दोहे - के पी अनमोल

 


ज्यूँ सहरा में रेत है,  पानी में है मीन। 

तेरे मन में मैं रहूँ,  कह भी दे आमीन।।

 

करता रहता है सदा,  मन तेरा ही जाप।

कान लगाकर सुन कभी,  साँसों की पदचाप।।

 

अपना ले या फूँक दे,  ओ रे मेरे पीर!

अब तेरे ही नाम है,  इस दिल की जागीर।।

 

उस पल में कैसा अजब,  जादू था मनमीत।

जिसमें मैं संगीत था,  तू प्यारा-सा गीत।।

 

भाव हज़ारों हैं मगरशब्द नहीं हैं चार।।

दिल से दिल की बात काकैसे हो इज़हार। 


तितली जी ने आज फिरचूम लिया है फूल।

यानी शर्तें प्यार कीफिर से हुई क़ुबूल।।

 

जब गिरती है पेड़ परचमकीली-सी धूप।

खिल-खिल उठता है तभीहर पत्ती का रूप।।


यार ख़ुदा के वास्तेयह भी कर इक रोज़। 

बेटे की सब ख़ूबियाँबेटी में भी खोज।।

 

कितने बौने हो गयेकायनात के हाथ।

माँबीवीबेटीबहनखड़ी हुईं जब साथ।।


बारिश बारिश ही नहींहै कुदरत का प्यार। 

सावन में तुम देखनापेड़ों का आकार।।

 

रखवालों की सोच मेंआयी जबसे खोट।

तबसे पर्वत झेलतेरोज़ नए विस्फोट।।

 

गाएँ छाया खोजतींपंछी ढूँढे नीड़।

हम अपने में मस्त हैंकब समझेंगे पीड़।।

 

सोच रहा हूँ देखकरमैं नदियों का हाल।

क्या भीतर से हम सभीइतने हैं कंगाल।।


बेटे ने दहलीज़ केबाहर रक्खे पाँव।  

सूना-सूना हो गयामाँ के मन का गाँव।।


भीतर भी इक जंग हैंबाहर भी है जंग। 

और नहीं आते मुझेलड़ने वाले ढंग।।


दो हिस्सों में बँट गयाजब-जब इक परिवार। 

तब धरती की देह कोबोझ लगी दीवार।।

 

नदियाजंगलरास्तेपर्वतसागरझील।

चलता जाता है सफ़रबनती जाती रील।।

 

बातों-बातों में मुझेकहकर भाईजान।

गरज पड़ी तो कर गयारिश्ते का सम्मान।।


बच्चे को जब लग गयी,  दुनिया की कुछ आँच। 

चुटकी में करने लगा,  दो और दो को पाँच।।

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