!!सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन!!
यत्र-तत्र विचरण करते जलधरों [बादलों] को एक दूसरे के समीप ला कर, अपने गुण-धर्म का सदुपयोग करते हुये उन बादलों में घर्षण उत्पन्न कर के जन-जीवन के लिए मूसलाधार बरसात उपलब्ध करवाती है पवन। इस ब्लॉग का भी यही प्रयास रहा है कि तमाम विद्वानों / विदुषियों को एक बिन्दु पर एकत्र कर के उन के अगाध परिश्रम के द्वारा अर्जित ज्ञान व अनुभव को आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ उपलब्ध करवाना। वर्तमान श्रंखला वक्रोक्ति-विरोधाभास पर चर्चा ज़ारी रखे हुये है, मुखर होते स्वरों की पहिचान पर बतिया रही है; ऐसे में मंच कुछ और दोहों को ले कर सफ़र को आगे बढ़ाने का यत्न करता है। आज की पोस्ट में हम पढ़ते हैं मुंबई निवासी वरिष्ठ साहित्यसेवी आदरणीय श्री म. न. नरहरि [नरहरि अमरोहवी] जी के दोहे:-
ठेस;
मूरख मैं साबित हुआ, फक्कड़ मिला ख़िताब
उम्मीद:
घिरते बादल शाम से, काले - लाल- सफ़ेद
शायद अब हो जायगा, आसमान में छेद
सौन्दर्य:
उबटन घोला शाम ने, ख़ूब नहायी रैन
नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन
आश्चर्य:
फेर दिनों का देखिये, बदल गई तक़दीर
हुआ अचम्भा जान कर, राजा बना फ़क़ीर
व्यंग्य:
जंगल में हाँका लगा, घाट लिये सब घेर
हाथी सब बागी हुये, कुचले गये बटेर
सीख:
दुआ करो सब के लिये, बहुत सरल है काम
सूरज घर-घर झाँकता, क्या धोबी क्या राम
इस दौरान फोन पर होने वाली बातचीत में भी कुछ अच्छी टिप्पणियाँ मिली हैं। भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जन ने कहा कि दोहे में सिर्फ़ 'ठेस' शब्द जोड़ देने से ही वो ठेस का दोहा नहीं बन जाता, अपितु उस में पीड़ा / दर्द / टीस / तकलीफ / चोट / घाव वगैरह का भाव स्पष्ट बोलता हुआ दिखना भी चाहिये। दुरुस्त फ़रमाया धर्मेन्द्र भाई, पीड़ा-भाव अभिव्यक्त हुए बिना ठेस [टीस-चोट वगैरह] का अच्छा दोहा नहीं लिखा जा सकता। नरहरि जी के पहले दोहे में 'घाटा सब मैंने भरा' ये उक्ति न केवल सब कुछ कह देती है, बल्कि 'आह' वाला भाव भी उत्पन्न करती है।
योगराज प्रभाकर जी ने कहा कि दोहा छंद कमोबेश एक ब्रीचिंग छंद बनता जा रहा है, जिसे देखो 'टीचरी' में ही अधिक रस ले रहा है। कोमल अनुभूतियाँ गौण होती जा रही है। सहमत हैं आ. योगराज जी! इसीलिए तो मंच ने आगे बढ़ कर हृदयानुभूत कोमल भावों से सुसज्जित शब्द-चित्रों हेतु अभियान चलाने का प्रयास किया है। इस पोस्ट के दूसरे दोहे में प्रयुक्त 'शायद अब हो जायेगा'...... शब्द समूह उम्मीद / आशा / विश का सीधा सीधा प्रतिनिधित्व करता है।
