ग़ज़ल - जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया - नवीन जोशी 'नवा'


 

जहाँ पे कानों ने सुनने का फ़न उतार दिया

वहाँ हमारी ज़बाँ ने सुख़न उतार दिया

 

न जाने अब के ये कैसी बहार आई है

गुलों के जिस्मों से जिस ने चमन उतार दिया

 

उसी ने हम से छुपाई थी अपनी 'उर्यानी

वो जिस के वास्ते हम ने बदन उतार दिया

 

लिबास-ए-‘इश्क़ पहनने की ऐसी क्या ज़िद थी

जो दोस्ती का हसीं पैरहन उतार दिया

 

बिना बताए हमें इक ख़याल ने पहना

बिना लिहाज़ किए दफ़'अतन उतार दिया

 

हमें भी सर पे चढ़ाया था फ़ितरतन सब ने

हमें भी सब की तरह 'आदतन उतार दिया

 

हर एक लाश हमें बे-कफ़न नज़र आई

हमारी लाश से हम ने कफ़न उतार दिया


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