दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - पंकज सुबीर [९]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर भिवादन और होली की अग्रिम शुभकामनाएँ

आज के इस सत्र में सिर्फ़ एक ही कवि को पढ़ेंगे हम लोग| इनका परिचय देना सूर्य को दिया दिखाने के समान होगा| वो क्या हैं, सभी जानते हैं, और उन्होने क्या भेजा है आइए अब पढ़ते हैं उसे|



1
बरसाने बरसन लगी, नौ मन केसर धार ।
ब्रज मंडल में आ गया, होली का त्‍यौहार ।।

2
लाल हरी नीली हुई, नखरैली गुलनार ।
रंग-रँगीली कर गया, होली का त्‍यौहार ।।

3
आंखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद ।
साजन दोहे सा लगे, गोरी लगती छंद ।।

4
कस के डस के जीत ली, रँग रसिया ने रार ।
होली ही हिम्‍मत हुई, होली ही हथियार ।।

5
हो ली, हो ली, हो ही ली, होनी थी जो बात ।
हौले से हँसली हँसी, कल फागुन की रात ।।

6
होली पे घर आ गया, साजणियो भरतार ।
कंचन काया की कली, किलक हुई कचनार ।।

7
केसरिया बालम लगा, हँस गोरी के अंग
गोरी तो केसर हुई, साँवरिया बेरंग ।।

8
देह गुलाबी कर गया, फागुन का उपहार ।
साँवरिया बेशर्म है, भली करे करतार ।।

9
बिरहन को याद आ रहा, साजन का भुजपाश।
अगन लगाये देह में, बन में खिला पलाश ।।

10
साँवरिया रँगरेज ने, की रँगरेजी खूब ।
फागुन की रैना हुई, रँग में डूबम डूब।।

11
सतरंगी सी देह पर, चूनर है पचरंग ।
तन में बजती बाँसुरी, मन में बजे मृदंग ।।

12
जवाकुसुम के फूल से, डोरे पड़ गये नैन ।
सुर्खी है बतला रही, मनवा है बेचैन ।।

13
बरजोरी कर लिख गया, प्रीत रंग से छंद ।
ऊपर से रूठी दिखे, अंदर है आनंद ।।

14
होली में अबके हुआ, बड़ा अजूबा काम ।
साँवरिया गोरा हुआ, गोरी हो गई श्‍याम ।।

15
कंचन घट केशर घुली, चंदन डाली गंध ।
आ जाये जो साँवरा, हो जाये आनंद ।।

16
घर से निकली साँवरी, देख देख चहुँ ओर ।
चुपके रंग लगा गया, इक छैला बरजोर ।।

17
बरजोरी कान्‍हा करे, राधा भागी जाय ।
बृजमंडल में डोलता, फागुन है गन्नाय ।।

18
होरी में इत उत लगी, दो अधरन की छाप ।
सखियाँ छेड़ें घेर कर, किसका है ये पाप ।।

19
कैसो रँग डारो पिया, सगरी हो गई लाल ।
किस नदिया में धोऊँ अब, जाऊँ अब किस ताल ।।

20
फागुन है सर पर चढ़ा, तिस पर दूजी भाँग ।
उस पे ढोलक भी बजे, धिक धा धा, धिक ताँग ।।

21
हौले हौले रँग पिया, कोमल कोमल गात ।
काहे की जल्‍दी तुझे, दूर अभी परभात ।।

22
फगुआ की मस्‍ती चढ़ी, मनुआ हुआ मलंग ।
तीन चीज़ हैं सूझतीं, रंग, भंग और चंग ।।

वाह वाह पंकज भाई वाह वाह वाह|
एक नहीं दो नहीं तीन नहीं चार नहीं पूरे के पूरे २२ रंगों में सजे २२ दोहे| वो भी एक से बढ़ कर एक| कविता, आलेख, कहानी वग़ैरह तो पढ़ी थीं आपकी और आज आप के दोहे भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ| मैं तो निशब्द हूँ आप की कलम की इस कारीगरी पर| आपकी लेखनी का शत-शत अभिनन्दन| आपने इस मंच से जुड़ कर इस साहित्यिक प्रयास को और भी गति प्रदान कर दी है| आगे भी आप के साहित्यिक सहयोग के मुंतज़िर रहेंगे हम|

