साँस जब घर बदल रही होगी - नवीन

जॉन एलिया साहब की ज़मीन “जी ही जी में वो जल रही होगी” पर एक कोशिश


जब हवा रुख़ बदल रही होगी
अब्र की जान जल रही होगी



ख़ुश्बुएँ ऐसी तो न थीं पहले
हो न हो वो मचल रही होगी



भर गई थी जो मुझ-मुहब्बत से
जाने किस दिल में खल रही होगी



आँसुओं ने मुझे गला डाला
रूह उसकी भी गल रही होगी



आज हम इतना मुस्कुराये हैं
बेकली हाथ मल रही होगी



क्या तुम उस वक़्त मिलने आओगे
साँस जब घर बदल रही होगी



कुल अँधेरा है बस निगाहों तक
पेश्तर जोत जल रही होगी



इतनी बरसात वो भी बे-मौसम
जाने क्या शय पिघल रही होगी



ख़ुश न कर पायी जो किसी को 'नवीन'
वो हमारी ग़ज़ल रही होगी






:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून

फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

2122 1212 22

3 टिप्‍पणियां:

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