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हिंदी गजल के प्रति आस्था का उद्घोष हैं 'धानी चुनर' की हिन्दी गजलें - देवमणि पाण्डेय



नवीन चतुर्वेदी के नए गजल संग्रह का नाम है धानी चुनर। इससे पहले ब्रज गजलों के उनके दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह में 87 रसीली एवं व्यंजनात्मक हिंदी गजलें शामिल हैं। संग्रह की पहली गजल में उन्होंने हिंदी गजल के प्रति अपनी आस्था का उद्घोष किया है- 


ओढ़कर धानी चुनर हिंदी गजल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी गजल
देवभाषा की सलोनी संगिनी
मूल स्वर में है प्रवर हिंदी गजल
 
हिंदी भाषा के पास संस्कृत की परंपरा से प्राप्त विपुल शब्द संपदा है। नवीन जी ने इस शब्द संपदा का सराहनीय उपयोग किया है। ऐसे बहुत से शब्द हैं जो हमारी बोलचाल से बाहर होकर हमारी स्मृति या शब्दकोश तक सीमित हो गए हैं। नवीन जी ने इनको गजलों में पिरो कर संरक्षित करने का नेक काम किया है। तदोपरांत और अंततोगत्वा ऐसे ही शब्द हैं। गजल में इनकी शोभा देखिए-
 
हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था
तदोपरांत विषय पर विचार करना था
 
अंततोगत्वा दशानन हारता है राम से
शांतिहंता शांति दूतों को हरा सकते नहीं
 
फ़िराक़ गोरखपुरी ने एक बातचीत में कहा था कि हिंदुस्तान में ग़ज़ल को आए हुए अरसा हो गया। अब तक उसमें यहां की नदियां, पर्वत, लोक जीवन, राम और कृष्ण क्यों शामिल नहीं हैं? कवि नवीन चतुर्वेदी ने अपने हिंदी गजल संग्रह 'धानी चुनर' में फ़िराक़ साहब के मशवरे पर भरपूर अमल किया है। उनकी हिंदी गजलों में हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ हमारे पौराणिक चरित्र राम सीता, कृष्ण राधा, शिव पार्वती आदि अपने मूल स्वभाव के साथ शामिल हैं। हमारी आस्था के केंद्र में रहने वाले ये पात्र अपनी विशेषताओं के साथ बार-बार नवीन जी की हिन्दी गजलों में आते हैं और हमारी सोच एवं सरोकार का हिस्सा बन जाते हैं-
 
अगर अमृत गटकना हो तो कतराते हैं माहेश्वर
मगर विषपान करना हो तो आ जाते हैं माहेश्वर
 
निरंतर सद्गुणों का उन्नयन करते हुए रघुवर
यती बनकर जिए पल पल जतन करते हुए रघुवर
 
किसी भी रचनाकार का एक दायित्व यह भी होता है कि वह समाज के कुछ विशिष्ट मुद्दों को रेखांकित करे ताकि दूसरों के मन में भी सकारात्मक सोच का उदय हो। इसी सामाजिक सरोकार के तहत नवीन चतुर्वेदी ने कई गजलों में स्त्री अस्मिता को रेखांकित करने की अच्छी कोशिश की है-
 
हे शुभांगी कोमलांगों का प्रदर्शन मत करो
ये ही सब करना है तो संस्कार वाचन मत करो
सृष्टि के आरंभ से ही तुम सहज स्वाधीन थीं
क्यों हुई परवश विचारो, मात्र रोदन मत करो
 
सामाजिक सरोकार के इसी क्रम में नवीन जी ने पुरुषों की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है-
 
व्यर्थ साधो बन रहे हो, कामना तो कर चुके हो
उर्वशी से प्रेम की तुम, याचना तो कर चुके हो
 
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था
 
इन गजलों में नयापन है, ताज़गी है और कथ्य की विशिष्टता है। ये गजलें उस मोड़ का पता देती हैं जहां से हिंदी गजल का एक नया कारवां शुरू होगा-
 
दुखों की दिव्यता प्रत्येक मस्तक पर सुशोभित है
समस्या को सदा संवेदना की दृष्टि से देखें
 
वो जो दो पंक्तियों के मध्य का विवरण न पढ़ पाए
उसे पाठक तो कह सकते हैं संपादक कहें कैसे
 
नवीन चतुर्वेदी की हिंदी गजलें प्रथम दृष्टि में शास्त्रीय संगीत की तरह दुरूह लगती हैं। मगर जब आप इन के समीप जाते हैं, इन्हें महसूस करते हैं तो इनमें निहित विचारों और भावनाओं की ख़ुशबू से आपका मन महकने लगता है। ये कहना उचित होगा कि नवीन चतुर्वेदी की हिंदी गजलें किसी संत के सरस प्रवचन की तरह हैं जो हमारे अंतस को आलोकित करती हैं और मन को भी आह्लादित करती हैं। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए मैं नवीन सी. चतुर्वेदी को बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
 
इस किताब के प्रकाशक हैं आर. के. पब्लिकेशन मुंबई। उनका संपर्क नंबर है- 90225-21190, 98212-51190
 
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126

हिन्दी उर्दू भाषाएँ व लिपियाँ - नवीन

"फ़ारसी लिपि (नस्तालीक़) सीखो नहीं तो हम आप की ग़ज़लों को मान्यता नहीं देंगे" टाइप जुमलों के बीच मैं अक्सर सोचता हूँ क्या कभी किसी जापानी विद्वान ने कहा है कि "हाइकु लिखने हैं तो पहले जापनी भाषा व उस की 'कांजी व काना' लिपियों को भी सीखना अनिवार्य है"। क्या कभी किसी अंगरेज ने बोला है कि लैटिन-रोमन सीखे बग़ैर सोनेट नहीं लिखने चाहिये।

