अभिन्न नवीन जी!
वन्दे मातरम।
आपके इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु साधुवाद। आप और आप जैसे अपने अभिन्न मित्रों से अपनी सी बात पूरे अपनेपन से करना चाहता हूँ। जिन्हें न रुचे वे इसे भूल जाएँ यह उनके लिए नहीं है।
विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी:
आप बार-बार उपस्थिति का आग्रह कर रहे हैं और मैं आग्रह की रक्षा नहीं कर पा रहा क्योंकि जानता हूँ कि रचना में दोष इंगित करते ही दो मनोवृत्तियों से सामना करना होता है। एक वह जो काव्यशास्त्र के नियमों को सर्वोपरि मानकर शुद्धता की बात करती है, दूसरी वह जो नियमों की सुविधा या अधूरी जानकारी के आधार पर जाने-अनजाने अदेखी करने की अभ्यस्त है। अब तक जिसे सही मानती रही उसे अचानक गलत बताया जाना सहज ही नहीं पचा पाती। एक तीसरी मनोवृत्ति अपना पांडित्य प्रमाणित करने की जिद में नियमों को जानते हुए भी किसी न किसी प्रकार उसकी काट तर्क या कुतर्क से करती है और सही को न स्वीकारने की कसम खाए रहती है। यह भी होता है कि एक रचनाकार कभी एक, कभी दूसरी, कभी तीसरी मनोवृत्ति से प्रभावित होकर मत व्यक्त करता है। इस प्रक्रिया में स्पष्ट बात करनेवाला अंततः अनावश्यक कटुता का शिकार बनता है। अयाचित और पूर्वाग्रहित टिप्पणियों के कारण पूर्व में सहयोगी रहे कुछ रचनाकार अब तक जुड़ नहीं सके हैं। सारगर्भित विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी का सदा स्वागत है।
श्रेष्ठ प्रस्तुति:
रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएँ ही सामने आएं और अनावश्यक वाद-विवाद भी न हो इस हेतु बेहतर है कि दोषपूर्ण
रचना प्रस्तुत ही न हो। अनुष्ठान की योजना पर विचार के समय दिशा-निर्देश करते समय आपसे नम्र निवेदन किया था कि रचना मिलने पर रचनाकार को त्रुटियाँ इंगित कर व्यक्तिगत संपर्क कर वांछित संशोधन करा लिए जाएँ तभी प्रकाशन हो, जिन रचनाओं से दोष निवारण हेतु रचनाकार सहमत न हों उन्हें प्रकाशित न किया जाए। रचनाकार यदि उन्हें सामने लाना ही चाहे तो टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकेगा। इससे मूल आयोजन की गरिमा और स्तर बना रह सकेगा।
आपने एक सीमा तक अनुरोध की रक्षा की किन्तु जहाँ ऐसा न हो सका वहाँ चर्चा मूल विषय से भटक गयी। सभी पोस्टें पढ़कर भी मौन रहने का कारण मात्र यह है कि अलंकार संबंधी पुस्तक के लेखन हेतु समय देना है, अनावश्यक विवाद में समय नष्ट नहीं करना चाहता। आपसे हुई चर्चानुसार वक्रोक्ति-विरोधाभास प्रसंग में आवश्यक जानकारी उपलब्ध करने का प्रयास किया था। संभवतः इससे पाठकों को दोनों अलंकारों की बेहतर जानकारी मिली होगी।
आकलन:
निवेदन है कि अनुष्ठान के पूर्ण होने पर इसका आकलन दो विधियों से किया जाए 1. हर रचनाकार के दोहों की टीका (यह टिप्पणियों में भी हो रही है, किन्तु समर्थ समीक्षक कुछ अन्य पक्षों को भी उद्घाटित कर सकता है, 2. हर बिंदु के दोहों की पारस्परिक तुलना कर गुण-दोष विवेचन। यह समय साध्य है किन्तु हो सके तो सभी लाभान्वित होंगे। हर रचनाकार अपनी रचना को अन्य रचनाओं की तुलना में स्वयं मूल्यांकित करे तो गुण-दोष का नीर-क्षीर विवेचन कर सुधार के पथ पर बढ़ सकेगा।