होली - धर्मयुग - १९७५ - दुष्यंत कुमार और धर्मवीर भारती जी के बीच का ग़जलिया पत्राचार

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की अग्रिम शुभकामनाएँ

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दुष्यंत जी के लिए समर्पित मेरा एक शेर:-

ज़हेनसीब हमारे फ़लक का नूर था वो||
[पूरी ग़ज़ल पढ़ने के लिये शेर पर क्लिक करें]
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माहौल अब होली मय हो चुका है हर जगह| तो आइए हम भी कुछ होली की ठिठोली टाइप बात आप से साझा करते हैं| ये बात उन दिनों की है जब पत्राचार भी ग़ज़ल के माध्यम से होता था| तत्कालीन धर्मयुग संपादक श्री धर्मवीर भारती जी को दुष्यंत कुमार जी ने क्या लिखा और फिर धर्मवीर जी ने उस का उसी अंदाज में क्या जवाब भिजवाया, आप खुद देखिएगा:-

दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर|
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर|१|

अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया|
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर|२|

कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका|
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर|३|

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे|
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर|४|

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप|
शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुजूर|५|


धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
[धर्म वीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्]


जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर|
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर|१|

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है|
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर|२|

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई|
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर|३|

पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन|
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर|४|

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम|
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर|५|



[ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।]
:- साभार भाई श्री वीरेन्द्र जैन जी के ब्लॉग से

बरसाने की लठामार होली

महीना पच्चीस दिन दूध-घी उड़ामें और  
जाय कें अखाडें दण्ड-बैठक लगामें हैं|
 
मूछन पे ताव दै कें जङ्घन पे ताल दै कें
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
 
पिछले बरस बारौ बदलौ चुकामनौ है,
पूछ मत कैसी-कैसी योजना बनामें हैं|
 
लेकिन बिचारे बीर बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोपिन सों घर लौट आमें हैं||

होली पर भारतेन्दु हरिशचंद्र जी की ग़ज़ल और गजेंद्र सोलंकी जी के कवित्त

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पिछले दिनों वातायान के इस अंक के लिए हिन्दी साहित्य जगत के पितामह श्री भारतेन्दु हरीशचंद्र जी के होली पर कुछ छन्‍द ढूँढ रहा था और मिल गयी यह ग़ज़ल| इसे मैने बीबीसी की वेबसाइट से लिया है| पढ़ते वक्त लगा कहीं कहीं कुछ टाइपिंग मिस्टेक्स हैं, इसलिए फिर से सर्च मारा| सभी जगह यह ग़ज़ल इसी रूप में मिली| मैने अपनी तरफ से कुछ शब्द इस में कोष्टक में रखते हुए जोड़े हैं ताकि पूरी ग़ज़ल को पढ़ने का आनंद आ सके| पता नहीं कि परम श्रद्धेय स्व. भारतेन्दु जी ने मूल रूप से इन्हीं शब्दों को लिया था या किन्हीं और शब्दों को| यदि इस में कोई भूल हो तो उस के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ|



गले मुझको लगा लो ए [मेरे] दिलदार होली में|
बुझे दिल की लगी भी तो ए [मेरे] यार होली में.|१|

नहीं यह है गुलाले सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे|
ये आशिक ही है उमड़ी आहें आतिशबार होली में.|२|

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो|
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्यौहार होली में|३|

है रंगत जाफ़रानी रुख़ अबीरी [कुमकुमें] कुछ हैं|
बने हो ख़ुद ही होली [तुम] तो ए दिलदार होली में|४|

