ग़ज़ल - लगता है जी रहे हैं जैसे किसी क़फ़स में - देवमणि पाण्डेय


लगता है जी रहे हैं जैसे  किसी क़फ़स में 

इक पल भी जिंदगी का अपने नहीं है बस में

 

परवाज़ कैसे  देगा ख्वा़बों को अपने इंसां

जब टूटती नहीं हैं उससे रिवाज़-ओ-रस्में

 

सब कुछ तो मिल गया है फिर भी सुकूं नहीं है

क्या ची़ज खो गई है पाने की इस हवस में

 

इस ज़िंदगी से आगे क्या और जि़दंगी है

उलझी हुई है दुनिया सदियों से इस बहस में

 

रिश्तों से धीरे-धीरे उठने लगा भरोसा

क्यूँ लोग हर क़दम पर खाते हैं झूठी क़समें

 

मुझसे  बिछ्ड़ के उसको रहती है फ़िक्र मेरी

ख़ूबी है कुछ तो आखि़र उस मेरे हमनफ़स में

 

पिछले बरस न पूछो क्या हाल था हमारा 

कीजे दुआ कि आँखें नम न हों इस बरस में

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