जब मैं बीस बरस
का था तो एक ज्योतिषी ने मेरा हाथ देख कर मेरी माँ से कहा था कि 'यह चालीस बरस पार कर ले
तो बहुत समझो।' मेरे ऊपर इस घोषणा का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था
क्यों कि मेरा स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। हर समय कफ़ की शिकायत रहती थी, दातों में पायरिया था। मैंने एक–एक कर के दाँत निकलवाना शुरू कर दिया। नियमित
रूप से प्रात: और सायं आठ–दस किलोमीटर टहलना, दौड़ लगाना,
नीम की पत्तियाँ चबाना, बकरी का दूध पीना तथा हरे
पत्तों की सब्ज़ियों का सेवन चालू कर दिया।
इन सब चीज़ों
का अनुकूल प्रभाव हुआ और उमर चालीस को पार कर गई। पुस्तकालय में बैठ कर नियमित रूप
से पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन, विद्वान, कलाकार और महात्माओं के
सत्संग इत्यादि के कारण मेरा झुकाव साहित्य संगीत और कला की ओर होने लगा। कवि सम्मेलनों
के निमंत्रण आने लगे, फिर तो पता ही नहीं लगा कि हम कब साठा के
पाठा हो गए। ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी भूल गए। लेकिन जब सत्तर पार हो गए, तो हमने देखा कि हमारे अनेक साथी भगवान को प्यारे हो गए, हम स्वस्थ–मस्त बने हास्य–व्यंग्य में और अधिक व्यस्त हो गए। मरना तो अलग,
बीमार होने के लिए भी अवकाश नहीं मिलता था। धीरे-धीरे जीवन की नैया अस्सी
के किनारे आ लगी। अब लोगों ने कहना शुरू कर दिया — 'असिया सो
रसिया'। वास्तव में हम कुछ रसीले हो भी गए थे। इतनी उमर में भी
अपने को सही–सलामत देख कर हमें खुद ताज्जुब होता। कहीं नज़र न लग जाए, इसलिए हमने कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरना चाहते हैं।'
हमारे मुँह से निकलना था कि लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई।
युवा हास्य कवि
सोचने लगे कि बस काका के मरते ही अपनी तूती बोलने लगेगी। साहित्यकार सोचने लगे कि काका
की वजह से गीत मर गए हैं और मंच पर हास्य की धारा बहने लगी है, वह समाप्त होगी तो गीतकारों
का कल्याण होगा। परिवार के लोग सोचने लगे कि अच्छा है, भगवान
सुन ले तो बीमे की रकम मिल जाए। हमें लगने लगा कि अब हमारा वक्त नज़दीक आ गया है अत:
ऐसे स्थान पर चले जाना चाहिए जहाँ गंगा नज़दीक हो, क्यों कि गंगा
से हमारा लगाव शुरू से ही रहा है। हमने लोगों से कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरने वाले हैं, इसलिए हाथरस छोड़कर बिजनौर रहा करेंगे।
वहाँ गंगा है और हमारी भतीजी के पति डॉ. गिरिराज शरण भी हैं, जो हमें बड़े प्यार से रखेंगे।'
जब हम बिजनौर
पहुँचे तो डॉ. गिरिराज बोले—'काका अच्छा हुआ, जो आप इधर आ गए।
बिजनौर मरने के लिए बहुत अच्छी जगह है लेकिन यहाँ मेरे चेले कुछ डाक्टर हैं,
जो आपको आसानी से नहीं मरने देंगे।' हम निराश हो
गए और कुछ दिन वहाँ बिता कर दिल्ली चले आए। दिल्ली में अपनी दूसरी भतीजी के पति डा.