सौन्दर्य के दोहे में आदरणीय नरहरि जी ने प्राकृतिक सौंदर्य की चर्चा छेड़ते हुए हल्की सी चुटकी भी ले ली है। सौंदर्य तो सौन्दर्य है वो नायक-नायिका का हो, प्रकृति का हो, किसी तत्व विशेष का हो या फिर किसी और विवेच्य वस्तु-स्थिति वगैरह का। बात हमें ख़ूबसूरती की करनी है तो हम छंदों की सुन्दरता पर भी बोल सकते हैं और किसी इमारत की ख़ूबसूरती पर भी क़सीदे काढ़ सकते हैं। हर स्थिति में भाव सौंदर्य का मुखर होना चाहिये। इस दोहे में सौन्दर्य के अलावा जो 'बूढ़ा पुल बेचैन' शब्द समूह आ रहा है, वो एकाधिक भावों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, कौन-कौन से? अब ये आप लोग कयास लगाने का प्रयास करने की कृपा करियेगा।
आश्चर्य वाले दोहे को 'अचम्भा' शब्द ने बल प्रदान किया है।
हाथी सब बागी हुये, कुचले गये बटेर....... शायद इस दोहे में इमरजेंसी टाइप दिनों की बात करने का प्रयास किया गया है। अच्छा दोहा है।
हमारे समाज के वरिष्ठ साहित्यसेवी की 'सब के लिये दुआ' वाली सीख बहुत अच्छी सीख है। जिस के लिये उन्हें कोटि-कोटि साधुवाद।
अधूरी बातों की चर्चा ज़ारी रखते हुये नरहरि जी के दोहों का आनन्द लीजिये तथा साथ ही इन दोहों पर अपनी राय भी ज़ाहिर कीजिये। नरहरि जी अपनी नातिन की सहायता लेते हुये आप के विचारों को जान कर [वातायन पर आप के कमेंट्स पढ़ चुके हैं वे] न सिर्फ़ प्रसन्न होते हैं, बल्कि आप सभी की साहित्यिक अभिरुचि से प्रभावित भी होते हैं।
श्याम जी, प्रतुल जी, मयंक भाई, धर्मेन्द्र भाई एवं वीरुभाई के साथ-साथ प्रति-एक सहभागी जिस तरह विचार-विमर्श को दायरा दे रहा है, उस के लिए मंच फिर से सहृदय आभार व्यक्त कर रहा है।
अब तो भाव-अनुभूतियों को और भी विस्तार दे दिया गया है, शंकाओं पर भी अच्छी-ख़ासी चर्चा हो चुकी है- तो रचनाधर्मियो! अपने-अपने दोहों को फायनल टच दे कर भेजने की कृपा करें। सात संकेतों में से अपनी रुचि के संकेतों पर दोहे लिख कर भेज सकते हैं, कोई ज़ुरूरी नहीं कि सातों के सातों संकेतों पर ही दोहे लिखे जायें। पिछली पोस्ट [शंका समाधान] पर टिप्पणी के ज़रिये हमने संकेतों पर अधिक खुलासा किया है तथा साथ ही प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया है कि वक्रोक्ति वाले संकेत के स्थान पर अब विरोधाभास रहेगा।
जय माँ शारदे!
बहुत ही खूब..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंहर दोहा अपने में सार्थक ... बहुत अच्छी शृंखला ...
जवाब देंहटाएंबड़े ही शानदार दोहे हैं। "नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन"। बहुत ही शानदार दोहा है। नरहरि जी को हार्दिक बधाई इन शानदार दोहों को रचने के लिए।
जवाब देंहटाएंउबटन घोल विभावरी ओस नहाये रैन ।
जवाब देंहटाएंसुबह श्वेत शोभा भरी श्याम सुन्दर नैन ।।
शरद श्वेत शोभाभरी विभाए श्याम नैन ।।
जवाब देंहटाएं--- सुन्दर दोहे हैं ..नरहरी जी को बधाई ..हाँ कहीं कहीं---प्रथम् -तृतीय पद में २१२ नहीं है... भाव अर्थ रूप से प्रत्येक दोहे पर टिप्पणी है....
जवाब देंहटाएं१.--'आपु ठगे सुख ऊपजे"...ठेस कहाँ लगती है ..
२.---बरसात बादलों से होती है आसमान के किसी छेद से नहीं ..
