दिल तो बच्चा है सो मचल बैठा - नवीन


शान-ए-शायरी हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन ‘दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है” पर एक जदीद  कोशिश:- 


यह न गाओ कि हो चुका क्या है।
यह बताओ कि हो रहा क्या है॥

ख़ुद भगीरथ भी सोचते होंगे।
क्या किया था मगर हुआ क्या है

आप कहते हैं तंग थीं गलियाँ।
शाहराहों से भी मिला क्या है॥

झोंपड़े ही बतायेंगे खुल कर।
आज कल मुल्क में हवा क्या है॥

बह्स-बाज़ों को कौन समझाये।
अब का तब से मुक़ाबला क्या है॥

हम फ़क़ीरों को तुम बताओगे।
बन्दगी क्या है और ख़ुदा क्या है॥

गर क़दीमी बचा नहीं सकती।
तो इलाज और दूसरा क्या है॥

दिल तो बच्चा है सो मचल बैठा।
कौन समझाये फ़लसफ़ा क्या है॥

क्लास में पूछता है इक बच्चा।
सर! मआनी ‘फ़िजूल’ का क्या है॥

झुक के बोला क़लम, इरेज़र से।
यार तुझको मुग़ालता क्या है॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

2122 1212 22

मैं और मेरी तरह तू भी इक हक़ीक़त है - अभिषेक शुक्ला

अब इख़्तियार में मौजें न ये रवानी है
मैं बह रहा हूँ कि मेरा वजूद पानी है 
इख़्तियार - अधिकार, मौजें - लहरें, रवानी - बहाव, वजूद - अस्तित्व

मैं और मेरी तरह तू भी इक हक़ीक़त है
फिर उस के बाद जो बचता है वो कहानी है

तेरे वजूद में कुछ है जो इस ज़मीं का नहीं
तेरे ख़याल की रंगत भी आसमानी है

ज़रा भी दख़्ल नहीं इस में इन हवाओं का
हमें तो मस्लहतन अपनी ख़ाक उड़ानी है
दख़्ल - हस्तक्षेप, मस्लहतन - [किसी] कारण वश

ये ख़्वाब-गाह ये आँखें ये मेरा इश्क़-ए-क़दीम
हर एक चीज़ मेरी ज़ात में पुरानी है
ख़्वाब-गाह - शयन-कक्ष [Bedroom], इश्क़-ए-क़दीम - पुरातन प्रेम, ज़ात - नस्ल के सन्दर्भ में

वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुजरा था
तमाम उम्र उसी दिन की तर्जुमानी है
तर्जुमानी - अनुवाद

:- अभिषेक शुक्ला


मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22 
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ 

जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम - नवीन

मुहतरम फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ज़मीन “कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम” पर एक कोशिश

होश में थे फिर भी जाने क्या समझ बैठे थे हम । 
बादलों को नूर का चेहरा समझ बैठे थे हम ।। 

किस के सर पर ठीकरा फोड़ें अब इस भटकाव का । 
दूर की हर चीज़ को आला समझ बैठे थे हम ।। 

हाल ये होना ही था तालीम और तहज़ीब का । 
लग्ज़िशों को रक़्स का हिस्सा समझ बैठे थे हम ।। 

जिस में कुछ अच्छा दिखा उस के क़सीदे पढ़ दिये । 
एरे-गैरों को भी अल्लामा समझ बैठे थे हम ।। 

जो भी कुछ सामान है तन में समाता है ‘नवीन’ । 
जो समंदर है, उसे दरिया समझ बैठे थे हम ।। 

तालीम – शिक्षातहज़ीब – संस्कारलग्जिश – फिसलना / रपटना , रक़्स – नृत्य, क़सीदे – गुणगानअल्लामा – [बड़ा] विद्वान,

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन 
2122 2122 2122 212 

बहरे रमल मुसमन महजूफ

हमीं तनहा नहीं हैं आसमाँ पर - नवीन

नया काम


हमीं तनहा नहीं हैं आसमाँ पर
कई टूटे हुये दिल हैं यहाँ पर



किसी की रूह प्यासी रह न जाये
लिहाज़ा दर्द बरसे है जहाँ पर



अमाँ हम भी  किरायेदार ही हैं
भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर



बहारों के लिये मुश्किल घड़ी है
अज़ाब उतरे हैं एक-एक बागवाँ पर



बहुत कुछ याद आ जायेगा फिर से
न रक्खें हाथ ज़ख़्मों के निशाँ पर



हमें जाना है बस पी की नगरिया
नज़र रक्खे हुये हैं कारवाँ पर



'नवीन'अब ख़ैर ही समझो तुम अपनी
वो देखो तीर नज़रों की कमाँ पर



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अजब सा हाल देखा आसमाँ पर
कई टूटे हुये दिल हैं वहाँ पर

बदन की प्यास की ख़ातिर है पानी
लिहाज़ा दर्द बरसे है जहाँ पर

किरायेदार से बढ़ कर नहीं हम
भले ही नाम लिक्खा है मकाँ पर

बहारों में ख़िज़ाएँ नाचती हैं
असर दिखता नहीं पर बागवाँ पर

हमें जाना है बस पी की नगरिया
नज़र रक्खे हुये हैं कारवाँ पर

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हजज मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन

1222 1222 122

नीम सदैव जड़ों को ढूँढ व्यथा का मूल मिटाता है - नवीन



रंग-त्वचा को परिभाषित कर नाहक स्वाद चखाऊँ क्या
हर टहनी में कितनी पत्ती होती हैं गिनवाऊँ क्या
किस मौसम का इस पर कैसा असर पड़े बतलाऊँ क्या
यार सैंकड़ों गुण हों जिस में उस की गाथा गाऊँ क्या

नीम समान विटप चीनीबेरी विषधर कहलाता है
विष हट जाये तो यूँ समझो नीम वही हो जाता है
नीम सदैव जड़ों को ढूँढ व्यथा का मूल मिटाता है
किन्तु अधिक सेवन इसका नर को कापुरूष बनाता है

बदन मुसाफ़िर, दुनिया सागर, जिस में चलता नीम जहाज़
बदन परिंदा, दुनिया अंबर, नीम जहाँ पर है परवाज़
ऐसे गुणकारी तरुवर पर कहिये क्यूँ न करें हम नाज़
आर्यवर्त के तरुवर ने दुनिया में हासिल किया फ़राज़
:- नवीन सी. चतुर्वेदी 


विटप – [छायादार] पेड़
विषधर – जहरीले के सन्दर्भ में
कापुरूष – नपुंसक के सन्दर्भ में
परवाज़ – उड़ान
फ़राज़ – ऊँचाई / बुलन्दी [फ़राज़ लफ़्ज़ पुर्लिंग शब्द है]

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे - नवीन

मुहतरम बानी मनचन्दा साहब की ज़मीन ‘आज फिर रोने को जी हो जैसे’ पर एक कोशिश। 
आख़िरी वाले दो अशआर के सानी मिसरे बानी साहब के हैं

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे
ग़म कोई सोनजुही हो जैसे

हमने हर पीर समझनी थी यूँ
गर्द, शबनम को मिली हो जैसे

ज़िंदगी इस के सिवा है भी क्या
धूप, सायों से दबी हो जैसे

आस है या कि सफ़र की तालिब
नाव, साहिल पे खड़ी हो जैसे 
सफ़र की तालिब - यात्रा पर जाने की इच्छुक 

सब का कहना है जहाँ और भी हैं
ये जहाँ बालकनी हो जैसे
जहाँ / जहान - संसार

क्या तसल्ली भरी नींद आई है
"
फिर कोई आस बँधी हो जैसे"

हर मुसीबत में उसे याद करूँ
"
आशना एक वही हो जैसे"
आशना - परिचित
  
:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन
फाएलातुन फ़एलातुन फालुन

२१२२ ११२२ २२

हम समझते रहे हयात गयी - अज़ीज़ बेलगामी

मुहतरम अज़ीज़ बेलगामी साहब की आमद से इस ब्लॉग के नूर में इज़ाफ़ा हुआ है। आप बड़े ही नेकदिल इंसान और हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। आप के पढ़ने वाले हिंदुस्तान से ज़ियादा हिंदुस्तान के बाहर हैं। मालिक की मेहरबानी से आप को बड़ा ही सुरीला कण्ठ मिला है। इन की तमाम वीडियो रिकार्डिंग्स यू ट्यूब पर मौजूद हैं। आप की ग़ज़लें अक्सर हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं।  मेरी बात की ताकीद आप की इस ग़ज़ल से भी होती है। ठाले-बैठे ब्लॉग को पढ़ने वाले तमाम साथी ग़ज़ल से ख़ासा लगाव रखते हैं, ख़ास कर उन सभी साथियों से मैं साग्रह निवेदन करना चाहूँगा कि इस ग़ज़ल को सिर्फ़ एक बार ही न पढ़ें..... 

