम्मीदों के हजारों दीये एक साथ बुझ गये थे और मैं गहन अंधकार में डुबता जा रहा था।
तुमने मेरी स्थिति समझ ली थी और बात संभालने की कोशिश में कहा था- जब भी मुस्कुराने
की कोशिश करती हूँ होंठ सिल से जाते हैं, मैं क्या करूँ,
सुजीत।
मैंने हाथ बढ़ाकर तुम्हारा सूटकेस लेना चाहा तो
तुमने चुपचाप दे दिया, अगर तुम पहले वाली अरू होती तो कहती कि हाथ क्यों कांप रहे हैं तुम्हारे,
पहले अपनी भावनाओं पर काबू करो तब मेरे सूटकेस को हाथ लगाओ। तुम रास्ते
भर चुपचाप बैठी रही, हिम्मत करके मैंने ही कहा था कि हम अपने
घर जा रहे हैं, सोचा था तुम कहोगी कि कौन सा घर, मेरा कोई घर नहीं, मैं किसी होटल में ठहर जाऊँगी,
लेकिन तुमने कुछ नहीं कहा था। अपनी मौन सहमति दे दी थी। घर आकर भी तुम
बुझी-बुझी ही थी। मैं चाहता था कि हम वहाँ से शुरूआत करें जहाँ से तुम सब कुछ खत्म
करके गई थी। लेकिन तुम क्या चाहती हो ये न उस वक्त पता था न आज। इस लम्बे अंतराल में
मैंने तुम्हारी हर पसंद-नापसंद को अपना कर तुम्हारी तरह बन गया था अरू, लेकिन तुमने भी मेरी आदतों को अपना कर उस अंतराल को यथावत बना दिया।
न तुम तुम रहे न हम हम रहे,
जवाब देंहटाएंहम तुम होगये, तुम हम हो गए |
दूरियां जो बिछुड़ने से पहले रहीं ,
इतने अंतराल में भी वही हम रहे |