रसा गर जामे-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझको भी|
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में|५|
:- भारतेन्दु हरिशचंद्र


जब मैं कुछ और छन्‍द ढूँढ रहा था तो अलंकरणों से युक्त बड़े ही नायाब छन्‍द मिले भाई गजेंद्र सोलंकी जी के| दिल्ली निवासी गजेंद्र भाई स्थापित कवि और एक सफल मंच संचालक हैं| आइए पढ़ते हैं उन के घनाक्षरी कवित्तों को|

सुनो मेरे मीत, राष्ट्र- भावना के गीत और,
प्रीति की प्रतीति लेके आया तव धाम जी|

आपके अतीत के ही सन्सकार वाली रीत,
पावन सी प्रीत लेके आया तव धाम जी|

गई अब बीत ठिठुरन ॠतु शीत की रे,
टेसू रंग पीत लेके आया तव धाम जी|

हो रहा प्रतीत, होगी प्रेम की ही जीत भैया,
होली के ये गीत लेके आया तव धाम जी||


यौवन पे है उमंग औ’ वसंत की तरंग,
मद भरे रंग ले निराली होली आई रे|

दिलदार संग-संग झूमते हैं पी के भंग,
भीगे अंग-अंग मतवाली होली आई रे|

उठती उचंग तन हो रहा मलंग आज,
देख सभी हुए दंग आली होली आई रे|

मचा हुड़दंग पिचकारियों की छिड़ी जंग,
प्रेम के प्रसंग रसवाली होली आई रे||


देवरों ने रंग डाले भाभियों के प्रिय अंग,
देवरानियों की ससुराली होली आयी रे|

जीजाओं के हाथों में गुलाल, सालियों के किये-
गाल लाल-लाल, जो रँगीली होली आई रे|

युवा बने ग्वाल बाल, बालाएं ग्वालिन बनीं,
लगे मानो बरसाने वाली होली आयी रे|

साठ साल वालों के भी दिल हैं जवान आज,
सब के गालों पे छायी लाली होली आई रे||
:- गजेंद्र सोलंकी

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - देवमणि पाण्‍डेय, अम्‍बरीष श्रीवास्तव, रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक और कंचन बनारसी [५-६-७-८]

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन

दोहा छन् पर आधारित दूसरी समस्या पूर्ति के तीसरे चक्र में आप सभी का सहृदय स्वागत है| इस बार हम पढ़ेंगे चार ४ रचनाधर्मियों को| इन से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं| समस्या पूर्ति के पहले अंक को शुरू करते वक्त जो कुछ शंकाएँ माइंड में थीं अब निर्मूल होने लगीं हैं| काफ़ी सारे लोग हैं जो आज भी छन्दों से सिर्फ़ प्रेम करते हैं बल्कि उन पर प्रस्तुतियां देने के लिए भी आगे बढ़ कर रहे हैं| आदरणीया निर्मला कपिला जी ने तो नई पीढ़ी के लिए एक अनोखा एक्जाम्पल ही प्रस्तुत कर दिया है|


सरसों फूली खेत में, पागल हुई बयार|
मौसम पर यूँ छा गया, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार में, मिला पिया का संग|
गुलमोहर सा खिल गया, गोरी का हर अंग||

होली के त्यौहार में, बरसे रंग-गुलाल|
आँखों से बातें हुईं, सुर्ख हुए हैं गाल||

:-देव मणि पाण्डेय
मुंबई आय कर कार्यालय में कार्य रत भाई देव मणि पाण्डेय जी जाने माने कवि / शायर और मंच संचालक हैं|




