गंध
दुनिया में जितना
पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का
योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
मेहनत पर से भरोसा उठ रहा है, सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंआदरणीय प्रवीण जी, आपका हार्दिक आभार!
हटाएंसही व सुन्दर चित्रांकन है.....श्रम के स्वेद बिंदु के साथ साथ पृथ्वी पर पानी की कमी हो रही है ...क्या बात है...
जवाब देंहटाएंआदरणीय श्याम जी, आपका हार्दिक आभार!
हटाएंशब्द चित्र खींच दिया ब्रिजेश जी ... भावमय रचना ...
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार!
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