3 जनवरी 2025

माज़ी की गलियाँ - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ



ये माज़ी की गलियाँ, वो यादों के घेरे

जहाँ रात-दिन हैं उदासी के फेरे

हैं अंजान से जाने-पहचाने चेहरे

मेरे दर्द-ओ-वहशत से बेगाने चेहरे

हैं ओढ़े मोहज़्ज़ब वफ़ा की नक़ाबें

पिये हैं जो जी भर ख़ुदी की शराबें

है इन पर चढ़ा उल्फ़तों का मुलम्मा

हैं बातें पहेली, अदाएँ मोअम्मा

हैं बदशक्ल चेहरे नक़ाबों के पीछे

हैं बदरंग दिल इस मुलम्मे के नीचे

फ़क़त दर्द ही हर मोअम्मे का हल है

बहुत तल्ख़ शीरींबयानी का फल है

यहाँ मोड़ ही मोड़ हैं, ख़म ही ख़म हैं

कि इन रास्तों पर बड़े ज़ेर-ओ-बम हैं

ख़ताएँ भी हैं, लग़्ज़िशें भी बड़ी हैं

तमन्नाओं की लाशें बिखरी पड़ी हैं

वहाँ रंज-ओ-ग़म के सिवा क्या मिलेगा

वहाँ हर क़दम इम्तेहाँ अपना लेगा

तभी तो मैं जाती नहीं उस गली में

वहाँ रंग है ख़ून का हर कली में

हटाओ भी यारो ये माज़ी की बातें

वहीं फेंक आओ ये बेचैन रातें

दिलाओ न अब याद मुझको वो आलम

निगाहें कहीं फिर न हो जाएँ पुरनम

 

: मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

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