ग़ज़ल - सानेहा जिस्म बेबसी हासिल - नवीन जोशी नवा

 

सानेहा जिस्म बेबसी हासिल

ज़िंदगी शोर ख़ामुशी हासिल

  

एक सहरा से एक दरिया तक

हर मसाफ़त का तिश्नगी हासिल

 

गुफ़्तुगू वो तवील थी जिस का

बात इक अन-कही बनी हासिल

 

बंदगी हो कि इश्क़ दोनों का

इक ख़ुदा और बे-ख़ुदी हासिल

 

अक्स हासिल नहीं है शीशे का

न ही चेहरे का चेहरगी हासिल

 

वक़्त से जीतने की कोशिश में

इक कलाई को बस घड़ी हासिल

 

कभी आग़ाज़ कोई बनता है

कभी अंजाम तो कभी हासिल

 

दश्त-ए-बीनाई में इन आँखों का

आख़िरश बस रही नमी हासिल

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