हम समझते रहे हयात गयी
क्या ख़बर थी बस एक रात गयी

ख़ानकाहों से मैं निकल आया
अब वो महदूद क़ायनात गयी

क्या शिकायत मुक़द्दमा कैसा
जान ही जाय-ए-वारदात गयी

जम के बरसेंगे जंग के बादल
कि फिज़ा-ए-मुज़ाकिरात गयी

बेसदा क्यों न हों ये नक़्क़ारे
मेरी आवाज़ शश-जिहात गयी

ख़ौफ़-ए-पुरशिश की जो अमीन नहीं
यूँ समझ लीजे वो हयात गयी

फिर उजालों के दिन फिरे हैं 'अज़ीज़'
लो अँधेरो तुम्हारी रात गयी
:- अज़ीज़ बेलगामी


हयात - ज़िन्दगी
ख़ानक़ाह - फ़कीरों, साधुओं के रहने का स्थान, आश्रम, कुटिया
महदूद - घिरा हुआ, सीमित, अल्प
क़ायनात - ब्रह्माण्ड
जाय-ए-वारदात - घटनास्थल
फिज़ा-ए-मुज़ाकरात- आपसी बातचीत का माहौल
नक़्क़ारा -नगाड़ा
शशजिहात - छह दिशा, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण-ऊर्ध्व / ऊपर-अधर / नीचे, [वैदिक मान्यताओं के अनुसार दिशाएँ दस होती हैं]
ख़ौफ़-ए-पुरसिश - मृत्यु के बाद ईश्वर के दरबार में होने वाले हिसाब-क़िताब का भय
अमीन - अमानतदार / वाहक के संदर्भ में


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22

साँस जब घर बदल रही होगी - नवीन

जॉन एलिया साहब की ज़मीन “जी ही जी में वो जल रही होगी” पर एक कोशिश


जब हवा रुख़ बदल रही होगी
अब्र की जान जल रही होगी



ख़ुश्बुएँ ऐसी तो न थीं पहले
हो न हो वो मचल रही होगी



भर गई थी जो मुझ-मुहब्बत से
जाने किस दिल में खल रही होगी



आँसुओं ने मुझे गला डाला
रूह उसकी भी गल रही होगी



आज हम इतना मुस्कुराये हैं
बेकली हाथ मल रही होगी



क्या तुम उस वक़्त मिलने आओगे
साँस जब घर बदल रही होगी



कुल अँधेरा है बस निगाहों तक
पेश्तर जोत जल रही होगी



इतनी बरसात वो भी बे-मौसम
जाने क्या शय पिघल रही होगी



ख़ुश न कर पायी जो किसी को 'नवीन'
वो हमारी ग़ज़ल रही होगी






:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून

फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

2122 1212 22

बात जब दिल बदन से करता है - नवीन

नासिर काज़मी साहब की ग़ज़ल “कौन उस राह से गुजरता है” की ज़मीन पर एक कोशिश

बात जब दिल बदन से करता है
तब कहीं आदमी सँवरता है

आब जब आग से गुजरता है
इक नई शय का नक़्श उभरता है
आब - पानी

बात सुनता नहीं हवाओं की
आब धरती पे ही उतरता है

आदमी भूलता नहीं कुछ भी
बा-ज़रूरत फ़क़त मुकरता है

अपने कल की ही फ़िक्र है सब को
कौन दुनिया में रब से डरता है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22

तेरी हर एक बात मानी है - नवीन

जोश मलीहाबादी साहब की ग़ज़ल  “जब से मरने की जी में ठानी है” की ज़मीन पर एक कोशिश



तेरी हर एक बात मानी है ।
जान! तुझ पे ही जाँ लुटानी है॥

किस तरह तुझ को भूल जाएँ हम। 
हर कहानी की तू कहानी है॥

सिर्फ़ इक बार तूने देखा था।
बस वही पल तेरी निशानी है॥

कितनी आसाँ है लय मुहब्बत की।
ताल से ताल ही मिलानी है॥

हम को कैसे हरायेगी दुनिया। 
हम ने दिल जोड़ने की ठानी है॥

इस पे सारे ही रङ्ग खिलते हैं।
रूह का रङ्ग आसमानी है॥

है जो सूरजमुखी सहर के पास।
रात के पास रातरानी है॥

ज़िन्दगी है अगर समन्दर तो।
आदमीयत जहाज़रानी1 है॥

सीख ही लो मुसव्विरी2 ऐ ‘नवीन’।
अपनी तस्वीर ख़ुद बनानी है॥


1 नौचालन की कला, नेविगेशन 
2 चित्रकारी



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22


कभी जंगलों को जला कर चले - नवीन

जनाब मीर तक़ी मीर साहब की ग़ज़ल फ़क़ीराना आये सदा कर चले” की ज़मीन को दुगुन करते हुये

