चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है


मनोहर शर्मा 'सागर'

 भाई द्विजेन्द्र द्विज जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं|  आइये आज पढ़ते हैं उन के पिताजी श्री मनोहर शर्मा 'सागर' पालमपुरी जी की एक ग़ज़ल

 
मैंने गो आज तुम्हें पहले-पहल देखा है
ऐसा लगता है कि अज़ रोज़-ए-अज़ल देखा है

मरमरी बाहें उठा तूने ली अंगड़ाई तो
चाँदनी रात में इक ताजमहल देखा है

गहरे पानी में नहाते तुझे देखा तो लगा
नीलगूँ झील में इक शोख़ कँवल देखा है

रहगुज़ारों की कड़ी धूप में अक्सर मैंने
तेरी ज़ुल्फ़ों में घटाओं का बदल देखा है

गुफ़्तगू तेरी बहुत शीरीं है फिर भी मैंने
तेरे किरदार में कम हुस्न-ए-अमल देखा है

एक दो बात कभी हम से भी कर लो साग़र’
जब भी देखा है तुम्हें मह्वे-ग़ज़ल देखा है

मनोहर शर्मा ‘’साग़र’’ पालमपुरी
२५ जनवरी १९२९- ३० अप्रैल १९९६


शब्दार्थ 

अज़ = से
रोज़-ए-अज़ल = वह दिन अथवा समय जब सृष्टि की रचना आरम्भ हुई
शीरीं गुफ़्तगू = मधुर वार्तालाप
बदल = स्थानापन्न
हुस्न-ए-अमल = कर्त्तव्य निर्वाह की सुन्दरता

ग्वाल कवि [1879-1981]

पिंगल आधारित ब्रजभाषा काव्य साहित्य ने अपनी अंजुमन में हर तरह के बयानात को पनाह दी है। आइये आज मथुरा के अपने समय के प्रख्यात कवि 'ग्वाल' जी [1879-1981] के कुछ कवित्त पढ़ते हैं।

अफ़सोस ! अपनी जान का सौदा न कर सके - विकास शर्मा 'राज़'

विकास शर्मा 'राज़'

जिस वक़्त रौशनी का तसव्वुर मुहाल था
उस शख़्स का चिराग़ जलाना कमाल था

रस्ता अलग बना ही लिया मैंने साहिबो
हालाँकि दायरे से निकलना मुहाल था

उसके बिसात उलटने से मालूम हो गया

कोई तो जा के समझाये हमारे कर्णधारों को - नवीन

नया काम
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कोई तो जा के समझाये हमारे कर्णधारों को।
चलो मिल कर भटकने से बचाएँ होनहारों को॥


भले अफ़सर नहीं बनते, भले हाकिम नहीं बनते।
चलो हम मान लेते हैं कि सब आलिम नहीं बनते।
मगर इतने ज़ियादा नौजवाँ मुजरिम नहीं बनते।
सही रुजगार मिल जाते अगर बेरोज़गारों को॥


निरक्षरता निरंकुशता के धब्बे कैसे छूटेंगे।
कुशलता-दक्षता वाले ख़ज़ाने कैसे लूटेंगे।
अगर बादल नहीं छाये तो झरने कैसे फूटेंगे।
हमारी देहरी तक कौन लायेगा बहारों को॥


अगर सच में सुमन-सौरभ लुटाने की तमन्ना है।
अगर सच में धरा पर स्वर्ग लाने की तमन्ना है।
अगर सच में ग़रीबी को मिटाने की तमन्ना है।
तो फिर कर्ज़ों की दलदल से निकालें कर्ज़दारों को॥


चलन के सूर्य को संक्रान्ति हम जैसों से मिलती है।
हरिक संक्रान्ति को विश्रान्ति हम जैसों से मिलती है।
वो तो लोगों को मन की शान्ति हम जैसों से मिलती है।
वगरना पूछता ही कौन है साहित्यकारों को॥


Youtube Link:- https://www.youtube.com/watch?v=yiE-eX54bU0

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यही चिन्ता सताये जा रही है कर्णधारों को
भटकने से भला कैसे बचायेँ होनहारों को 

दयारों में न ढूँढेंगे अगर हम आबशारों को
तो फिर गुलशन तलक किस तरह लायेंगे बहारों को

मुहब्बत और तसल्ली के लिये ही रब्त क़ायम है
वगरना पूछता है कौन हम साहित्यकारों को

उमीदें थीं यक़ीनन और भी बेहतर तरक़्क़ी की
मुनासिब काम दे पाये न हम बेरोज़गारों को

कोई हमदर्द लगता है, तो कोई जान का दुश्मन
बता डाले थे हमने राज़ अपने दोस्त-यारों को

ये हमसे तेज़ चलते हैं, बहुत जल्दी समझते हैं
चलो हम राह दिखलायें हमारे होनहारों को

बिना उन की रज़ा तुम भी इन्हें छू तक न पाओगे
रक़ीबों को न सौंपो यार वादी के चिनारों को  

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

ग़ज़ल सृजन - आर. पी. शर्मा महर्षि

       नब्बे से बतियाती उम्र, किसी नौजवान सी फुर्ती और अब तक के हासिल उजाले  को दूर दूर तक बिखेर देने की ललक, शायद इस से अधिक और कुछ परिचय देना सही न होगा आदरणीय आर. पी. शर्मा  महर्षि  जी के बारे में। महर्षि जी और खासकर  देवनागरी  ग़ज़ल का उरूज़ एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

