अभिव्यक्ति

व्यक्ती से बढ़ कर सदा, होता इस का मान|
सब के सर चढ़ बोलती, इक नन्ही सी जान||
इक नन्ही सी जान, शान से रहती हरदम|
जो भी दिल में आय, बताती झट्ट फडक्दम|
इस का मूल विवेक, शख्सियत इसकी शक्ती|
कहना इस का काम, नाम इस का अभिव्यक्ती||

तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में

ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें|

उत्थान दें
जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें|

मान दें
मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें|

तान दें
पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||

सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द:-
घनाक्षरी कवित्त की तरह ८+८+८+७ = ३१ अक्षर / वर्ण
अंत में गुरु वर्ण
पहले चरण के अंत के शब्द दूसरे चरण के शुरू में, दूसरे के तीसरे, तीसरे के चौथे चरण के शुरू में आने चाहिए
चौथे चरण के अंत के शब्द पहले चरण के शुरू के शब्दों के समान होने चाहिए
प्रस्तुत छंद में 'दें' शब्द सम्मिलित और अर्थ पूर्ति करने वाला शब्द है

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||

[सम+उन्नत=समुन्नत]



अमृत ध्वनि छन्‍द:-

पहली और दूसरी पंक्ति १३+११ = २४ मात्रा [दोहे की तरह]
दूसरी पंक्ति का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति के शुरआत में आता है [कुण्‍डलिया की तरह]
तीसरी से छठी पंक्ति हर पंक्ति में कुल २४ मात्रा
हर पंक्ति ८ - ८ मात्रा के तीन भागों में विभक्त
हर भाग के अंत में लघु वर्ण के साथ यति
छन्‍द के शुरू और आख़िर के शब्द समान [कुण्‍डलिया की तरह]
अमृत ध्वनि के विधान का अनुपालन करने के लिए छन्‍द के शुरू में ऐसा शब्द लें जो अंत में भी फिट बैठ सके, यानि वो दो मात्रा का हो या चार मात्रा का पर अंत में लघु वर्ण के साथ यति का आभास उत्पन्न करे

समान ध्वनि शब्दों की आवृत्ति छन्‍द की शोभा बढ़ाती है

मन होवे मस्त मलंग

होली का हुड़दंग
खेल रहे सब ही जन मिल के
खोजत नव-नित रंग
........ भैया होली का हुड़दंग

गरिमा के 'गुलाल' को भूले
गाली गूँजें सदनों में
अदब 'अबीर' लुप्त दिखता, नहिं -
भेद बड़ों में अदनों में
केमीकल का असर हुआ ये
कान्ति दिखे ना वदनों में
तन देखो या मन देखो
सब के सब हैं बदरंग
........ भैया होली का हुड़दंग

अब की होली कुछ ऐसे हम -
खेलें, तो फिर आए मजा
'गुण' गुलाल चेहरों पे मल के
नाचें 'ढँग' के ढ़ोल बजा
'मनुहारों' की बंटे मिठाई
'सत्कारों' के साज सजा
गर ऐसा हो जाए तो
मन होवे मस्त मलंग
........ भैया होली का हुड़दंग


नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित नवगीत

ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

[घनाक्षरी कवित्त]

बेगैरत



सुबह सुबह
देखता हूँ सड़क पर एक
सोलह वर्षीय मृत बालिका
घेरे खड़ी भीड़....

रुका मैं
पूछा कैसे मरी
उत्तर मिला पीलिया से
भर्ती थी वो अस्पताल में
उसे ले जा रहे थे
पीलिया झड़वाने
रास्ते में ही मर गयी बेचारी
हाय रे! अशिक्षा....

हो रही थी देर
पत्नी को छोड़ना था स्कूल
सोचा लौट कर देखता हूँ ....

जल्दी से आया वापस
देखा भीड़ और बढ़ गयी
तभी दिखे
एक परिचित
समाजसेवी संस्था चलाते हैं
बोले वो
अभी गाड़ी भिजवाता हूँ
और वापस हो लिए
सोंचा मैंने दे गए चरका....

हो रही थी देर
आता दिखा तभी
एक ठेलिया वाला
हमने रोका उसे और कहा
छोड़ आ इसे इसके गाँव
बस चार किलोमीटर दूर है
वापसी तक का किराया
हम देंगे तुझे ....

