व्यंग्य - साहित्य का रेंगता कीड़ा - मुकेश असीमित

  


चैम्बर में बैठा अपने पीछे की अभी तक खाली पडी अलमारी को देख रहा हूँ ,आलमारी में शीशे लगवा लिए ,बस इंतज़ार है तो कुछ दो चार पुरुस्कारों का जो भूले भटके से कोई मेरी झोली में भी डाल दे! 

देखोपुरस्कार की सब जगह पूछ है। बिना पुरुस्कृत लेखक समाज में तिरस्कृत सा डोलता है। पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशक भी उन्ही लेखकों की रचनाएं छापना चाहते हैंजो किसी से पुरस्कार प्राप्त किये हो। पुरस्कार बिलकुल लेखक की वैधता बढ़ा देता हैजैसी शादीशुदा आदमी को इज्जत मिलती है वैसी ही पुरुस्कृत लेखक को । कुंवारों को कोई मकान देने को तैयार होता हैवैसे ही बिना पुरस्कृत हुए लेखक को कोई प्रकाशन स्थान नहीं देता। उसे लफंगा और तिरस्कृत समझते हैं। भाईलेखन उसका कचरा माना जाता है।

वैसे मुझे एक बात खुराफात की तरह दिमाग में कचोटती है ,पुरूस्कार शब्द में भी लिंग भेद की बू आती है नक्या सिर्फ पुरुषों का ही अधिकार है पुरूस्कार परमहिलाओं का नहीं ,इनका नाम महिलाकार भी हो सकता था ,खैर ये मुद्दा शायद मेरे इस लेख के बाद महिला जगत में थोड़ा मुद्दा लायक समझा जाए !

 

मेरे पड़ोस के शर्मा जी हैंवैसे ही जैसे हर किसी के पड़ोसी होते हैं ,पडोसीपन के सारे गुण,इर्ष्या ,जलन,तिरस्कार के भाव से मुझे भावमय करते रहते हैं ! शर्मा जी को जब से पता लगा है कि मैं लेखक बन गया हूँमेरे पीछे ही पड़े रहते हैं, "अरे कोई पुरस्कार मिला या नहीं?" वो हमारे साले साहब भी लिखते हैंबहुत बढ़िया लिखते हैं। उनकी रचनाएं तो हर रोज़ किसी न किसी पत्रिका में छपती रहती हैं। पुरस्कारों से अलमारी भरी पड़ी है। साहित्य सम्मेलनों में जाते रहते हैंजाने-माने साहित्यकारों के साथ उठना-बैठना है उनका।“

 

उनकी बातों के तले मेरी लेखनी की अकड़ दबी जा रही थी। सोच रहा थाकिस मुहूर्त में यह लेखन का शौक पाला। शर्मा जी ने कहा, "एक बार चाहो तो उनसे मिलवा दूँशायद तुम्हें कोई मार्गदर्शन मिले।" मैंने कहा, "अच्छावो क्या लिखते हैं?" बोले, "यह तो मुझे नहीं पताकभी पढ़ा नहीं है। उनका फोटो देखकर पहचान लेता हूँ कि हाँलिखा है कुछ। फोटो बड़े छपते हैं उनकेसाहित्य सम्मेलनों में पुरस्कार लेते हुए,पुस्तकों की समीक्षा करते हुए,चिंतन करते हुए। जो भी फोटो सोशल मीडिया पर डालते हैं मुझे जरूर टैग करते हैं। तब पता लगता है कि महीने में दस दिन तो उनको किसी न किसी साहित्यिक चर्चा गोष्ठी में पुरस्कार लेते हुए ही देखता हूँ। तीन-चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैंनाम तो मुझे पता नहीं। भेजी थी मेरे पास भीपढ़ नहीं पाया श्रीमती जी से इस बात पर झगड़ा भी हो गया। बोलींसुबह-सुबह अखबार चाटते रहते होइससे बढ़िया तो भैया की किताबें पढ़ लिया करोथोड़ा साहित्य में भी रुचि दिखाओ। मैं आपको भेजवा देता हूँशायद तुम्हारे समझ में आएहिंदी में हैं। वो इतनी शुद्ध हिंदी मुझे समझ में नहीं आती।“

 

मैंने मन ही मन सोचाहिंदी की साहित्यिक भाषा तो मुझे भी नहीं आती। कई बार आत्मग्लानि होती हैजिंदगी भर तो हिंदी भाषा के पुराने चावलों में अंगरेजीउर्दूफारसी की शब्जियाँ डालकर खिचड़ी भाषा बोली हैऔर अब मैं हिंदी का रचनाकार कहलाऊँ। शायद मुझे खुद को ही आत्मविश्वास नहीं। सच पूछो तो इसलिए आज तक किसी बड़े साहित्यकार से बात करने की हिम्मत नहीं हुई। कहीं बात करने में कुछ शब्द अंग्रेजी के निकल गए तो मेरे अन्दर बैठे रचनाकार की तो फुस्स हो जाएगी। खैरअब उन्होंने कहा तो सोचामिल लिया जाए। शर्मा जी हैं साथ मेंतो शायद थोड़ी कम बेइज्जती महसूस होगी।

उन्हीं के घर में मिलने का कार्यक्रम तय हुआ । समय पर पहुँच गए। बिल्कुल जैसे एक साहित्यकार की मूर्ति हमें साहित्य चर्चाओं के सेमिनार में मंच पर विराजित मिलती हैयहाँ भी उसी मुद्रा में बैठे थे। धीर-गंभीर चिंतन मुद्रा !चिंतन में आदमी बड़ा बुद्धिजीवी लगता है। उनके चिंतन की आभा चारों ओर फैली हुई थी। बगल में शर्मा जी का कुत्ता भी इस आभा से चकित उनको देखकर अपनी जीभ बाहर निकालकर लार छोड़ रहा था। चरण दोनों जमीन पर रखे हुए थे और मुझ जैसे साहित्य के कीड़े का इंतजार कर रहे थे कि रेंगते हुए उनके चरणों में लेट जाऊं। अभी नया नया लेखक बना हूँशिष्टाचार घुसने में समय लगेगा। लिखना ही सब कुछ नहींपुरस्कार भी चाहिएसम्मान भी चाहिए। आगे-पीछे कुछ विशेषण भी चाहिएविख्यात,विश्वविख्यात,साहित्य्श्रेष्ठ,साहित्य बिभूति आदि तभी तो साहित्यकार कहलाऊंगा। वैसे भी जो मैं लिखता हूँउसे कोई कैसे साहित्य की किसी विधा में फिट करेगा । लोग हँसेंगे। आम बोलचाल की भाषा ऐसे कोई लिखा जाता हैकुछ अलंकारकुछ अभिधाव्यंजनाअभिव्यक्तिगहरे अर्थ लिए हुए संवाद, जिनको पढ़कर लोग पाताल तक उसका अर्थ ढूँढने लगेंतो भी न मिले। बहुत कुछजैसे सुकरात का "मैं कौन हूँ"और शेक्सपियर का "नाम में क्या रखा है"। ऐसे कोई शगूफा छोड़ जाऊँये मेरे बस की बात नहीं।

 

खैरउन्होंने बैठने का इशारा किया। वो थोड़ी देर मुझे देखकर मेरी साहित्यिक गहराई का अनुमान लेने लगे। पूछा, "कितनी किताबें पब्लिश हुई?" मैंने कहा, "एक भी नहीं।" कहीं कोई सम्मान मिलापुरस्कारकिसी मंच में शामिल हुएमैंने कहा, "नहीं।" वो हँसे, "हाँलिखने का शौक और कोई गुरु नहीं बनाया। ‘बिन गुरु साहित्य सागर न तरही पारा ‘ऐसे क्या करोगेकोई नहीं पढ़ेगा। थोड़े दिन बाद अपना लिखा ही आपकी श्रीमती जी रद्दी वाले को बेचती नजर आएंगी।" खुद को वो गुरु के रूप में ऑफर कर रहे थे शायद। "मेरी किताबें पढ़ी?" मैंने कहा, "नहींपढ़ने का समय नहीं मिलता। बसजब भी समय मिलता हैलिखता रहता हूँ।"

 

मैंने कहा, "आप देखोगे मेरी कुछ व्यंग्य रचनाएँ?" उन्होंने बेमन से मेरे पकड़ाए पन्नों को टेबल पर पटका। एक पन्ना उठायातिरछी नजर से देखातुरंत उछल पड़े, "ये क्या, 'तरणताल में 'की जगह 'कर दिया। ऐसी अशुद्ध हिंदीकहे के लेखक?" मैं अंदर से काँप गया। हिंदी का इतना बड़ा अपमान मैं कर रहा था और हिंदी का रचनाकार बना फिरता हूँ । फिर भी एक अपराधी की तरह अंतिम दलील देते हुए सफाई में बोला, "सर जीअभी सीख रहा हूँ। सर जी की शुद्ध हिंदी..." श्रीमान बोला नहीं जा रहा था शायद उन्हें ज्यादा औपचारिक लगे ! लेकिन मेरी बात अधूरी ही रह गई। उन्होंने बैठने का इशारा किया। वो थोड़ा शांत हो चुके थेलेकिन उनकी साहित्यिक किले की सेंधमारी और वो भी मुझ जैसे तुच्छ से लेखक के कीड़े द्वारा बर्दाश्त नहीं हो रही थी। शायद इससे पहले कि मुझे धक्के मारकर निकाला जातामैं वहाँ से खिसक लिया। शर्मा जी का कुत्ता भी आज मूड में था। साहित्य शिरोमणि चुप थेलेकिन शायद उनके मन की बात कुत्ता अभी भी भौंककर मुझे सुना रहा था।!

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