"बुढ़ऊ कमरा छेके बैइठे हैं "
बेटे -बहुरिया के ये
संस्कारी
आत्म -सम्वाद दिन में पचास
बार
सुनने और पोते -पोतियों को
"मेरा कमरा " के
नाम पर
लड़ने-झगड़ने के बाल सुलभ
आशावादी, स्वप्निल वार्तालाप को
सुन दद्दा की ऐंठी गर्दन
तकिये पर थोड़ी और सख़्त
हो जाती है ...
कमरे की बदबू थोड़ी और
गहरी हो जाती है
दवाइयों का स्वाद किसी किसी
रोज़
ज्यादा कड़वा लगता है
दाल के पानी में घोटायी गयी
रोटी
गले में अटकी रह जाती है
फोन पर होने वाली बातें
बरछी सी सीने में चुभती हैं
पर जहाँ लहू न टपके वो ज़ख़्म
ज़ख़्म कहाँ कहलाता है ...
पेंशन की रकम बैसाखी तो है
पर लुंज-पुंज शरीर की ताकत
नहीं
बैंक में रखे पैसे सिर्फ़ एक
दस्तख़त और
मृत्यु प्रमाणपत्र का इंतजार
करते
"ता ता थैया "
करते मुँह बिराते हैं
रिश्ते-नाते गाहे-बगाहे जब
सहानुभूति दिखाते हैं
लगता है जीते-जी मृत्यु के
बाद का शांति पाठ
सस्वर सामने बैठ गाते हैं...
फ्रेम में कैद पत्नी की
तस्वीर
अंगूठा दिखाती मंद मंद
मुस्काती है
लगता है "सुनते हैं"
की आवाज़ लगाती है
"अब आ भी जाओ" की
गुहार मीठे स्वर में
लजाते हुए बार-बार दोहराती
है...
कभी -कभार दफ़्तर से आधी
छुट्टी ले
घर पर बिना बताये, झूठे बहाने
गढ़ने का अभिनय कर
सिरहाने बैठ बेटी जब
माथा सहलाती आँसू बहाती है
लगता है मुझको ऐसा, दिखता भी मुझको ऐसा
मेरे पैताने बैठ हाथ जोड़
जैसे गिड़गिड़ाती है
"दद्दा अब तुम मर क्यों
नहीं जाते दद्दा ?"
धन्यवाद साहित्यम
जवाब देंहटाएंसन्ध्या जी की इस कविता के रूप में आप ने एक कड़वे यथार्थ के यथार्थ दर्शन करवाये !--ऐसी मर्मस्पर्शी रचना पढ़वाने के लिए आप को धन्यवाद और सन्ध्या जी को शुभकामनाएं कि रचती जाइये ऐसी ह्रदयस्पर्शी ,सच्ची रचनाएं -
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल हकीकत बयान किया है।
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