कभी ऐसा नहीं लगता कभी वैसा
नहीं लगता
ग़रज़ के
कोई भी पूरी तरह पूरा नहीं लगता
किसी
के लब पे गाली है न ग़ुस्सा है निगाहों में
ये
कैसा शह्र है इसमें कोई अपना नहीं लगता
अदालत
मोहतरिम है जो भी चाहे फ़ैसला दे दे
सज़ा
पाये न जब कोई खता अच्छा नहीं लगता
न रोशनदान चिड़ियों के, न कमरा है किताबों का
इमारतसाज़ ये नक़्शा मिरे घर का नहीं लगता
मदारी की सदा अपनी कशिश खोने लगी शायद
पुराने शोब्दों से अब नया मजमा नहीं लगता
-निदा फ़ाज़ली
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