बोला नहीं जाऊंगा
मैंने पूछा अगर ये
तेरी लाड़ली होती तो
कैसे दे पाता उत्तर वो
बस चुपचाप खिसक लिया....

इतने में दिखी
एक मिनी कैरियर
भीड़ ने रोका उसे
वो रुका तो
मगर ले जाने से
उसने भी किया
एकदम इंकार ही....

चंदा जुटाकर
किराया देने को
तैयार खड़ी भीड़
कुछ पुलिस वालों ने भी
कहा इसे छोड़ आ
पर वो नहीं हुआ राजी
और वो भी निकल लिया ....

कुछ देर बाद
आती दिखी लाश गाड़ी
जो ले गयी उसे गंतव्य तक
उन समाज सेवक मित्र ने
निभाया था वादा
और थी वो संस्था भी
काबिल ए तारीफ ....

एक तरफ ये शहर वासी
दूजी ओर ठेलिया चालक
व कैरियर ड्राईवर
एक सहृदय बने
तो दूजों ने अनसुनी की
अपनी अंतरात्मा की
एक तरफ गैर थे तो
दूजी ओर उसके अपने भाई ....

अभागी थी वो
शायद क्योंकि
मरने के बाद भी जिसे
गैरों ने ही अपनाया
दगा की उसके अपनों ने ही....

अगर होती वो जिन्दा
तो ले जाने को साथ
होते लालायित सभी ये
शायद मरते ही
इनकी नजरों में
हो गयी अछूत वो
तभी तो
कैसे करते स्पर्श उसे
क्योंकि इनमें
मानवता ही मर चुकी थी....

इस गैरत की तह में शायद
अशिक्षा अभाव
व गरीबी ही होगी
इससे रहना है गर दूर
तो अपनी नीयत हमें
साफ़ रखनी ही होगी
हमेशा साफ़ ही रखनी होगी....

--अम्बरीष श्रीवास्तव

मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी,



मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी|
पर्वतों पर जो जमीं थी बर्फ पिघली जा रही थी|
क्यों मुझे इतना नहाना ,इस तरह अच्छा लगा था|
बात तेरी चल रही थी , जान निकली जा रही थी|१|

शब्द के कतरे पिरोकर ,वेदना जब गुनगुनाई|
बूँद अमृत की बिलोकर, बह रही थी रोशनाई|
प्रीत का व्यापार कितने युग अनंतों तक चलेगा|
व्योम में छिटकी हुई -सी एक बदली जा रही थी|२|

द्रश्य चेतन, ओ, अचेतन ,इस तरह क्यों खींचते हैं|
प्रियतमा के बिम्ब अक्सर, आत्मा में दीखते हैं|
मैं नहाया डूबकर जब, फ़क्त इतना याद आया|
रेत की सूखी सतह पर ,मीन, उछली जा रही थी|३|

तुषार देवेन्द्र चौधरी

हूर सी मुफ़लिस हसीना को न शौहर मिल सका



ज़ाहिलों से अक़्ल क्या हमको कभी मिल जाएगी
इन अँधेरों से भला क्या रोशनी मिल जाएगी

झूट लालच ही खुसूसन देखिए किरदार में
ये कमी मिल जाएगी तो हर कमी मिल जाएगी

दोस्तों का ढूँढना क्या दोस्त बन जाया करो
कम से कम उस शख्स को तो दोस्ती मिल जाएगी

येह तो मुमकिन है उनके घर में हो दौलत भरी
लालची के दिल में फिर भी मुफ़लिसी मिल जाएगी

हूर सी मुफ़लिस हसीना को न शौहर मिल सका
उसको लेकिन हर किसी से आशिक़ी मिल जाएगी

दूसरों से माँगने से तो खुशी मिलती नही
दूसरो को दे खुशी तो हर खुशी मिल जाएगी

झूठे लोगो को दिखावे की ज़रूरत है मगर
सच्चे लोगों में हमेशा सादगी मिल जाएगी

हो के अनपढ़ भी तुझे है आगे बढ़ने की ललक
क्या पढ़े लिक्खों पे आसिफ़ बरतरी मिल जाएगी
डा. आसिफ़ हुसैन

खुसूसन = खास तौर पर
बरतरी = आगे निकलना, उन्नति

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - आचार्य सलिल जी और धर्मेन्द्र कुमार [३-४]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पूर्णिमा जी और निर्मला जी के दोहों का आनंद लेने के बाद अब हम पढ़ते हैं दो और सरस्वती पुत्रों को|


