सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
छंदों में स्वाभाविक और रचनात्मक रुझान जगाने के बाद मंच के सामने दूसरा लक्ष्य था छंदों में विशिष्टता के प्रति आकर्षण उत्पन्न करना| कठिन था, पर असंभव नहीं| घनाक्षरी छन्द ने इस अवसर को और भी आसान कर दिया| मंच ने तीन कवियों को टार्गेट किया, उन से व्यक्तिगत स्तर पर विशेष अनुरोध किया गया, और खुशी की बात है कि तीनों सरस्वती पुत्रों ने मंच को निराश नहीं किया|
पहले क्रम पर
धर्मेन्द्र भाई ने श्लेष वाले छन्द में जादू बिखेरा| दूसरे नंबर पर
शेखर ने गिरह बांधने के लिए 16 अक्षर वाली उस पंक्ति को ८ बार लिखा और अब अम्बरीष भाई ने भी अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत किया है| इस की चर्चा उस विशेष छन्द के साथ करेंगे|
घनाक्षरी छन्द पर आयोजित समस्या पूर्ति के इस ११ वें चक्र में आज हम पढ़ते हैं दो कवियों को| पहले पढ़ते हैं अम्बरीष भाई को| हम इन्हें पहले भी पढ़ चुके हैं| अम्बरीष भाई सीतापुर [उत्तर प्रदेश] में रहते हैं और टेक्नोलोजी के साथ साथ काव्य में भी विशेष रुचि रखते हैं||
गैरों से निबाहते हैं, अपनों को भूल-भूल,
दिल में जो प्यार भरा, कभी तो जताइये|
गैर से जो मान मिले, अपनों से मिले घाव,
छोटी-मोटी चोट लगे, सुधि बिसराइये|
पूजें संध्याकाल नित्य, ताका-झांकी जांय भूल,
घरवाली के समक्ष, माथा भी नवाइये|
फूट डाले घर-घर, गंदी देखो राजनीति,
राजनीति का आखाडा, घर न बनाइये||
[हाये हाये हाये, क्या बात कही है 'गैरों से निबाहते हैं'............ और साथ में
वो भी 'अपनों से मिले घाव', क्या करे भाई 'रघुकुल रीति सदा चल आई'
जैसी व्यथा है| जो समझे वही समझे]
और अब वो छन्द जो मंच के अनुरोध से जुड़ा हुआ है| यदि आप को याद हो तो '
फिल्मी गानों में अनुप्रास अलंकार' और '
नवरस ग़ज़ल' के जरिये हमने अंत्यानुप्रास अलंकार पर प्रकाश डालने का प्रयास किया था| पढे-सुने मुताबिक यह अलंकार चरणान्त के संदर्भ में है| परंतु आज के दौर में हमें यह शब्दांत और पदांत में अधिक प्रासंगिक लगता है| अंबरीष भाई से इसी के लिए पिछले हफ्ते अनुरोध किया गया था, और उन्होने हमारी प्रार्थना पर अमल भी किया है| मंच इस तरह के प्रयास आगे भी करने के लिए उद्यत है|
गोरी-गोरी देखो छोरी, लागे चंदा की चकोरी,
धन्यवाद सासू मोरी, तोहफा पठाया है|
पीछे-पीछे भागें गोरी, खेलन को तो से होरी,
माया-जाल देख ओ री, जग भरमाया है|
धक-धक दिल क्यों री, सूरत सुहानी तोरी,
दिल का भुलावा जो री, खुद को भुलाया है|
कंचन सी काया तोरी, काहे करे जोरा जोरी,
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है||
[गोरी, छोरी, चकोरी, मोरी, होरी, ओ री, तोरी, जो री और जोरा जोरी जैसे
शब्दों के साथ अंत्यानुप्रास अलंकार से अलंकृत किया गया यह छन्द
है ना अद्भुत छन्द!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