नये वस्त्र तरु को मिलें, चलती मस्त बयार|
जग को उल्लासित करे, होली का त्यौहार||

चंचल नयना मदभरे, पुरवा बाँटे प्यार|
संग चलूँगी साजना, गोरी कहे पुकार||

भंग नशे में नाचते, सारे बीच बजार|
हुरियारों को भा गया, होली का त्यौहार||

ढोल सड़क पर बज रही, सबमें प्यार दुलार|
भस्म करे सब दुश्मनी, होली का त्यौहार||

गुझिया मीठी रसभरी, बनें स्वाद अनुसार|
नये नये पकवान सा, होली का त्यौहार||

आमंत्रित है आप सब, सारा घर परिवार|
मित्र मंडली साथ ही, होली का त्यौहार||

होली के त्यौहार की, महिमा अपरम्पार|
सभी दिलों को जोड़ दे, होली का त्यौहार||

हमें नये रँग में रँगे, होली का त्यौहार|
फूले फले सदाचरण, हे प्रभुजी आभार||

अम्‍बरिष भाई पहली बार समस्या पूर्ति में शामिल हो रहे हैं| मैने इन के सवैया पढ़े हैं, बहुत ही मनोहारी सवैया लिखते हैं ये|




फागुन में नीके लगें, छीँटें अरू बौछार|
सुख देने फिर गया, होली का त्यौहार||

शीत विदा होने लगा, चली बसन्त बयार|
प्यार बाँटने गया, होली का त्यौहार||

पाना चाहो मान तो, करो मधुर व्यवहार|
सीख सिखाता है यही, होली का त्यौहार||

रंगों के इस पर्व का, यह ही है उपहार|
मेल कराने गया, होली का त्यौहार||

भंग डालो रंग में, वृथा ठानो रार|
भेद-भाव को मेंटता, होली का त्यौहार||
:- रूप चंद्र शास्त्री मयंक

छन्‍द शास्त्र को ले कर आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी और रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी का योगदान अविस्मरणीय रहेगा साहित्य जगत में| ये दोनो ही अग्रज इस मंच पर अपने ज्ञान और अनुभव को बाँटने के लिए सदा ही उद्यत रहते हैं| अपने अर्जित ज्ञान और अनुभव को नई पीढ़ी को सौपने के इन के प्रयोजन के लए शत-शत नमन|




निज मन की कालुष्यता, का कर लो उपचार|
अपना सा ही पाओगे, तुम सारा संसार||

पिचकारी से प्यार की, कर कर के वौछार|
काम क्रोध मद लोभ को, होली में दो जार||

कंचन सब से मांगता , छोटा सा उपहार|
ऐसा बन्धु मनाइए , होली का त्यौहार||
:- कंचन बनारसी

उमा शंकर चतुर्वेदी उर्फ कंचन बनारसी जी इस मंच पर की पहली समस्या पूर्ति के पहले प्रस्तुति कर्त्ता हैं| आप की बेलाग और सीधी सपाट भाषा सहज ही आकर्षित करती है| बरास्ते रोला, कुण्‍डलिया जब यह मंच घनाक्षरी और सवैया पर पहुँचेगा तब तो कमाल ही करेंगे कंचन बनारसी जी|


होली के रंग में राबोर इन सरस्वती पुत्रों का बारम्बा अभिनन्दन|

अगले हफ्ते इस समस्या पूर्ति का समापन करेंगे| आप सभी से पुन: विनम्र निवेदन है कि जल्द से जल्द अपने अपने दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें| इस समस्या पूर्ति की जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|

एक और निवेदन -तीसरी समस्या पूर्ति का छंद है - "रोला"
तो सभी जानकार लोगों से सविनय अनुरोध है कि अपने-अपने आलेख यथा शीघ्र भेजने की कृपा करें|

अभिव्यक्ति

व्यक्ती से बढ़ कर सदा, होता इस का मान|
सब के सर चढ़ बोलती, इक नन्ही सी जान||
इक नन्ही सी जान, शान से रहती हरदम|
जो भी दिल में आय, बताती झट्ट फडक्दम|
इस का मूल विवेक, शख्सियत इसकी शक्ती|
कहना इस का काम, नाम इस का अभिव्यक्ती||

तान दें पताका उच्च हिंद की जहान में

ध्यान दें समाज पर अग्रज हमारे सब,
अनुजों की कोशिशों को बढ़ के उत्थान दें|

उत्थान दें
जन-मन रुचिकर रिवाजों को,

भूत काल वर्तमान भावी को भी मान दें|

मान दें
मनोगत विचारों को समान रूप,
हर बार अपनी ही जिद्द को न तान दें|

तान दें
पताका उच्च हिंद की जहान में औ,

उस के तने रहने पे भी फिर ध्यान दें||

सांगोपांग सिंहावलोकन छन्‍द:-
घनाक्षरी कवित्त की तरह ८+८+८+७ = ३१ अक्षर / वर्ण
अंत में गुरु वर्ण
पहले चरण के अंत के शब्द दूसरे चरण के शुरू में, दूसरे के तीसरे, तीसरे के चौथे चरण के शुरू में आने चाहिए
चौथे चरण के अंत के शब्द पहले चरण के शुरू के शब्दों के समान होने चाहिए
प्रस्तुत छंद में 'दें' शब्द सम्मिलित और अर्थ पूर्ति करने वाला शब्द है

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन

उन्नत धारा प्रेम की, बहे अगर दिन रैन|
तब मानव मन को मिले, मन-माफिक सुख चैन||
मन-माफिक सुख चैन, अबाधित होंय अनन्दित|
भाव सुवासित, जन हित लक्षित, मोद मढें नित|
रंज किंचित, कोई न वंचित, मिटे अदावत|
रहें इहाँ-तित, सब जन रक्षित, सदा समुन्नत||

[सम+उन्नत=समुन्नत]



अमृत ध्वनि छन्‍द:-

पहली और दूसरी पंक्ति १३+११ = २४ मात्रा [दोहे की तरह]
दूसरी पंक्ति का अंतिम चरण तीसरी पंक्ति के शुरआत में आता है [कुण्‍डलिया की तरह]
तीसरी से छठी पंक्ति हर पंक्ति में कुल २४ मात्रा
हर पंक्ति ८ - ८ मात्रा के तीन भागों में विभक्त
हर भाग के अंत में लघु वर्ण के साथ यति
छन्‍द के शुरू और आख़िर के शब्द समान [कुण्‍डलिया की तरह]
अमृत ध्वनि के विधान का अनुपालन करने के लिए छन्‍द के शुरू में ऐसा शब्द लें जो अंत में भी फिट बैठ सके, यानि वो दो मात्रा का हो या चार मात्रा का पर अंत में लघु वर्ण के साथ यति का आभास उत्पन्न करे

समान ध्वनि शब्दों की आवृत्ति छन्‍द की शोभा बढ़ाती है

मन होवे मस्त मलंग

होली का हुड़दंग
खेल रहे सब ही जन मिल के
खोजत नव-नित रंग
........ भैया होली का हुड़दंग

गरिमा के 'गुलाल' को भूले
गाली गूँजें सदनों में
अदब 'अबीर' लुप्त दिखता, नहिं -
भेद बड़ों में अदनों में
केमीकल का असर हुआ ये
कान्ति दिखे ना वदनों में
तन देखो या मन देखो
सब के सब हैं बदरंग
........ भैया होली का हुड़दंग

अब की होली कुछ ऐसे हम -
खेलें, तो फिर आए मजा
'गुण' गुलाल चेहरों पे मल के
नाचें 'ढँग' के ढ़ोल बजा
'मनुहारों' की बंटे मिठाई
'सत्कारों' के साज सजा
गर ऐसा हो जाए तो
मन होवे मस्त मलंग
........ भैया होली का हुड़दंग


नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित नवगीत

ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में

आज सपने में ललिता ने ये दिया हुकुम,
ढूँढ के छली को पेश कीजे दरबार में|

दिलों को दुखाने की मिलेगी सज़ा उसे आज,
जुर्म इकबाल होगा अदालतेप्यार में|

प्रेम का कनून तोड़ा, राधा जी से मुँह मोड़ा,
बख्शा न जाएगा वो, छपा दो अख़बार में|

सभी जगा ढूँढा, पर, मिला नहीं श्याम, चूँकि-
बैठा था वो तो छुप के दिलेसरकार में||

[घनाक्षरी कवित्त]

बेगैरत



सुबह सुबह
देखता हूँ सड़क पर एक
सोलह वर्षीय मृत बालिका
घेरे खड़ी भीड़....