३."नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन"। ---
----यूँ तो कथित सौंदर्य? का दोहा है, सौदर्य की अपेक्षा सिर्फ उसके प्रभाव का कथ्य है....हाँ इसमें पुल को ठेस भी लग रही है ...
४- यह सार्वकालिक सत्य है..दिनों का फेर अतः किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ..
५- बहुत सटीक व्यंग्य है ...इंकमटेक्स आदि सभी सरकारी छापों आदि पर भी यह सटीक बैठता है ...
६.बहुत अच्छी सीख है ...दुआ करने में क्या जाता है...
वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बहुत सुंदर सार्थक दोहे,,,,,,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST: माँ,,,
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआज 14-10-12 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं.... आज की वार्ता में ... हमारे यहाँ सातवाँ कब आएगा ? इतना मजबूत सिलेण्डर लीक हुआ तो कैसे ? ..........ब्लॉग 4 वार्ता ... संगीता स्वरूप.
भाव विभोर कर गई काव्यधार में भिगो गई प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुंदर दोहे, सार्थक प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंइस समूहिक ब्लॉग में आए और हमसे जुड़ें :- काव्य का संसार
यहाँ भी आयें:- ओ कलम !!
आपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 17/10/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंकुछ नया सीखने का कोतुहल हमेशा रहता है जो आपका सहयोग से पूरा होता है.
जवाब देंहटाएंआभार.
नरहरि जी की रचना पढ़ी और कुछ समझी भी |
जवाब देंहटाएंआशा
'अलंकारों' पर कुछ कहना चाहता हूँ :
जवाब देंहटाएं— प्रायः काव्य के नव-अभ्यासी मानते हैं कि एक उक्ति में एक अलंकार आ गया तो बाक़ी अलंकारों की उपस्थिति उसमें नहीं होगी या नहीं हो सकती।
— जब एक उक्ति में एकाधिक अलंकार हों तब कौन से अलंकार को उसमें महत्वपूर्ण माना जाए?
— जब किसी उक्ति में शब्द और अर्थ दोनों प्रकार के अलंकार निहित हों तब उभय (मूलक) अलंकार तो होगा। लेकिन उसमें किसे अधिक महत्व दिया जाय यह सहृदय के ऊपर निर्भर है।
— स्त्री जब एक अलंकार (आभूषण) पहनती है तब वही उल्लेखनीय होता है। यथा हाथ की अंगूठी। वही स्त्री जब कई अलंकार (आभूषण) पहनती है तब उनमें उस आभूषण को महत्व मिलेगा जो प्रथम दृष्टि का भागी है। यथा गले का हार, कान के कुंडल, कलाई के कंगन, नाक और पैर के आभूषण ... सभी में गले के हार को महत्व दिया जा सकता है। इसी प्रकार अनुप्रास की उपस्थिति तो हर कहीं हो सकती है लेकिन लाट अनुप्रास, श्लिष्ट, यमक आदि की उपस्थिति दुर्लभ है। जहाँ भी उक्ति चमत्कार आयेगा वहाँ अर्थ अभिधा को छोड़कर लक्षणा या व्यंजना या तात्पर्य को गले लगाएगा। जब व्यंग्य उक्ति सामान्य हो तब वह वक्र उक्ति कही जायेगी लेकिन जब वह उलाहना, उपालंभ और कटाक्ष से हो तब वह व्यंग्योक्ति बनी रहेगी। मतलब ये कि हर व्यग्योक्ति वक्रोक्ति हो सकती है किन्तु हर वक्रोक्ति व्यंग्योक्ति हो यह जरूरी नहीं।
सभी दोहों का आनंद लिया ... नरहरि जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसभी दोहे शानदार .....बूढ़े पुल ने मन मोह लिया ....बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया दोहे....
जवाब देंहटाएंउबटन घोला शाम ने, ख़ूब नहायी रैन
नदी हुई नव-यौवना, बूढ़ा पुल बेचैन..
ये तो लाजवाब!!!!
सुन्दर श्रृन्खला...
सादर
अनु