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी को हम लोगों ने पहली समस्या पूर्ति में भी पढ़ा है| अपने ब्लॉग दिव्य नर्मदा के माध्यम से आप अनवरत साहित्य की सेवा कर रहे हैं|

होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ, मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार
नैन झुके .........वाह आचार्य जी आपने तो बिहारी जी की याद ताजा करा दी - कहत, नटत, रीझत, खिझत वाली|




दूसरी प्रस्तुति है भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की| आपके ब्लॉग "कल्पना लोक'' में हम लोग पहले भी विचरण कर चुके हैं| इस बार की समस्या पूर्ति के विधान का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए, एक नया प्रयोग करते हुए उन्होंने एक लघु काव्य नाटिका भेजी है| आप भी पढियेगा|

नायक:
रँगने को बेचैन हैं, तुझको लोग हजार
किसकी किस्मत में लिखा, जाने तेरा प्यार

नायिका:
क्षण भर चढ़ कर जो मिटे, ऐसा रँग बेकार
सात जनम का साथ दे, वही रंग तन मार

नायक:
बदन रँगा ना प्रेम रँग, तो जीवन है भार
कोशिश तो कर तू सखी, खड़े खड़े मत हार

नायिका:
बदन रँगा तो क्या रँगा, मन को रँग दे यार
मौका भी दस्तूर भी, होली का त्यौहार

आचार्य जी तो खैर हैं ही अपनी विद्या के पारंगत विद्वान्| इस बार तो धर्मेन्द्र भाई ने भी अभिनव प्रयोग प्रस्तुत कर हमें चौका दिया है|


अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी - नवीन

हर आदमी की होती है अपनी अलग इक एंटिटी|
दुनिया मगर अक्सर समझ पाती न ये रीयेलिटी |१|

हिन्दोस्ताँ को जगदगुरु यूँ ही नहीं कहते सभी|
डायवर्सिटी होते हुए भी है यहाँ पर यूनिटी|२|

गिनती पहाड़ों से भी आगे है गणित का दायरा|
माइनस करे एनीमिटी और प्लस करे ह्यूमेनिटी|३|

ताउम्र जो साहित्य की आराधना करते रहें|
क्यूँ भूल जाती हैं उन्हें सरकार और सोसाइटी|४|

सीखा है जो 'कल' से वही हाजिर किया 'कल' के लिए|
अब आप को करना है तय, कैसी है ये वेराइटी|५|


मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन मुसतफ़इलुन 
2212 2212 2212 2212
बहरे रजज मुसम्मन सालिम

औरतें


ये औरतें हर जगह दीख जाती हैं
जब एक पत्ता फूटता है
हल्का बैंगनी-हरा
कोमल अधरों पर सुबह की मुसकान सहेजता
तब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
गुड़ियों में बना रही होती है घर
संभाल रही होती है
खिलौनों के बर्तन
जिसमें कांच के रेशों -सा
खिंचने लगता है उसका वज़ूद.
जब कुछ मोगरे अपने सफ़ेद मुख पर
पोत लेते हैं खुशबू
और गुलाब रंग लेता है ओंठ लाल
तब एक कौमार्य औरत बनकर
ठेल रहा होता है अपना बदन
जैसे कछुआ समेटता है
हाथ-पैर कड़े खोल में
मोटा कपड़ा भी पारदर्शी हो जाता है
और किसी झिझक में
बंद कर रही होती है झरोखे , खिड़कियाँ
तब वह सिल रही होती है घर के परदे
जिसकी सीवनों में
सिल जाती है उसकी बखिया
कई तुरपने, काज , कसीदे ..
किसी सिंड्रेला के जूते छूट जाते हैं बॉल डांस में
और एक जूता लिए करती है इंतज़ार
पर महल कोई घसीट कर ले जाता है तहखाने में
अतीत की सभ्यताएँ
नदी किनारे यूं ही बिखरी रहती हैं
जिस पर लहरों की चादर चलती है
एक पर एक कई
और तलौंछ में सोई होती है जलपरी
आधी मछली ..
उसकी भौहें कितनी घनी हो जाती हैं
जैसे गरम भाप से नहाकर आता है बादल
उसकी बरौनियों पर बिजली टूटती है
रह-रहकर .. सिहरकर
और जंगल भीगते रहते हैं
पहाड़ों , मैदानों पर
तब वह किसी बेडौल गागर -सी
भर रही होती है जल
तुम्हारी क्षुधा की कितनी परवाह है उसे ..
पता नहीं किस बुढ़ापे तक
उसे ऐसे ही दीखना है
दरवेश रेत उड़ती रहती है
और फ़ैल जाते हैं सहारा के बदोइन
जिप्सी , थार के गाड़लिए ..
रेत की झुर्रियों में
कई हवाएं बंद हैं शायद !

ये रात कैसे अचानक निखर निखर सी गयी

धुआँ उठा है कहीं खत जला दिये गए क्या
किसी के नाम के आँसू बहा दिये गए क्या

तो क्या हमारा कोई मुंतज़िर नहीं है वहाँ
वो जो चराग थे सारे बुझा दिये गए क्या

उजाड़ सीने में ये साँय साँय आवाजें
जो दिल में रहते थे बिल्कुल भुला दिये गए क्या

हमारे बाद न आया कोई भी सहरा तक
तो नक्श-ए-पा भी हमारे मिटा दिये गए क्या

ये रात कैसे अचानक निखर निखर सी गयी
अब उस दरीचे से परदे हटा दिये गए क्या
:- मनोज अज़हर
  • azhar.manoj@gmail.com

मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन  
1212 1122 1212 22 
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ

हम तो ठहरे यार मलँग



तेरे सपने, तेरे रँग
क्या-क्या मौसम मेरे सँग

आँखों से सब कुछ कह दे
ये तो है उसका ही ढँग

लमहे में सदियाँ जी लें
हम तो ठहरे यार मलँग

जीवन ऐसे है जैसे
हाथों में बच्चे के पतँग

गुल से ख़ुश्बू कहती है
जीना मरना है इक सँग

कैसे गुज़रे हवा भला
शहर की सब गलियाँ हैं तँग
:-देवमणि पांडेय


लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

खोट के सिक्के चलाये जा रहे है
लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

आसमां में सूर्य शायद मर गया है
मोमबत्ती को जलाये जा रहे है

देखिये तांडव यहाँ पर हो रहा है
रामधुन क्यों गुनगुनाये जा रहे है

जो पिघल कर मोम से बहने लगे है
लोग वो काबिल बताये जा रहे है

आप को वो स्वप्नजीवी मानते है
स्वप्न अब रंगीन लाये जा रहे है

देखते है आसमां कैसे दिखेगा
शामियाने और लाये जा रहे है

:- अश्विनी कुमार शर्मा
  • ashvaniaugust@gmail.com

यूँ ही आँगन में बम नहीं आते

लुटके मंदिर से हम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते

कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते

आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते

कोइ फिर भूखा सो गया होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते

प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते

कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते
धर्मेन्द्र कुमार सज्जन का कल्पना लोक


दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - पूर्णिमा जी और निर्मला जी [1-2]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

लो आ गयी बेला दोहा छंद पर दूसरी समस्यपूर्ति के श्री गणेश की| सर्व प्रथम, चौपाई छंद पर पहली समस्या पूर्ति पर अपनी अपनी रचनाएँ भेजने वाले एवं उन रचनाओं पर अपनी टिप्पणी रूपी पुष्पों की वर्षा करने वाले सभी कला प्रेमियों का अभिनंदन|

पहली समस्या पूर्ति का अनुभव काफी उत्साह प्रद रहा, बस एक छोटी सी बात जो दिल में खटकी थी, वो थी नारी शक्ति की अनुपस्थिति| माँ शारदे ने इस बार हमारी प्रार्थना सुन कर पहली दो पूर्तियाँ महिलाओं द्वारा ही भिजवाई हैं|


Purnima Varman

अनुभूति, अभिव्यक्ति एवं नवगीत की पाठशाला यानि पूर्णिमा वर्मन जी| अंतर्जाल पर साहित्य के प्रति आपके समर्पण को भला कौन नहीं जानता| सब से पहले आपके दोहे प्राप्त हुए हैं| तो आइये पढ़ते हैं पुर्णिमा जी के दोहे:-

जोश, जश्न, पिचकारियाँ, अंबर उड़ा गुलाल|
हुरियारों की भीड़ में, जमने लगा धमाल|1|

शहर रंग से भर गया, चेहरों पर उल्लास|
गली गली में टोलियाँ, बाँटें हास हुलास|2|

हवा हवा केसर उड़ा, टेसू बरसा देह|
बातों में किलकारियाँ, मन में मीठा नेह|3|

ढोलक से मिलने लगे, चौताले के बोल|
कंठों में खिलने लगे, राग बसंत हिँदोल|4|

मंद पवन में उड़ रहे, होली वाले छंद|
ठुमरी, टप्पा, दादरा, हारमोनियम, चंग|5|

नदी चल पड़ी रंग की, सबका थामे हाथ|
जिसको रंग पसंद हो, चले हमारे साथ|6|

घर घर में तैयारियाँ, ठंडाई पकवान|
दर देहरी पर रौनकें, सजेधजे मेहमान|7|

नगर नगर झंकृत हुआ, दुनिया हुई सितार|
सर पर चढ़कर बोलता, होली का त्यौहार|8|

मन के तारों पर बजे, सदा सुरीली मीड़|
शहरों में सजती रहे, हुरियारों की भीड़|9|

होली की दीवानगी, फगुआ का संदेश|
ढाई आखर प्रेम के, द्वेष बचे ना शेष|10|



My Photo
दूसरी समस्या पूर्ति मिली है आदरणीय निर्मला कपिला जी से| वर्ष 2009 में श्रेष्ठ कहानी के 'संवाद' पुरस्कार तथा वर्ष 2010 के लोक संघ परिकल्पना सम्मान [कथा-कहानी] को प्राप्त करने वाली आदरणीया निर्मला जी के ब्लॉग वीर बहूटी से हम में से अधिकांश लोग परिचित हैं| उन के अनुसार उन्होने जीवन में पहली बार ही दोहे लिखे हैं| ओहोहोहों निर्मला जी आप के जीवट को सादर प्रणाम| आइये पढ़ते हैं उन के दोहे:-


लाज शर्म को छोड कर, लगी पिया के अंग|
होली खेली प्रीत से, देख हुये वो दंग|1|

होली होली खेलते, लाल हुये हैं गाल|
सडकों पर करते युवा, देखो खूब धमाल|2|

होली के त्यौहार पर, झूमें गायें लोग|
घर घर मे हैं पक रहे, मीठे छ्प्पन भोग|3|

कोयल विरहन गा रही, दर्द भरे से गीत|
रंग लगाऊँ आज क्या, दूर गये मन मीत।|4|

होली के त्यौहार पर, सखियाँ करें पुकार|
होली खेलो साथ मे, लला श्याम सुकुमार|5|

धूम मची चारों तरफ, होली का त्यौहार|
कौन करे बिन साजना, रंगों की बौछार|6|

समस्या पूर्ति की पंक्ति को आपने 2 रूपों में 3 स्थानों पर प्रयोग में लिया है| क्या बात है निर्मला जी|

तो देखा, कितने सुंदर दोहे भेजे हैं इन दो कवियत्रियों ने| अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम - नवीन

सूने जङ्गल देख के अक्सर ऐसा लगता है
उतना ही लिखना था जितना अच्छा लगता है

आप ही कहिये आप का दरिया किस को पेश करूँ
ये प्यासा, वो जल बिन मछली जैसा लगता है

रब ही जाने उस पर क्यों गुस्सा आता है मुझे
जबकि सलीक़ा उस का मेरे जैसा लगता है

मत पूछें मुझसे मेरी ख़ामोशी की वज़्हें
ख़ुद को चूँटी काट के बोलें – कैसा लगता है

यक़ीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा कर देख लें ख़ुद
अपना मुम्बै खेत-खिलौनों जैसा लगता है

----- 


सभी दिखें नाखुश, सबका दिल टूटा लगता है
तमाम दुनिया का इक जैसा किस्सा लगता है

तुम्हीं कहो किसको दूँ अपने हिस्से का पानी
झुलस रहा ये, वो जल बिन मछली-सा लगता है

रिवायती ग़ज़लें चिलमन पे कह तो दूँ लेकिन
नये जमाने का कपड़ों से झगड़ा लगता है

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम
बड़ा शहर भी खेत खिलोनों जैसा लगता है

नहीं किताबें पढ़ के होता जन-धन संचालन
भले भलों को इसमें खास तजुर्बा लगता है