सानेहा जिस्म बेबसी हासिल
ज़िंदगी शोर ख़ामुशी हासिल
एक सहरा से एक दरिया तक
हर मसाफ़त का तिश्नगी हासिल
गुफ़्तुगू वो तवील थी जिस का
बात इक अन-कही बनी हासिल
बंदगी हो कि इश्क़ दोनों का
इक ख़ुदा और बे-ख़ुदी हासिल
अक्स हासिल नहीं है शीशे का
न ही चेहरे का चेहरगी हासिल
वक़्त से जीतने की कोशिश में
इक कलाई को बस घड़ी हासिल
कभी आग़ाज़ कोई बनता है
कभी अंजाम तो कभी हासिल
दश्त-ए-बीनाई में इन आँखों का
आख़िरश बस रही नमी हासिल
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