निशाँ पाया,.....न कोई छोर निकला
मुसाफ़िर क्या पता किस ओर
निकला
अपाहिज लोग थे सब कारवाँ में
सितम ये राहबर भी कोर निकला
जिसे समझा था मैं दिल की बग़ावत
महज़..वो धड़कनों का शोर निकला
निवाला बन गया मैं.... ज़िन्दगी का
तुम्हारा ग़म तो आदमख़ोर निकला
दिये भी....लड़ते लड़ते थक चुके हैं
अँधेरा इस ...क़दर घनघोर निकला
हुआ पहले क़दम पर ही शिकस्ता
करूँ क्या हौसला कमज़ोर निकला
सुना ये था, है दुनिया गोल "सालिम"
मगर नक़्शा तो ये चौकोर निकला
सालिम शुजा अन्सारी
9837659083
बहरे हज़ज
मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,
1222 1222 122
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें