ग़ज़ल - मैं देखता रहा फूलों के हुस्ने-फ़ानी को - दिनेश नायडू

 


मैं देखता रहा फूलों के हुस्ने-फ़ानी को 

मेरी नज़र नहीं लग जाए इस जवानी को

 

हमारी दीदा-ए-तर का कोई क़ुसूर नहीं

लहू का नाम दिया जा रहा है पानी को

 

मिटा दिया मेरा किरदार ज़िन्दगी तू ने

उरूज मिल गया आख़िर मेरी कहानी को

 

धुआँ अलाव का ऐ काश घोंट दे मेरा दम

जला रहा हूँ तेरी आख़िरी निशानी को

 

तेरा ख़याल मेरी शायरी पे हावी है

कहाँ से ढूँढ के लाऊँ मैं तेरे सानी को

 

नदी ने खींच दी सरहद मेरी बसारत की

उफ़ुक़ ने बाँध दिया मेरी बे-करानी को

 

कोई भी हुस्न नहीं है तेरी ग़ज़ल में 'दिनेश'

कोई तो रंग नया देता नौहा-ख़्वानी को


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