पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला - महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

घेर ले छाया अमा बन
आज कज्जल -अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ 'पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला !
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला !

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते ,दे शूल को संकल्प सारे
दुःखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक -संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला !

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर ,धूलि में खोयी निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ '
चिनगारियों का एक मेला !

हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू -भंगिमा पतझार को चाहो सहेजो !
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना -जल ,स्वप्न शतदल
जान लो यह मिलन एकाकी
विरह में है अकेला !

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

4 टिप्‍पणियां:

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