28 फ़रवरी 2014

फागुन आया है सखी, नाचे मन का मोर - खुर्शीद खैराड़ी

फागुन आया है सखी, नाचे मन का मोर 
हर बाला है राधिके, बालक नंद किशोर  

फागुन की मस्ती चढ़ी, बाजे ढोलक चंग
धरती के उल्लास का, नभ तक छाया  रंग

गीत सुनाते होरिये, देते ढप पर थाप
सबके मुखड़े है रँगे, कौ बेटा कौ बाप

भीगे तन से कंचुकी, चिपकी ऐसे आज
बूढ़ों तक के नैन की, बूड़ गई है लाज

लाली मेरे गाल की ,और हुई है लाल
बाँह पकड़ कर श्याम ने, मल दी लाल गुलाल

जल जाये मन की घृणा ,बच जाये बस प्यार
आओ खेलें प्यार से ,प्यार भरा त्यौहार

छायी मस्ती गैर की, गली गली में धूम
गाऊंगा मैं रात भर ,संग सखी तू झूम

होली में होलें सगे, भूलें सारा बैर
आओ लग जायें गले, माँगे सबकी खैर

भांग चढ़ा कर जेठ जी, भूल गए मर्याद
सुन कर मैं शरमा गई, प्रेम पगे संवाद

भर पिचकारी रंग की, मारे मो पे धार
देवर मेरा लाड़ला, मुस्कावे भरतार

जीजा साली साथ में, खेल रहे हैं फाग
तन रँगना तुम प्रेम से, मन रखना बेदाग़

होली के माहौल को, करते लोग ख़राब
त्यौहारों की आड़ में, पीते ख़ूब शराब

गैर-होली का एक नृत्य भरतार-पति
'खुरशीद' खैराड़ी जोधपुर राजस्थान

4 टिप्‍पणियां:


  1. जीजा साली साथ में, खेल रहे हैं फाग
    तन रँगना तुम प्रेम से, मन रखना बेदाग़ ............क्या प्रस्तुति है होली पे

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  2. इतने रंगीन दोहे !!! वाह !! क्या शब्द चित्र हैं – फागुनी रंग में पाठक को डुबो देने वाले – होली का उल्लास और इस त्यौहार के सर्वकालीन चित्र जिस असर के साथ शब्दों में उतर आये हैं उसके लिये दोहाकार की सामर्थ्य को शत शत नमन !!! श्याम, जेठ और जीजा साली के दोहे तो पसमंज़र में भी बहुत कुछ कह गये !! --मयंक

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  3. आ. मयंक भाईसाहब
    आपका आशीर्वाद मेरे लिए अनमोल है |
    सादर आभार

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