बाकी तारीफ करने की ज़िम्मेदारी आप लोगों की]
गोल-गोल ढोल जैसा, अँखियाँ नचावे गोल,
मूँछ हो या पूँछ मोहै, भाया सरदार है|
चाचा-चाची डेढ़ फुटी, मामा-मामी तीन फुटी,
सरकस लागे ऐसा भारी परिवार है|
पड़े जयमाल देखो, काँधे पे सवार बन्ना,
अकड़ी खड़ी जो बन्नी, बनी होशियार है|
जल्दी ले के सीढ़ी आओ, बन्ना साढ़े एक फुटी,
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||
[लो भाई घनाक्षरी में सरकस को ले आये अम्बरीष जी| सरकसी परिवार
वाली ये शादी तो बहुत जोरदार हुई होगी वाकई में]
इस चक्र के दूसरे, घनाक्षरी आयोजन के १४ वें और इस मंच के २९ वें कवि हैं वीनस केशरी| पंकज सुबीर जी के अनुसार ग़ज़ल के विशेष प्रेमी वीनस भाई इलाहाबाद की फिजा को रोशन कर रहे हैं, पुस्तकों से जुड़े हुए हैं - बतौर शौक़ और बतौर बिजनेस भी| शायर बनने का बोझ तो पहले से उठा ही रहे थे, अब इन्हें कवि होने की जिम्मेदारी भी निभानी है| वीनस का ये पहला पहला घनाक्षरी छन्द है, और माशाअल्लाह इस ने गज़ब किया है - यदि आप को यकीन न आये तो खुद पढ़ लें| वीनस में आप को भी अपना छोटा भाई दिखाई पड़ेगा - दिखाई पड़े - तो आप भी चुहल कर सकते हैं इस के साथ|
चाहे जब आईये जी, चाहे जब जाईये जी,
आपका ही घर है, ये, काहे को लजाइये|
मन मुखरित मेरा, अभिननदन करे,
मीत बन आईये औ, प्रीत गीत गाइये|
स. पा. सोहे साले जी को, सरहज ब. स. पा. ई,
रोज आ के बोलें - जीजा - रार निपटाइये|
घर से भगा न सकूं, उन्हें समझा न सकूं -
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||
[अरे वीनस भैया ये तो उत्तर भारत में बोले तो 'कहानी घर घर की' है| न जाने
बिचारे कितने सारे जीजाओं को साले और साले की बीबी यानि सरहजों
के बीच सुलह करवानी पड़ती होंगी| अभिनन्दन को बोलते समय
अभिननदन करने की रियायतें लेते रहे हैं पुराने कवि भी|
गिरह बांधने का इनका तरीका भी विशिष्ट लगा]
कवियों ने अपनी कल्पनाओं के घोड़ों को क्या खूब दौड़ाया है भाई!!!! भाई मयंक अवस्थी जी ने सही कहा था कि "यह सभी विधाएँ [छन्द] किसी काल खण्ड विशेष में सुषुप्तावस्था में तो जा सकती हैं; परन्तु उपयुक्त संवाहक और प्रेरक मिलने पर इन्हें पुनर्जीवित होने में देर नहीं लगती""| ये सारी प्रतिभाएं कहीं गुम नहीं हो गयीं थीं - बस वो एक सही मौके की तलाश में थीं| मौका मिलते ही सब आ गए मैदान में और चौकों-छक्कों की झड़ी लगा दी|
अम्बरीष भाई और वीनस भाई के छंदों पर अपनी टिप्पणियों की वर्षा करना न भूलें, हम जल्द ही फिर से हाजिर होते हैं एक और पोस्ट के साथ| एक बार फिर से दोहराना होगा कि ये अग्रजों के बरसों से जारी अनवरत प्रयास ही थे / हैं जिनके बूते पर आज हम इस आयोजन का आनंद उठा रहे हैं| कुछ अग्रज अभी भी मंच से दूरी बनाए हुए हैं, पर हमें उम्मीद है और भाई उम्मीद पे ही तो दुनिया कायम है|
जय माँ शारदे!