आयोजन नियम:
''दोहे के पहले और तीसरे चरण के अंत में रगण या 212 ध्वनि संयोजन हेतु ग्यारहवीं मात्रा का लघु होना अनिवार्य।''
यह आयोजन की सूचना के साथ दी गयी शर्त है। 1. ठेस, 2. उम्मीद, 3. सौन्दर्य, 4. आश्चर्य, 5. हास्य, 6. वक्रोक्ति तथा 7. सीख वर्ग में 1 - 1 दोहा आमंत्रित करने का आशय यह था कि दोहाकार कई दोहों में से चयन कर श्रेष्ठ दोहा भेजें। संभवतः कुछ ने जो पहला दोहा कहा वही भेज दिया। ऐसे दोहे सम्मिलित न करने से कुछ हानि नहीं होती किन्तु सम्मिलित किये जाने से अनावश्यक चर्चा में शेष दोहे जो बेहतर थे केंद्र में आने से रह गए। हर रचनाकार हर वर्ग में दोहा भेजे यह भी आवश्यक नहीं था।
कैसा साध्य, कितना नहीं:
श्रेष्ठ दोहाकार डॉ. गणेशराम 'अनंत' के अनुसार: ''कवि की कीर्ति और सफलता इस तथ्य पर अवलंबित है कि उसने कैसा लिखा? न कि इस बात पर कि कितना लिखा?'' उर्दू रचनाकार जितना लिखता है सब नहीं छपवाता, कमजोर शे'र अलग कर केवल अच्छे शे'र सामने लाता है इसलिए वे दमदार लगते हैं जबकि हिंदी कवि कलम से निकली कमजोर से कमजोर पंक्ति भी छपाने से परहेज नहीं करता।
रचना विधान:दोहा: 2 पद (पंक्ति), 4 चरण, विषम चरण 13 मात्रा, सम चरण 11 मात्रा, कुल 48 मात्रा, विषम चरणारम्भ में जगण (1 2 1) वर्जित, विषम चरणान्त में रगण (2 1 2) संयोजन हेती ग्यारहवीं मात्रा लघु होना अनिवार्य, सम पदांत में गुरु - लघु अनिवार्य। ये कुछ नियम हैं जो सर्वमान्य हैं, जिनका पालन करने की अपेक्षा दोहाकार से की जाती है।
मात्रा गणना के अपने नियम हैं जिनका पालन किया ही जाना चाहिए। मान्य काव्य-दोषों के प्रति सजग कवि की रचना अधिक प्रभाव छोड़ती है। हिंदी के आधुनिक रूप में काव्य-दोष माने गए प्रयोगों को परम्परा की दुहाई देकर प्रयोग करनेवाले यह भूल जाते हैं कि उन महाकवियों ने भी यदि उनसे पूर्वकाल की भाषा में बात की होती तो वे रचनाएँ कालजयी नहीं होतीं। वे रचनाएं रचनाकाल में प्रचलित भाषा के शुद्ध रूप में रची गयीं। दूसरा तथ्य यह भी है उस समय शिक्षा का स्तर तथा शब्द-भण्डार आज से बहुत भिन्न था। तीसरा आयाम यह भी है कि यदि हिंदी को विश्वभाषा बनना है या अहिन्दीभाषियों को हिंदी सिखाना है तो आज के रचनाकार का दायित्व है कि व्याकरण और पिंगल के नियमों का पूरी तरह पालन करे ताकि हिंदी कम जाननेवाला भी उसकी रचना को समझ सके।
भाषा:
मानक हिंदी (खड़ी बोली / भारती) के शुद्ध शब्द-रूपों का व्यवहार करें। अपनी अक्षमता को भाषा पर आरोपित मत करें। हर भाषा-रूप की अपनी-अपनी खूबी होती है। किसी में नज़ाकत-नफ़ासत, किसी में मधुरता, किसी में लोच, किसी में शुद्धता, किसी में सरलता आदि। कुशल रचनाकार हर भाषा में हर रस, भाव और रंग की रचना कर लेता है। किसी गुण विशेष की आड़ में अपनी कमी पर पर्दा डालकर कोइ कालजयी रचना नहीं कर सकता। खड़ी हिंदी में निराला और दिनकर ने ओज, पन्त और प्रसाद ने सौन्दर्य, महादेवी और हरिऔध ने करुणा, प्रसाद और सुभद्रा ने लालित्य, बच्चन औए नवीन ने माधुर्य, रंग और दुष्यंत ने परिवर्तन, मैथिलीशरण और माखनलाल ने राष्ट्रीयता की कालजयी रचनाएँ कीं। इनको कभी नहीं प्रतीत हुआ कि हिंदी अक्षम है।
वन्दे मातरम।
आपके इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु साधुवाद। आप और आप जैसे अपने अभिन्न मित्रों से अपनी सी बात पूरे अपनेपन से करना चाहता हूँ। जिन्हें न रुचे वे इसे भूल जाएँ यह उनके लिए नहीं है।
विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी:
आप बार-बार उपस्थिति का आग्रह कर रहे हैं और मैं आग्रह की रक्षा नहीं कर पा रहा क्योंकि जानता हूँ कि रचना में दोष इंगित करते ही दो मनोवृत्तियों से सामना करना होता है। एक वह जो काव्यशास्त्र के नियमों को सर्वोपरि मानकर शुद्धता की बात करती है, दूसरी वह जो नियमों की सुविधा या अधूरी जानकारी के आधार पर जाने-अनजाने अदेखी करने की अभ्यस्त है। अब तक जिसे सही मानती रही उसे अचानक गलत बताया जाना सहज ही नहीं पचा पाती। एक तीसरी मनोवृत्ति अपना पांडित्य प्रमाणित करने की जिद में नियमों को जानते हुए भी किसी न किसी प्रकार उसकी काट तर्क या कुतर्क से करती है और सही को न स्वीकारने की कसम खाए रहती है। यह भी होता है कि एक रचनाकार कभी एक, कभी दूसरी, कभी तीसरी मनोवृत्ति से प्रभावित होकर मत व्यक्त करता है। इस प्रक्रिया में स्पष्ट बात करनेवाला अंततः अनावश्यक कटुता का शिकार बनता है। अयाचित और पूर्वाग्रहित टिप्पणियों के कारण पूर्व में सहयोगी रहे कुछ रचनाकार अब तक जुड़ नहीं सके हैं। सारगर्भित विषय केन्द्रित-संयमित टिप्पणी का सदा स्वागत है।
श्रेष्ठ प्रस्तुति:
रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएँ ही सामने आएं और अनावश्यक वाद-विवाद भी न हो इस हेतु बेहतर है कि दोषपूर्ण
रचना प्रस्तुत ही न हो। अनुष्ठान की योजना पर विचार के समय दिशा-निर्देश करते समय आपसे नम्र निवेदन किया था कि रचना मिलने पर रचनाकार को त्रुटियाँ इंगित कर व्यक्तिगत संपर्क कर वांछित संशोधन करा लिए जाएँ तभी प्रकाशन हो, जिन रचनाओं से दोष निवारण हेतु रचनाकार सहमत न हों उन्हें प्रकाशित न किया जाए। रचनाकार यदि उन्हें सामने लाना ही चाहे तो टिप्पणी में प्रस्तुत कर सकेगा। इससे मूल आयोजन की गरिमा और स्तर बना रह सकेगा।
आपने एक सीमा तक अनुरोध की रक्षा की किन्तु जहाँ ऐसा न हो सका वहाँ चर्चा मूल विषय से भटक गयी। सभी पोस्टें पढ़कर भी मौन रहने का कारण मात्र यह है कि अलंकार संबंधी पुस्तक के लेखन हेतु समय देना है, अनावश्यक विवाद में समय नष्ट नहीं करना चाहता। आपसे हुई चर्चानुसार वक्रोक्ति-विरोधाभास प्रसंग में आवश्यक जानकारी उपलब्ध करने का प्रयास किया था। संभवतः इससे पाठकों को दोनों अलंकारों की बेहतर जानकारी मिली होगी।