कभी जंगलों को जला कर चले, कभी आशियाने गिरा कर चले
हवा से कहो है जो इतना गुमाँ, तो बारेमुहब्बत उठा कर चले
बारेमुहब्बत - मुहब्बत का बोझ

निभाता है इस से तो छूटे है वो, मनाता है इस को तो रूठे है वो
बशर की भी अपनी हदें हैं जनाब, कहाँ तक सभी से निभा कर चले
 बशर-मनुष्य

ये जीवन है काँटों भरा इक सफ़र, हरिक मोड़ पर हैं अगर या मगर
वही क़ामयाबी का लेता है लुत्फ़, जो दामन को अपने बचा कर चले

अजल से यही एक दस्तूर है, जो कमज़ोर है वो ही मज़बूर है
उसे ये ज़माना डरायेगा क्या, जो आँखें क़ज़ा से मिला कर चले
 अजल - आदिकालक़ज़ा - मौत

नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
१२२ १२२ १२२ १२

भाँग चढ़ाये नाच रहे सब - प्रवीण पाण्डेय

आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,
नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता, 

मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया,

औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा,

अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी,

आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना,

सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं,

जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,

सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,

आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,

आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,

मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?

स्वागत है प्रवीण भाई .....

मुझे प्रवीण भाई के गद्य और पद्य दौनों को ही पढ़ने में बहुत मज़ा आता है। इन की भाषा में कोलाहल का अतिरेक न के बराबर और संदेश का असर बहुत ही प्रभावशाली होता है। उपरोक्त पदयांश मैंने उन की अनुमति के बग़ैर उन के ब्लॉग से उठाया है। आशा करता हूँ प्रवीण भाई पर मेरा इतना अधिकार है। बहुत बहुत बधाई प्रवीण भाई।

विशेष : प्रवीण भाई की पद्य प्रस्तुतियाँ अधिकांशत: छन्द-बद्ध होती हैं। छंदज्ञों से अनुरोध है कि इस प्रस्तुति को पढ़ कर बताएँ कि यहाँ किस छन्द का प्रयोग किया गया है। क्या यह माधुरी है? या मधुभार? या फिर कोई और?

आदम की औलाद ग़ज़ब करती है यार - नवीन

आदम की औलाद ग़ज़ब करती है यार

ज़िन्दा मज़बूरों की ख़ातिर वक़्त नहीं
सिर्फ़ चिताओं पर करती है हाहाकार
आदम की औलाद ग़ज़ब करती है यार
... आदम की...

हासिल से हर वक़्त शिकायत है इस को
ना-हासिल की सख़्त ज़रुरत है इस को
जिस ने ढूँढ निकाला था अक्षर में ब्रह्म
समझ नहीं आता उस को शब्दों का सार
आदम की औलाद ग़ज़ब करती है यार
... आदम की...

बड़ी-बड़ी बातों को सह जाये हँस कर
मामूली बातों पर लड़ती है अक्सर
तिनके से बढ़ कर जिस की औकात नहीं
उस को अपना खेत लगे सारा संसार
आदम की औलाद ग़ज़ब करती है यार
... आदम की... 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

एक तीर से कर लिये..हमने तीन शिकार - आदिक भारती

दो ही पल के दर्द में..हम हो गये निढाल
तू कैसे हँसता रहा..दुख में सालों-साल

जब विपदा की रैन में..छोड़ गये सब साथ
मुझको सहलाते रहे..जाने किसके हाथ

चादर से बाहर हुए..जब से अपने पाँव
कंधों-कंधों धूप है..घुटनों-घुटनों छाँव

कवि बनकर हासिल हुए..यश दौलत सत्कार
एक तीर से कर लिये..हमने तीन शिकार

दो ग़ज़लें - वीनस केसरी

उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना ।
झूठ को लेकिन लगे है अब भी ख़ंजर आइना ।।

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है।
पत्थरों के शह्र में घूमा था दिन भर आइना ।।

ग़मज़दा हैं, ख़ौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ।