जनाब मीर तक़ी मीर साहब की ग़ज़ल ‘फ़क़ीराना आये सदा कर चले” की
ज़मीन को दुगुन करते हुये
कभी जंगलों को जला कर चले, कभी आशियाने गिरा कर चले
हवा से कहो है जो इतना गुमाँ, तो बारेमुहब्बत उठा कर चले
बारेमुहब्बत - मुहब्बत का बोझ
निभाता है इस से तो छूटे है वो, मनाता है इस को तो रूठे है वो
बशर की भी अपनी हदें हैं जनाब, कहाँ तक सभी से निभा कर चले
बशर-मनुष्य
ये जीवन है काँटों भरा इक सफ़र, हरिक मोड़ पर हैं अगर या मगर
वही क़ामयाबी का लेता है लुत्फ़, जो दामन को अपने बचा कर चले
अजल से यही एक दस्तूर है, जो कमज़ोर है वो ही मज़बूर है
उसे ये ज़माना डरायेगा क्या, जो आँखें क़ज़ा से मिला कर चले
अजल - आदिकाल, क़ज़ा - मौत
नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे मुतक़ारिब
मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
१२२ १२२ १२२ १२
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