रुका मैं
पूछा कैसे मरी
उत्तर मिला पीलिया से
भर्ती थी वो अस्पताल में
उसे ले जा रहे थे
पीलिया झड़वाने
रास्ते में ही मर गयी बेचारी
हाय रे! अशिक्षा....

हो रही थी देर
पत्नी को छोड़ना था स्कूल
सोचा लौट कर देखता हूँ ....

जल्दी से आया वापस
देखा भीड़ और बढ़ गयी
तभी दिखे
एक परिचित
समाजसेवी संस्था चलाते हैं
बोले वो
अभी गाड़ी भिजवाता हूँ
और वापस हो लिए
सोंचा मैंने दे गए चरका....

हो रही थी देर
आता दिखा तभी
एक ठेलिया वाला
हमने रोका उसे और कहा
छोड़ आ इसे इसके गाँव
बस चार किलोमीटर दूर है
वापसी तक का किराया
हम देंगे तुझे ....

बोला नहीं जाऊंगा
मैंने पूछा अगर ये
तेरी लाड़ली होती तो
कैसे दे पाता उत्तर वो
बस चुपचाप खिसक लिया....

इतने में दिखी
एक मिनी कैरियर
भीड़ ने रोका उसे
वो रुका तो
मगर ले जाने से
उसने भी किया
एकदम इंकार ही....

चंदा जुटाकर
किराया देने को
तैयार खड़ी भीड़
कुछ पुलिस वालों ने भी
कहा इसे छोड़ आ
पर वो नहीं हुआ राजी
और वो भी निकल लिया ....

कुछ देर बाद
आती दिखी लाश गाड़ी
जो ले गयी उसे गंतव्य तक
उन समाज सेवक मित्र ने
निभाया था वादा
और थी वो संस्था भी
काबिल ए तारीफ ....

एक तरफ ये शहर वासी
दूजी ओर ठेलिया चालक
व कैरियर ड्राईवर
एक सहृदय बने
तो दूजों ने अनसुनी की
अपनी अंतरात्मा की
एक तरफ गैर थे तो
दूजी ओर उसके अपने भाई ....

अभागी थी वो
शायद क्योंकि
मरने के बाद भी जिसे
गैरों ने ही अपनाया
दगा की उसके अपनों ने ही....

अगर होती वो जिन्दा
तो ले जाने को साथ
होते लालायित सभी ये
शायद मरते ही
इनकी नजरों में
हो गयी अछूत वो
तभी तो
कैसे करते स्पर्श उसे
क्योंकि इनमें
मानवता ही मर चुकी थी....

इस गैरत की तह में शायद
अशिक्षा अभाव
व गरीबी ही होगी
इससे रहना है गर दूर
तो अपनी नीयत हमें
साफ़ रखनी ही होगी
हमेशा साफ़ ही रखनी होगी....

--अम्बरीष श्रीवास्तव

मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी,



मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी|
पर्वतों पर जो जमीं थी बर्फ पिघली जा रही थी|
क्यों मुझे इतना नहाना ,इस तरह अच्छा लगा था|
बात तेरी चल रही थी , जान निकली जा रही थी|१|

शब्द के कतरे पिरोकर ,वेदना जब गुनगुनाई|
बूँद अमृत की बिलोकर, बह रही थी रोशनाई|
प्रीत का व्यापार कितने युग अनंतों तक चलेगा|
व्योम में छिटकी हुई -सी एक बदली जा रही थी|२|

द्रश्य चेतन, ओ, अचेतन ,इस तरह क्यों खींचते हैं|
प्रियतमा के बिम्ब अक्सर, आत्मा में दीखते हैं|
मैं नहाया डूबकर जब, फ़क्त इतना याद आया|
रेत की सूखी सतह पर ,मीन, उछली जा रही थी|३|

तुषार देवेन्द्र चौधरी

हूर सी मुफ़लिस हसीना को न शौहर मिल सका



ज़ाहिलों से अक़्ल क्या हमको कभी मिल जाएगी
इन अँधेरों से भला क्या रोशनी मिल जाएगी

झूट लालच ही खुसूसन देखिए किरदार में
ये कमी मिल जाएगी तो हर कमी मिल जाएगी

दोस्तों का ढूँढना क्या दोस्त बन जाया करो
कम से कम उस शख्स को तो दोस्ती मिल जाएगी

येह तो मुमकिन है उनके घर में हो दौलत भरी
लालची के दिल में फिर भी मुफ़लिसी मिल जाएगी

हूर सी मुफ़लिस हसीना को न शौहर मिल सका
उसको लेकिन हर किसी से आशिक़ी मिल जाएगी

दूसरों से माँगने से तो खुशी मिलती नही
दूसरो को दे खुशी तो हर खुशी मिल जाएगी

झूठे लोगो को दिखावे की ज़रूरत है मगर
सच्चे लोगों में हमेशा सादगी मिल जाएगी

हो के अनपढ़ भी तुझे है आगे बढ़ने की ललक
क्या पढ़े लिक्खों पे आसिफ़ बरतरी मिल जाएगी
डा. आसिफ़ हुसैन

खुसूसन = खास तौर पर
बरतरी = आगे निकलना, उन्नति

दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - आचार्य सलिल जी और धर्मेन्द्र कुमार [३-४]

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

पूर्णिमा जी और निर्मला जी के दोहों का आनंद लेने के बाद अब हम पढ़ते हैं दो और सरस्वती पुत्रों को|


आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी को हम लोगों ने पहली समस्या पूर्ति में भी पढ़ा है| अपने ब्लॉग दिव्य नर्मदा के माध्यम से आप अनवरत साहित्य की सेवा कर रहे हैं|

होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ, मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार
नैन झुके .........वाह आचार्य जी आपने तो बिहारी जी की याद ताजा करा दी - कहत, नटत, रीझत, खिझत वाली|




दूसरी प्रस्तुति है भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की| आपके ब्लॉग "कल्पना लोक'' में हम लोग पहले भी विचरण कर चुके हैं| इस बार की समस्या पूर्ति के विधान का पूर्ण रूपेण पालन करते हुए, एक नया प्रयोग करते हुए उन्होंने एक लघु काव्य नाटिका भेजी है| आप भी पढियेगा|

नायक:
रँगने को बेचैन हैं, तुझको लोग हजार
किसकी किस्मत में लिखा, जाने तेरा प्यार

नायिका:
क्षण भर चढ़ कर जो मिटे, ऐसा रँग बेकार
सात जनम का साथ दे, वही रंग तन मार

नायक:
बदन रँगा ना प्रेम रँग, तो जीवन है भार
कोशिश तो कर तू सखी, खड़े खड़े मत हार

नायिका:
बदन रँगा तो क्या रँगा, मन को रँग दे यार
मौका भी दस्तूर भी, होली का त्यौहार

आचार्य जी तो खैर हैं ही अपनी विद्या के पारंगत विद्वान्| इस बार तो धर्मेन्द्र भाई ने भी अभिनव प्रयोग प्रस्तुत कर हमें चौका दिया है|


अब आप की बारी हैं इन दोहों पर प्रशंसा के पुष्पों की वर्षा करने की| आपके दोहों की प्रतीक्षा है| जानकारी वाली लिंक एक बार फिर रेडी रिफरेंस के लिए:- समस्या पूर्ति: दूसरी समस्या पूर्ति - दोहा - घोषणा|