मेरी पत्नी मेरे लिए ही नहीं, मेरे पाठकों के
लिए भी एक समस्या है। मेरी बात तो फिलहाल छोड़िए, मेरी पत्नी
के संबंध में मेरे पाठकों ने भांति-भांति के विचार बना लिए हैं। उनके शील और स्वभाव
के बारे में ही नहीं,रूप के संबंध में भी प्रतिदिन कहीं-न-कहीं
से कोई 'इन्क्वायरी' आती ही रहती है।
यह तो मैं ठीक से नहीं कह सकता कि मेरी डाक की तादाद किस फिल्मी तारक
या तारिका से कितनी कम है, लेकिन एक विशेषता उसमें अवश्य है कि जहां अभिनेता और
अभिनेत्रियों को मीठे और प्रेम भरे पत्र ही मिला करते होंगे, वहां कभी-कभी प्रसाद के रूप में गालियां भी मिल जाया करती हैं।
कोई लिखता है-क्या सचमुच आपकी पत्नी आप पर हावी हैं ? कोई लिखती है-आप नारियों को गलत 'पेंट' कर रहे हैं।
कोई पत्नी-पीड़ित दाद देते हैं-वाह, क्या खूब
! बात आपकी सोलह आने सच है।
कोई पति-पीड़िता फरमाती है-जनाब, अपने गिरेबान में
तो झांक कर देखिए !
कोई समझदार वृद्ध मुझे अपनी राह बदलने की प्रेरणा देते हैं तो ऐसे नवयुवकों
की कमी नहीं जो मेरे घर आकर मेरी 'उन' के हाथ की चाय पीने को उतावले हैं ! कुछ अधिक पढ़े-लिखे लोग मेरी रचनाओं को
सिर्फ रचना ही, यानी ख़याली पुलाव समझते हैं। लेकिन ज्य़ादा तादाद
ऐसे लोगों की है, जो मेरी रचनाओं में प्रयुक्त 'जग्गो' और 'पुष्पा' के भी हाल-चाल चिट्ठियों में पूछा करते हैं।
मेरी पत्नी संबंधी मान्यताओं को लेकर भी कम विवाद नहीं हैं। 'पत्नी को परमेश्वर मानो' नामक मेरी रचना पर बड़ी विरोधी
राय हैं। जब वह छपी-छपी थी तो कई प्रगतिशील महिला-संस्थाओं ने प्रस्ताव स्वीकृत करके
मुझे धमकाया था। लेकिन पुराने और बीच के ज़माने की देवियों ने मुझे बधाइयां भी दी थीं।
रावलपिंडी के एक कवि-सम्मेलन में तो इस कविता को लेकर अच्छा-खासा हंगामा भी होगया।
नारियों का नारा था कविता नहीं होगी, पर पुरुष चीख रहे थे कि
होकर रहेगी। एक ग्रेज्युएट महिला तो साहस कर मंच पर चढ़ आई थी और हल्ले-गुल्ले में
उस रात कवि-सम्मेलन भी उखड़ गया था। लेकिन इसके विपरीत पिछले चुनावों में जब चंद समझदारों
ने मुझे टिकट देने की सोची तो मेरा एक गुण यह भी स्वीकार किया कि महिलाओं के शत-प्रतिशत
वोट तो मैं ले ही जाऊंगा।
ये सब रोचक और परस्पर विरोधी बातें मेरी पत्नी को लेकर मेरे बारे में
कही जाती हैं। इन बातों को चलते-चलते पूरे बारह वर्ष हो गए। दिल्ली में रहकर यों शाब्दिक
अर्थों में तो मैंने भाड़ नहीं झोंका, लेकिन अब तक इन
शंकाओं का समाधान भी सही-सही नहीं किया है। इसीलिए ये सारी ग़लतफ़हमियां हैं। लेकिन
कल रात अचानक ढाई बजे मेरी आंख खुल गई। सोचा, यों अभी कोई संभावना
नहीं है, फिर भी शरीर का क्या ठिकाना ? यह रहस्य कहीं मेरे साथ ही न चला जाए और मेरे पीछे अनुसंधान करने वालों को
कही दिक्कत न उठानी पड़े। इसलिए आज इस होली की जलती बेला में, मैं स्वयं रहस्य पर से पर्दा उठाए देता हूं।
मेरे घनिष्ठ-से-घनिष्ठ मित्र, हितैषी और रिश्तेदार
भी यह भेद नहीं जानते कि मेरे एक नहीं, दो पत्नियां हैं। एक घर
पर रहती है, एक कागज़ पर रहती है।
बकवास ....पर हाँ व्यंग्य तो होता ही बकवास है....
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