2 सितंबर 2016

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है - मुमताज़ नाजाँ

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है

जो तोड़ डाले हमारी हिम्मत जहाँ में ऐसी बला नहीं है
है कौन मक़्तूल कौन मुजरिम, लहू के छींटे बता रहे हैं

ज़माने भर पर है राज़ ज़ाहिर बस एक तुम को पता नहीं है
धरम का लो नाम और उस पर उठाओ फ़ितने कराओ दंगे

अगर ख़ुदा है तुम्हारा वाली तो क्या हमारा ख़ुदा नहीं है?
गुज़र चुके हैं सभी मुसाफ़िर, मकीं कहीं और जा बसे हैं

पड़ी है वीरान दिल की बस्ती कहीं भी कोई सदा नहीं है
ये शाह ए दौरां से जा के कह दो, है हम को मंज़ूर टूट जाना

अना की "मुमताज़" है रिवायत कि सर कहीं भी झुका नहीं है

मुमताज़ नाजाँ
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें