एक नज़्म - मुमताज़ नाजाँ

सवाल

एक बेटी ने ये रो कर कोख से दी है सदा
मैं भी इक इंसान हूँ, मेरा भी हामी है ख़ुदा
कब तलक निस्वानियत का कोख में होगा क़िताल
बिन्त ए हव्वा पूछती है आज तुम से इक सवाल

जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का क़त्ल
आदमीयत काँप उठती है, लरज़ जाता है अदल्
देखती हूँ रोज़ क़ुदरत के ये घर उजड़े हुए
ये अजन्मे जिस्म, ख़ाक ओ ख़ून में लिथड़े हुए

देख कर ये सिलसिला बेचैन हूँ, रंजूर हूँ
और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ
काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर
आदमीयत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर

कौन वो बदबख़्त हैं, इन्साँ हैं या हैवान हैं
मारते हैं माओं को, बदकार हैं, शैतान हैं
कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया
जो अभी जन्मी नहीं थी, जुर्म क्या उस ने किया

मर्द की ख़ातिर सदा क़ुर्बानियाँ देती रही
माँ है आदमज़ाद की, क्या जुर्म है उस का यही?
वो अज़ल से प्यार की ममता की इक तस्वीर है
पासदार ए आदमीयत, ख़ल्क़ की तौक़ीर है

ये वो है जो इस जहान ए हस्त का आधार है
कायनात ए बेकरां का मरकज़ी किरदार है
सारे नबियों को भी, वलियों को भी, और सादात को
सींचती है नौ महीने ख़ून से हर ज़ात को

मामता की, प्यार की इख़लास की मूरत है वो
क्यूं उसे तुम क़त्ल करते हो? कोई आफ़त है वो?
जब से आई है ज़मीं पर, क्या नहीं उस ने सहा
हर सितम सह कर भी अब तक करती आई है वफ़ा

जब वो छोटी थी तो उस को भाई की जूठन मिली
खिल न पाई जो कभी, है एक वो ऐसी कली
उस को पैदा करने का अहसां अगर उस पर किया
इस के बदले ज़िंदगी का हक़ भी उस से ले लिया

इज़्ज़त ओ ग़ैरत, कभी लालच का लुक़मा बन गई
बिक गई कोठों पे, आतिश का निवाला बन गई
ये अज़ल से जाने कितने दर्द सहती आई है
फिर भी बदक़िस्मत, अभागन, बेहया कहलाई है

मुस्तक़िल दी है अज़ीअत, इक ख़ुशी उस को न दी
आख़िरश अब तुम ने उस की ज़िंदगी भी छीन ली
क्यूं किसी औरत की हस्ती तुम पे आख़िर बार है
एक औरत इस जहाँ में प्यार है, बस प्यार है

ज़ंग ये दिल पर तुम्हारे क्यूं लगी है आज भी
क्या तुम्हें ख़ुद पर नहीं आती ज़रा सी लाज भी
ये तुम्हारी माँ भी है, बेटी भी है, बीवी भी है
हमसफ़र भी, रहनुमा भी, और फिर फ़िदवी भी है

ख़ूबरू है, दिलरुबा है, है सरापा दिलकशी
औरतों के दम से है दुनिया ए दिल की रौशनी
इक सुलगता कर्ब, इक दश्त ए बला रह जाएगा
हुस्न से ख़ाली जहां में और क्या रह जाएगा

ऐ गुनहगारान ए मादर, दुश्मन ए इंसानियत
ऐ इरम के क़ातिलो, ऐ पैकर ए शैतानियत
जिस को बेटी जान कर यूं क़त्ल तुम करते रहे
ये नहीं सोचा? के जो बेटी है, वो इक माँ भी है

आदमी के वास्ते फिर माँ कहाँ से लाओगे

मार दोगे माओं को तो तुम कहाँ से आओगे

दोहे - विजेंद्र शर्मा

खुली आँख तो भोर ने, माँगा यही हिसाब !
पलकों की दहलीज़ तकआये कितने ख्वाब !!

यारो इस तालीम की होती नहीं किताब !
सीखो किसी फ़क़ीर से जीने के  आदाब !!

यार ! हमारे पास है बहुत बड़ी जागीर !
दिल में उसकी याद हैअरु नैनों में नीर !!

ज्यूँ मुरझाई फस्ल में,  जान डाल दे खाद !
हरा–भरा सा कर गयी ,मुझको तेरी याद !!

कब देखे है इश्क़ ये किसकी है दहलीज़ !
शहज़ादे के प्यार में पागल हुई कनीज़ !!

उर्दू - हिन्दी को  मिले  ,  ऐसे  ठेकेदार   !
जिनके घर की आबरू अंग्रेज़ी  अखबार  !!

लिखा तुम्हारी याद में जब हमने मज़मून !
काग़ज़ की भी आँख से लगा टपकने ख़ून !!

डोर किसी के हाथ में ,उड़े किसी के संग !
जीवन के आकाश में ,  हम हो गये पतंग !!

कहाँ गई वो लोरियां कहाँ गये वो चाव !
बच्चों ने भी फाड़  दी काग़ज़ वाली नाव !!

इक सच बोला और फिरदेखा ऐसा हाल !
कुछ ने नज़रें फेर ली,कुछ की आँखें लाल !!

कहे चाँद से चाँदनीआवे मोहे  लाज !
जब जमना की ओट सेमुझे निहारे ताज !!

मुझको यही सवाल बस , नौंचे है दिन-रात !
मैं तो उस के साथ था वो था  किसके  साथ  !!

लहजे  जिनके फूल से चहरे  भी  ख़ुशरंग !
उनकी बस्ती  में मिली ,दिल की  गलियाँ तंग !!

तुम ही इसमें लफ्ज़ हो और तुम्ही मफ़हूम !
तभी हमारी नज़्म है तुम जैसी मासूम !!

दरिया तेरा दायरा बढ़ तो गया ज़रूर !
मगर किनारे हो गए पहले से भी दूर !!

स्टेशन पर ही रह गये हम लहराते हाथ !
कोई ख़ुद को छोड़कर हमें ले गया साथ !!

जो अपने महबूब को,  समझे है सैयाद !
उसे इश्क़ की क़ैद से, कर दीजे आज़ाद !!

ग़म, आँसू, तनहाइयाँचारों तरफ अज़ाब !
इन कांटो के बीच भी तेरी याद गुलाब !!

ऐसे मिलता था गले जैसे भरत मिलाप !
वही गले का ले गया गले लगाकर नाप !!

तुम पर लिखनी नज़्म थी सोचा था उन्वान !
इतने में ही हो गया काग़ज़ लहू लुहान !!

आधुनिक दोहे - अम्बरीष श्रीवास्तव

अल्प वस्त्र में अधखुले, अति आकर्षक अंग.
चंचल मन को मारिये, व्यर्थ करे यह तंग..

आमंत्रण दें द्रौपदी, चीर मचाये शोर.
लूट रहे अब लाज को, कलि के नन्दकिशोर.

'स्वीटी' 'डार्लिंग' कर्णप्रिय, अप्रिय 'बहनजी' शब्द.
'मैडम' 'मिस' मन मोहते, अम्बरीष निःशब्द..

अनशन ही अपनाइए, दे इच्छित आकार.
सत्ता की सीढ़ी बने, पावन भ्रष्टाचार..

क्षत-विक्षत यदि रीतियाँ, शर्मिन्दा क्यों आर्य.
'डेटिंग' पर मिस यदि गयीं, अक्षत हो कौमार्य..

भ्रष्टाचारी जो बने, उन पर कहाँ नकेल.
मर्माहत माँ भारती, संत चले अब जेल..

कितना हुआ विकास है, देखें एक मिसाल.
गिरता जाता रूपया, डालर करे कमाल..

सन सैतालिस सा सजन, यह चौदह का साल.
क्या-क्या होना है अभी, उठने लगा सवाल..

सपना देखा साधु ने, दिया अनोखा मंत्र.
छिपी सुरंगें छोड़कर, सोना खोदे तंत्र..

मंदबुद्धि वह है कहाँ, मत कह रंगा सियार.
माँ की उस पर है कृपा ठहरा राजकुमार..

कपट गुंडई लूट छल, किडनैपिंग औ रेप.
सत्ता से उपहार में, मिलती ऐसी खेप ..

या अंग्रेजी में छपे, या फिर उर्दू कार्ड.
देवनागरी त्याज्य है, भाई साहब लार्ड..

कैसा यह दुर्भाग्य है, मूल कर दिया लुप्त.
हिन्दी-हिन्दी जाप हो, हुई संस्कृत सुप्त..

पढ़े विदेशी संस्कृत, भारतीय हों बोर.
देवनागरी छोड़कर, अंग्रेजी का जोर..

खाया चारा कोयला, प्यार चढ़ा परवान.
करें दलाली मित्रवर, बहुत भला ईमान..

दो-दो बोगी भूनकर, बदले में ली जान.
वाह-वाह इंसानियत, देख लिया ईमान..

जिसे बालिका जानकर, दिया गर्भ में मार.
वही पूछती प्रश्न अब, कैसे हो उद्धार..

जनहित में दंगे हुए, सम्यक हुआ प्रयास.
अभी मिलेगा मुफ्त में, सुख सुविधा आवास..

साझा सारी सूचना, करें देश से प्यार.
जागरूक हों नागरिक, उपयोगी 'आधार'..

शहरों में सम्पन्नता, सारे गाँव गरीब.
मनरेगा में भी लुटे, कैसा हाय नसीब??

देख दुर्दशा देश की, चिंतित मत हों यार.
नमो-नमो जप आप लें, निश्चित बेड़ा पार

:- अम्बरीष श्रीवास्तव

बस एक शब्द के अन्तर से दो छन्द - गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'

भोजन भजन बनाइये, दिनचर्या अविराम।
योग, मनन चिंतन करे, बदन नयन अभिराम।
बदन नयन अभिराम, संतुलित भोजन करिए।
घूमो सुबहो शाम,मनन अरु चिंतन करिए।
कह ‘आकुल’ कविराय, भजन से भागे जो जन।
ना पाये संतोष, करे कैसा भी भोजन।

'भजन' के स्‍थान पर 'भ्रमण' से स्‍वरुप देखें-

भोजन भ्रमण बनाइये, दिनचर्या अविराम।
योग, मनन चिंतन करे, बदन नयन अभिराम।
बदन नयन अभिराम, संतुलित भोजन करिए।
घूमो सुबहो शाम, मनन अरु चिंतन करिए।
कह ‘आकुल’ कविराय, भ्रमण से भागे जो जन।

रुग्ण वृद्ध हो शीघ्र, करे कैसा भी भोजन।

खोया-खोया चाँद भी - फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

खोया-खोया चाँद भी, गया रूठकर आज |
तारा टूटे तार का, कहाँ बजाता साज ||
कहाँ बजाता साज, घने घुप अँधियारे में,
या खुद रोता आज, चाँद के चौबारे में,
जागा सारी रात, नहीं वह तारा सोया,
गया रूठ जब प्यार, चाँद सा खोया-खोया ||


~ फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

मुहब्बतों का सलीका सिखा दिया मैंने - अंजुम रहबर

मुहब्बतों का सलीक़ा सिखा दिया मैंने...
तेरे बगैर भी जी के दिखा दिया मैंने ...

बिछड़ना मिलना तो किस्मत की बात है लेकिन,
दुआएं दे तुझे शायर बना दिया मैंने...

जो तेरी याद दिलाता था,चहचहाता था ,
मुंडेर से वो परिंदा उडा दिया मैंने ......

जहाँ सजा के मैं रखती थी तेरी तस्वीरें
अब उस मकान में ताला लगा दिया मैंने..

ये मेरे शेर नहीं मेरे ज़ख़्म है अंजुम ,
ग़ज़ल के नाम पे क्या क्या सुना दिया मैंने...


अंजुम रहबर

बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22  

तुम्हे मुहतात होना चाहिए था - फ़हमी बुदाउनी

तुम्हे मुहतात होना चाहिए था
बगैर अश्कों के रोना चाहिए था

मिरी वादा-खिलाफी पर वो चुप हैं
उसे नाराज़ होना चाहिए था

हमारा हाल तुम भी पूछते हो
तुम्हे मालूम होना चाहिए था

अब उसको याद करके रो रहा हूँ
बिछड़ते वक़्त रोना चाहिए था

चला आता यकीनन ख्वाब में वो
हमें कल रात सोना चाहिए था

पड़ा था इश्क में पहला भंवर जब

वहीँ कश्ती डुबोना चाहिए था......

फ़हमी बुदाउनी

कभी ऐसा नहीं लगता कभी वैसा नहीं लगता - निदा फ़ाज़ली

कभी ऐसा नहीं लगता कभी वैसा नहीं लगता
ग़रज़ के कोई भी पूरी तरह पूरा नहीं लगता

किसी के लब पे गाली है न ग़ुस्सा है निगाहों में
ये कैसा शह्र है इसमें कोई अपना नहीं लगता

अदालत मोहतरिम है जो भी चाहे फ़ैसला दे दे
सज़ा पाये न जब कोई खता अच्छा नहीं लगता

न रोशनदान चिड़ियों के, न कमरा है किताबों का
इमारतसाज़ ये नक़्शा मिरे घर का नहीं लगता

मदारी की सदा अपनी कशिश खोने लगी शायद
पुराने शोब्दों से अब नया मजमा नहीं लगता
-निदा फ़ाज़ली

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था - इस्मत ज़ैदी शेफ़ा

बारहा निकला मैं इस रस्ते से, बस ठहरा न था
सच ये है कि आप ने भी तो कभी रोका न था

उन की कोशिश राएगाँ हो जाएगी सोचा न था
मैं कहीं अंदर से टूटा तो मगर बिखरा न था

मुन्तज़िर रहती ज़मीं कब तक, बिल-आख़िर फट गई
बादलों का एक भी टुकड़ा यहाँ बरसा न था

उस के फूलों के एवज़, मैं ने उसे काँटे दिये
पूरा सच हो या न हो , इल्ज़ाम ये झूठा न था

मैं गुलिस्तानों के गुल बूटों से वाबस्ता रहा
ख़ार ओ ख़स से भी मगर रिश्ता मेरा टूटा न था

हम सवाल ए ज़ीस्त सुलझाने की कोशिश में रहे
मस’अला ये इस क़दर उलझा कि फिर सुलझा न था

ऐ ’ शेफ़ा’ क्योंकर ये फ़र्क़ आया इबादतगाह में

ये जगह वो थी जहाँ कोई बड़ा - छोटा न था

इस्मत ज़ैदी 'शेफ़ा'

अब इस दयार में इन ही का बोलबाला है - नवीन

अब इस दयार में इन ही का बोलबाला है
हमारा दिल तो ख़यालों की धर्मशाला है

नज़ाकतों के दीवाने हमें मुआफ़ करें
हमारी फ़िक्र दुपट्टा नहीं, दुशाला है

यक़ीन जानो कि वो मोल जानता ही नहीं
सदफ़ के लाल को जिसने कि बेच डाला है

बड़े जतन से लिखाये गये हैं अफ़साने
कहीं-कहीं किसी मुफ़लिस का भी हवाला है

क़ुसूर सारा हमारा है, हाँ हमारा ही
मरज़ ये फर्ज़ का ख़ुद हमने ही तो पाला है

हमारी ख़ुद की नज़र में भी चुभ रहा था बहुत
लिहाज़ा हमने वो चोला उतार डाला है

रोज़ ही करती हैं एलानेसहर - नवीन

रोज़ ही करती हैं ऐलाने-सहर
ओस की बूँदें मुलायम घास पर

रात भर टूटे थे इतने कण्ठ-हार
सुब्ह तक पत्तों से झरते हैं गुहर

बस ज़रा अलसाई थीं कोमल कली
बाग़ में घुस आये बौराये-भ्रमर

भोर की शीतल-पवन अलसा चुकी
धूप से चमकेगा अब सारा नगर

इस का इस्तेमाल कर लीजे हुजूर
धूप को तो होना ही है दर-ब-दर

वाह री सीली दुपहरी की हवा
जैसे मिलने आ रहे हों हिम-शिखर 

इक सितारा आसमाँ से गिर पड़ा
चाँद को ये भी नहीं आया नज़र

बाग़ तो ढेरों हैं मेरे शह्र में
बस वहाँ पञ्छी नहीं आते नज़र


सोचता हूँ देख कर ऊँचा गगन
एक दिन जाना है वाँ सब छोड़ कर

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस महजूफ़
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन 
2122 2122 212

अगर ये दिन है तो इस बात का हवाला हो - नवीन

नया काम


अगर ये दिन है तो इस बात का हवाला हो।
उजाला हो तो ज़रा देर तक उजाला हो॥
लहू हमारा ही पीते रहे हैं सदियों से।
नवाब हो कि नवाबों का हमपियाला हो॥
वो इस तरह से हमारा इलाज़ करते हैं।
कि जैसे जिस्म हमारा प्रयोगशाला हो॥
कुछ इस तरह से कई लोग रह रहे हैं याँ।
कि जैसे घर नहीं हो कर ये धर्मशाला हो॥


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अगर ये दिन है तो इस बात का हवाला हो
उजाला हो तो ज़रा देर तक उजाला हो

सियासतन ही सही पर वो यूँ जताते हैं
ग़रीब जैसे नवाबों का हमपियाला हो

उजड़ता है तो उजड़ जाये ग़म किसी को नहीं
कि जैसे घर नहीं हो कर ये धर्मशाला हो

वो इस तरह से हमारा इलाज़ करते हैं
कि जैसे जिस्म हमारा प्रयोगशाला हो

क़बीले को तो ख़लीफ़ा ही चाहिये साहब
वो इक नवाब हो या फिर वो चायवाला हो

दश्त में ख़ाक़ उड़ा रक्खी है - शकील जमाली

दश्त में ख़ाक उड़ा रखी है
यार ने धाक जमा रखी है

आप समझाइए मायूसी को
हमने उम्मीद लगा रखी है

कौन खता था के मर जाऊंगा
मेज़ पे अब भी दवा रखी है

मुझको दीमक नहीं लग पायेगी
जिस्म को धुप दिखा रखी है

चैन से बैठ के खा सकता हूँ
इतनी इज्ज़त तो कमा रखी है

लडखडाता हूँ मैं कमजोरी से
वो समझता है लगा रखी है

इश्क करने को तो कर सकते हो

ताक पर रस्म-ऐ-वफा रखी है

शकील जमाली

बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22