शिव स्तुति - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
11.05.1931 - 14.03.2005
गुरुदेव श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' जी 'ठाले-बैठे' पर पहली बार।
श्री गणेश, 'गणेश पिता शिव जी' की स्तुति से कर रहे हैं। आने वाले
समय में एक एक कर के हम 'प्रीतम' जी विरचित 'दैव-स्तुति', 
'ऋतु वर्णन', 'समस्या-पूर्ति', 'सामाजिक सरोकार', राष्ट्र हित 
चिन्तन'  तथा ऐसे अनेक विषयों से जुड़े छंदों को भी पढ़ेंगे।

बँधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है - पवन कुमार


शायर पवन कुमार



 शायर पवन कुमार का दमदार आग़ाज़ “वाबस्ता
समीक्षा - मयंक अवस्थी
प्रकाशन संस्थान, 4268-B/3, दरिया गंज
नई दिली -110002

चार ग़ज़लें - नरहरि अमरोहवी

[१]

क़ब्र के सिरहाने आशिक टूट कर रोया कोई
ढूँढिये मोती वहाँ मिल जाएगा यक़ता कोई

अब नहीं मुमकिन यहाँ ठंडी हवा के वास्ते
साँस लेने को खुले खिड़की या दरवाज़ा कोई

दिल में यही तमन्ना है सारी दुनिया की सैर करूँ


संस्कार पत्रिका ने इस कविता को अप्रैल'१२ के 'पर्यटन विशेषांक' में [भारत पर केन्द्रित करते हुए] छापा है।



देश-गाँव-शहरों-कस्बों से अनुभव का हर पृष्ठ भरूँ
दिल में यही तमन्ना है सारी दुनिया की सैर करूँ

“रहगुज़र” – अक़ील नोमानी ( समीक्षा -- मयंक अवस्थी)

“रहगुज़र”  – अक़ील नोमानी                   ( समीक्षा -- मयंक अवस्थी)


अक़ील नोमानी साहब का तअर्रुफ मैं एक ही पंक्ति मे कहना चाहूँगा – जो लोग ग़ज़ल के दुनिया से वाक़िफ नहीं हैं वो अकील नोमानी को जानते हैं और जो लोग गज़ल की दुनिया से वास्ता रखते हैं वो अक़ील नोमानी को मानते हैं । यह नाम इलेक्ट्रानिक मीडिया , मुशायरों और अदबी रिसालों में इतना गूँजता है कि जो लोग शाइरी की बज़्म से ना आशना हैं वो भी उनको जानते हैं । शोर की इस दुनिया में आपकी आवाज़ पहचानी जाती है और शोर इस आवाज़ को सुनने के लिये मुश्ताक और मुंतज़िर रहता है और इज़हार के इम्कान होने पर सिजदे भी करता है । पिछले 30-35 बरसों से एक मोतबर गज़ल के ताइर ने जब देवनागरी के  आसमान में उड़ान भरी तो आसमान उसकी कुव्व्वते –परवाज़ का शाहिद भी हुआ काइल भी  और प्रो वसीम बरेलवी की बात सच हुयी कि उनकी शायरी की रमक उनको नयी सम्तों का ऐतबार बनायेगी – प्रो कौसर मज़हरी कह ही चुके हैं कि उनकी गज़लें उर्दू शाइरी में इज़ाफा तसलीम के जायेंगी – सच यह है कि हम अब हिन्दी और उर्दू के फर्क से उबर चुके हैं –हमारी ज़ुबान हिन्दुस्तानी है और अकील साहब की  हर ग़ज़ल शाइरी की दुनिया का हासिल है । क्यों न हो ?!! सच्ची शाइरी क्यों दिलो ज़ेहन पर तारी हो जाती है ?! इसकी कुछ वाज़िब दलीलें हैं ---

आदमी का पता नहीं कोई - राजेन्द्र स्वर्णकार

   
ठाले बैठे परिवार से अभिन्न रूप से जुड़े हमारे स्नेही राजेन्द्र भाई से लगभग हर ब्लॉगर  परिचित है।  पहली बार उन्होंने  एक ग़ज़ल की मार्फ़त वातायन की सूची को सुशोभित किया है ।स्वागत है बड़े भाई !




ढूँढता हूँ , मिला नहीं कोई
आदमी का पता नहीं कोई

नक़्शे-पा राहे-सख़्त पर न मिले
याँ से होक्या चला नहीं कोई

कल बदल जाएगी हर इक सूरत
देर तक याँ रहा नहीं कोई

आइनों से न यूँ ख़फ़ा होना
सच में उनकी ख़ता नहीं कोई

हर घड़ी जो ख़ुदा ख़ुदा करता
उसका सच में ख़ुदा नहीं कोई

आज इनआम मिल रहे इनको
क़ातिलों को सज़ा नहीं कोई

दिल का काग़ज़ अभी भी कोरा है
नाम उस पर लिखा नहीं कोई

शाइरी से भी दिल लगा देखा
कुछ भी हासिल हुआ नहीं कोई

वो तो राजेन्द्र यूं ही बकता है
उससे होना ख़फ़ा नहीं कोई
-राजेन्द्र स्वर्णकार
©copyright by : Rajendra Swarnkar


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
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