अशोक चक्रधर के घर हम ठहरे।
अशोक चक्रधर
बोले—काका आपने मरने की ठान ली है, तो फिर दिल्ली में मरना ठीक रहेगा।
नेता टाइप लोग सब राजधानी में ही मरते हैं। आप देख लेना, जिस
दिन आपकी मृत्यु होगी, उस दिन मैं सारी दिल्ली बंद करा दूँगा।
राजघाट से धोबीघाट तक जुलूस ही जुलूस दिखाई पड़ेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल आपके शव पर
पुष्प चढ़ाने आएगा। मैं आपके रथ पर खड़ा होकर कमेंट्री करूँगा जिसे दूरदर्शन वाले दिखाते
रहेंगे। आपका हो जाएगा काम और मेरा हो जाएगा नाम। बोलो मंजूर हो तो इंतज़ाम करूँ।
इतने में ही
वहाँ कर्णवास गंगा तट वाले एक पंडा आ गए जो गत पचास वर्षों से हमसे परिचित थे। पंडा
जी बोले, देखो काका, आप कवि हैं, गंगा प्रेमी
हैं और किसी महात्मा से कम नहीं हैं। मरने का विचार आपका उत्तम है, हमारे देश में अनेक मुनियों ने इच्छा मृत्यु का वरण किया है, जब भी आप चाहेंगे तो हम कर्णवास में पहले से ही आपकी चिता सजवा देंगे या चाहेंगे
तो जल समाधि दिलवा देंगे। लेकिन जबतक आपके होशहवास दुरुस्त हैं तब तक हमारी राय मानें,
तो एक गाय पुन्न कर दें।
हमें पंडित जी
की बात जँची नहीं। गर्मी भी काफ़ी पड़ने लगी थी इसलिए मसूरी चले गए। वहाँ नित्य प्रति
बड़े–बड़े लोग कैमिल्स बैक रोड़ पर टहलने जाते हैं। उनसे भी हमने चर्चा कर के राय माँगी।
उनका कहना था कि 'मैदानी इलाकों में तो सभी मरते हैं लेकिन पहाड़ पर मरना सबके नसीब में नहीं
होता। यहाँ मरने का मज़ा ही कुछ और है। यहाँ न लकड़ियों का झंझट है और न चिता सजाने का
झगड़ा। डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता, जो मरते को बचा ले। चार–पाँच
मित्र मिल कर लाश को पहाड़ की चोटी से लुढ़का देंगे। चारों ओर बर्फ से ढकी हुई श्वेत
धवल चोटियाँ आपका स्वागत करेंगी। बड़े–बड़े तीर्थ यात्रियों की बसें जब यहाँ खड्डे में
गिरती हैं तो सभी सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। अजी और तो और पांडव तक यहाँ गलने को चले
आए थे। आप भी जीवन–मुक्त हो जाएँगे, बार–बार मनुष्य योनि में
नहीं भटकना पड़ेगा।'
इस बीच हमें
मथुरा रेडियो से एक कार्यक्रम का निमंत्रण मिल गया। हम मथुरा चले आए, वहाँ बृज कलाकेंद्र वाले
भैया जी से भेंट हुई। भैया जी से जब बात छिड़ी तो वे बोले —काका, मरने के चक्कर में आप इधर–उधर क्यों भटक रहे हैं, पूरा
बंगाल इस शुभकर्म के लिए यहाँ आता है। ब्रज में सभी देवी देवताओं का निवास है। मथुरा
में आप मरेंगे तो सीधे मोक्ष को प्राप्त होंगे। उस दिन हम नौटंकी भी करा देंगे। होली
दरवाज़े पर झंडा लगवा दिया जाएगा। आप मोक्ष धाम को जाएँगे और हम रबड़ी खुरचन उड़ाएँगे।
फिर आपकी पुण्यतिथि पर प्रति वर्ष नगाड़ा बजता रहेगा। चंदा होता रहेगा और धंधा चलता
रहेगा। बोलो मंज़ूर हो तो आख़िरी घुटवा दूँ बादाम–पिस्ते की केसरिया ठंडाई। हमने सोचकर
जवाब देने के लिए कहते हुए उनसे विदा ली और हाथरस आ गए।
हाथरस में हमारे
मरने की चर्चा आग की तरह फैल गई। सभी शुभचिंतक इकट्ठे हो गए। हमारा बेटा लक्ष्मी नारायण
बोला — काकू, आपको सब लोग बहका रहे हैं, आपकी कुंडली साफ़ कह रही है
कि आप ज़मीन पर मर ही नहीं सकते। अभी तो आपको एक अमरीका यात्रा और करनी है। मैं प्रोग्राम
बना देता हूँ । जाने से पहले पचास लाख का बीमा भी करा दूँगा। अगर हवाई जहाज़ गिर गया,
तो आपको बिना कष्ट मौत मिलेगी, और इधर मैं बीमा
की रकम डकार जाऊँगा। ब्याज से प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करूँगा, फिर सैकड़ों विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मरने का मज़ा ही कुछ और है।
इस चकल्लस में
कुछ लोगों ने गोष्ठी जमा ली। कविता पाठ हुए और पत्रकार सम्मेलन हुआ। हमें महसूस हुआ
कि अभी तो हमारी आवाज़ में पूरी कड़क है, तभी सामने बैठी एक बुढ़िया पर
हमारी नज़र गई, जिसकी सफ़ेद ज़ुल्फ़ों पर लाइट मार रही थी। हम उस
पर मर गए और मंच पर ही अड़ गए, मित्र लोग ताड़ गए और सबने मिलकर
घोषणा कर दी. . .काका अठासी के हो गए हैं। अब पूरा शतक बनाएँगे और हाथरस में ही मरेंगे।
शोर–शराबा सुनकर काकी आ गईं तो सब भाग लिए और हम भीगी बिल्ली बनकर उसके साथ बेडरूम
में यह कहते हुए चले गए. . .
बुढ़िया मन में
बस गई, लाइट मारें केस।
चल काका घर आपुने, बहुत रह्यो परदेस।।
[अनुभूति से साभार]
[अनुभूति से साभार]
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