मेरा स्पष्ट मानना है कि:-

कोई भी रस्म-उल-ख़त* वह ज़मीन है जिस पर।
ज़ुबानें पानी की मानिन्द रक़्स करती हैं॥
*लिपियाँ

उर्दू अगर फ़ारस से आयी होती तब तो फ़ारसी लिपि की वकालत समझ में आती मगर यह तो सरज़मीने-हिन्दुस्तान की ज़ुबान है भाई। इस का मूल स्वरूप तो देवनागरी लिपि ही होनी चाहिये - ऐसा मुझे भी  लगता है। हम लोगों ने रेल, रोड, टेम्परेचर, फ़ीवर, प्लेट, ग्लास, लिफ़्ट, डिनर, लंच, ब्रेकफ़ास्ट, सैलरी, लोन, डोनेशन जैसे सैंकड़ों अँगरेजी शब्दों को न सिर्फ़ अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का स-हर्ष हिस्सा बना लिया है बल्कि इन को देवनागरी लिपि ही में लिखते भी हैं। इसी तरह अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों को देवनागरी में क्यों नहीं लिखा जा सकता। उर्दू के तथाकथित हिमायतियों को याद रखना चाहिये कि देवनागरी लिपि उर्दू ज़ुबान के लिये संजीवनी समान है।

कुदरत का कानून तो यह ही कहता है साहब।
चिपका-चिपका रहता हो वह फैल नहीं सकता॥
मज़हब और सियासत से भाषाएँ मुक्त करो।
चुम्बक से जो चिपका हो वह फैल नहीं सकता॥

आय लव टु राइट एण्ड रीड उर्दू इन देवनागरी लिपि - यह आज की हिंगलिश है जिसे धड़ल्ले से बोला जा रहा है - लिहाज़ा लिख कर भी देख लिया।

अगर उच्चारण के आधार पर कोई बहस करना चाहे तो उसे पचास-साठ-सत्तर यानि अब से दो-तीन पीढियों पहले के दशकों की फ़िल्मों में शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिन्दी और ख़ालिस पर्सियन असर वाली उर्दू के मज़ाहिया इस्तेमालों पर एक बार नज़रे-सानी कर लेना चाहिये। कैसा-कैसा माख़ौल उड़ाया गया है जिस पर आज भी हम जैसे भाषा प्रेमी भी अपनी हँसी रोक नहीं पाते।

बिना घुमाये-फिराये सीधी -सीधी दो टूक बात यही है कि उर्दू विभिन्न विभाजनों के पहले वाले संयुक्त  हिन्दुस्तान की ज़ुबान है जिस की मूल लिपि देवनागरी को ही होना चाहिये - ऐसा मुझे भी लगता है। जैसे हम लोग चायनीज़, जर्मनी आदि स्वेच्छा से सीखते हैं उसी तरह फ़ारसी लिपि को सीखना भी  स्वेच्छिक होना चाहिये - बन्धनकारक कदापि नहीं।

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अपनी वही ज़ुबान, जो कि हो हिन्दुस्तानी





अङ्ग्रेज़ी में दागते, हिन्दी के गुणगान
उदघोषक हैं टॉप के, ऊँची उन की शा
ऊँची उन की शान, ज्ञान की खान लुटाते
करें प्रज्वलित दीप, और फिर 'पैग' चढाते
देखा जब यह खेल, हो गए हम भी crazy
हिन्दी वाली 'आय' और खर्चे 'अङ्ग्रेज़ी

हिन्दी, हिन्दी, हिन्दवी, गूँजे चारों ओर 
हिन्दी-हिन्दुस्तान का, दुनिया भर में शोर
दुनिया भर में शोर, होड़ सी मची हुई है
पहले पहुँचे कौन, शर्त सी लगी हुई है
करो नहीं तुम भूल, समझ कर इस को चिन्दी
गूगल, माय्क्रोसोफ्ट, आज सिखलाते हिन्दी

हिन्दी में ही देखिये, अपने सारे ख़्वाब
हिन्दी में ही सोचियेकरिये सभी हिसाब
करिये सभी हिसाब, ताब है किस की प्यारे
ऐसा करते देख, आप को जो दुत्कारे
एप्लीकेशन-फॉर्म, भले न भरें हिन्दी में
पर अवश्य परिहास-विलाप करें हिन्दी में

हिन्दी भाषा से अगर, सचमुच में हो प्रेम
तो फिर मेरे साथ में, अभी लीजिये नै'म
अभी लीजिये नै'म, सभी मुमकिन हिस्सों में
हिन्दी इस्तेमाल - करें सौदों-क़िस्सों में
छोटी सी बस मित्र यही अपनी अभिलाषा
दुनिया में सिरमौर बने यह  हिन्दी भाषा

हिन्दुस्तानी बोलियों, को दे कर सम्मान
अङ्ग्रेज़ी को भी मिले, कहीं-कहीं पर स्थान
कहीं-कहीं पर स्थान, तभी भाषा फैलेगी
पब्लिक ने इन्ट्रेस्ट लिया, तब ही पनपेगी
भरी सभा के मध्य, बात कहते ऐलानी
अपनी वही ज़ुबान, जो कि है हिन्दुस्तानी



[हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में]