आकलन:
निवेदन है कि अनुष्ठान के पूर्ण होने पर इसका आकलन दो विधियों से किया जाए 1. हर रचनाकार के दोहों की टीका (यह टिप्पणियों में भी हो रही है, किन्तु समर्थ समीक्षक कुछ अन्य पक्षों को भी उद्घाटित कर सकता है, 2. हर बिंदु के दोहों की पारस्परिक तुलना कर गुण-दोष विवेचन। यह समय साध्य है किन्तु हो सके तो सभी लाभान्वित होंगे। हर रचनाकार अपनी रचना को अन्य रचनाओं की तुलना में स्वयं मूल्यांकित करे तो गुण-दोष का नीर-क्षीर विवेचन कर सुधार के पथ पर बढ़ सकेगा।
आयोजन नियम:
''दोहे के पहले और तीसरे चरण के अंत में रगण या 212 ध्वनि संयोजन हेतु ग्यारहवीं मात्रा का लघु होना अनिवार्य।''
यह आयोजन की सूचना के साथ दी गयी शर्त है। 1. ठेस, 2. उम्मीद, 3. सौन्दर्य, 4. आश्चर्य, 5. हास्य, 6. वक्रोक्ति तथा 7. सीख वर्ग में 1 - 1 दोहा आमंत्रित करने का आशय यह था कि दोहाकार कई दोहों में से चयन कर श्रेष्ठ दोहा भेजें। संभवतः कुछ ने जो पहला दोहा कहा वही भेज दिया। ऐसे दोहे सम्मिलित न करने से कुछ हानि नहीं होती किन्तु सम्मिलित किये जाने से अनावश्यक चर्चा में शेष दोहे जो बेहतर थे केंद्र में आने से रह गए। हर रचनाकार हर वर्ग में दोहा भेजे यह भी आवश्यक नहीं था।
कैसा साध्य, कितना नहीं:
श्रेष्ठ दोहाकार डॉ. गणेशराम 'अनंत' के अनुसार: ''कवि की कीर्ति और सफलता इस तथ्य पर अवलंबित है कि उसने कैसा लिखा? न कि इस बात पर कि कितना लिखा?'' उर्दू रचनाकार जितना लिखता है सब नहीं छपवाता, कमजोर शे'र अलग कर केवल अच्छे शे'र सामने लाता है इसलिए वे दमदार लगते हैं जबकि हिंदी कवि कलम से निकली कमजोर से कमजोर पंक्ति भी छपाने से परहेज नहीं करता।
रचना विधान:दोहा: 2 पद (पंक्ति), 4 चरण, विषम चरण 13 मात्रा, सम चरण 11 मात्रा, कुल 48 मात्रा, विषम चरणारम्भ में जगण (1 2 1) वर्जित, विषम चरणान्त में रगण (2 1 2) संयोजन हेती ग्यारहवीं मात्रा लघु होना अनिवार्य, सम पदांत में गुरु - लघु अनिवार्य। ये कुछ नियम हैं जो सर्वमान्य हैं, जिनका पालन करने की अपेक्षा दोहाकार से की जाती है।
मात्रा गणना के अपने नियम हैं जिनका पालन किया ही जाना चाहिए। मान्य काव्य-दोषों के प्रति सजग कवि की रचना अधिक प्रभाव छोड़ती है। हिंदी के आधुनिक रूप में काव्य-दोष माने गए प्रयोगों को परम्परा की दुहाई देकर प्रयोग करनेवाले यह भूल जाते हैं कि उन महाकवियों ने भी यदि उनसे पूर्वकाल की भाषा में बात की होती तो वे रचनाएँ कालजयी नहीं होतीं। वे रचनाएं रचनाकाल में प्रचलित भाषा के शुद्ध रूप में रची गयीं। दूसरा तथ्य यह भी है उस समय शिक्षा का स्तर तथा शब्द-भण्डार आज से बहुत भिन्न था। तीसरा आयाम यह भी है कि यदि हिंदी को विश्वभाषा बनना है या अहिन्दीभाषियों को हिंदी सिखाना है तो आज के रचनाकार का दायित्व है कि व्याकरण और पिंगल के नियमों का पूरी तरह पालन करे ताकि हिंदी कम जाननेवाला भी उसकी रचना को समझ सके।
भाषा:
मानक हिंदी (खड़ी बोली / भारती) के शुद्ध शब्द-रूपों का व्यवहार करें। अपनी अक्षमता को भाषा पर आरोपित मत करें। हर भाषा-रूप की अपनी-अपनी खूबी होती है। किसी में नज़ाकत-नफ़ासत, किसी में मधुरता, किसी में लोच, किसी में शुद्धता, किसी में सरलता आदि। कुशल रचनाकार हर भाषा में हर रस, भाव और रंग की रचना कर लेता है। किसी गुण विशेष की आड़ में अपनी कमी पर पर्दा डालकर कोइ कालजयी रचना नहीं कर सकता। खड़ी हिंदी में निराला और दिनकर ने ओज, पन्त और प्रसाद ने सौन्दर्य, महादेवी और हरिऔध ने करुणा, प्रसाद और सुभद्रा ने लालित्य, बच्चन औए नवीन ने माधुर्य, रंग और दुष्यंत ने परिवर्तन, मैथिलीशरण और माखनलाल ने राष्ट्रीयता की कालजयी रचनाएँ कीं। इनको कभी नहीं प्रतीत हुआ कि हिंदी अक्षम है।
संजीव वर्मा सलिल
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आदरणीय सलिल जी, आपके इस सारगर्भित आलेख में स्पष्टता का साहस प्रशंसनीय है। दुर्भाग्य ही कहूँगा कि इतना भी सुनने को तैयार नहीं है कोई। टिप्पणियॉं भी सत्य से दूर एक अलग दुनिया बसाये हुए हैं। दु:खद प्रतीत होता है जब व्यक्तिगत संबंध टिप्पणी पर भारी पड़ने लगते हैं। कहीं चाटुकारिता तो कहीं मात्र विरोध के लिये विरोध। साहित्य अभिव्यक्ति का माध्यम है तो सहज संप्रेषण तो इसकी पहली आवश्यकता हो गया, वहीं जिस विधा में अभिव्यक्ति है उसके नियम के बिना वह रचना और कुछ भी हो उस विधा की तो नहीं रह जाती है।
जवाब देंहटाएंकालजयी वही रचनायें हो सकी्ं जिनमें सहज संप्रेषण था। लेखन एक कला है जो आते आते आती है इसे सहजता स्वीकारने में संकोच क्यों हो। काव्य सृजन उससे भी कठिन है। आयोजनों के लिये रचा गया काव्य सामान्यतय: रचनाकार का श्रेष्ठ कृतित्व नहीं होता है।
जवाब देंहटाएं"रचनाकार की श्रेष्ठ रचनाएँ ही सामने आएं और अनावश्यक वाद-विवाद भी न हो इस हेतु बेहतर है कि दोषपूर्ण रचना प्रस्तुत ही न हो।"
---फिर तो प्रसिद्द कवियों की रचनाएँ छापते/ पढवाते रहिये ...नए कवियों से क्या लेना देना..
इस मंच का क्या अभिप्राय है ...
--मेरे विचार से तो नवीन जी का आयोजन सफलतापूर्वक, मंच के उद्देश्य के तहत चल रहा है ....
---कौन सुनिश्चित करेगा कि रचना दोषपूर्ण है या नहीं दोष सिर्फ रटे-रटाए शिल्प के ही नहीं अपितु भाव-पक्ष, कथ्य व भाषा के भी होते हैं ..वे ही अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं शिल्प तो दो बार अशुद्धि, गलतियाँ करके, टिप्पणियाँ पढकर जाना /ठीक किया जा सकता है पर भाव पक्ष व भाषा -भाव की अशुद्धियाँ बिना तर्कपूर्ण विवेचना एवं चर्चा तथा चर्चा व टिप्पणियों से प्रभावी ज्ञान बढाने की ललक में पठन-पाठन ..के नहीं ज्ञात हो पातीं ....कौन सर्वज्ञ है यहाँ ?
--- जिस को भी सुनिश्चित करने वाला बनाया जाएगा वह उन्हीं तीनों मनोवृत्तियों का पालन करेगा जिनको सलिल जी ने इंगित किया है....
--- कवि की रचना ज्यों की त्यों बिना किसी संपादन के छपनी चाहिए अन्यथा उसके गुण-दोष विवेचन कैसे होंगे एवं काव्य-ज्ञान आगे कैसे बढ़ेगा व प्रगति कैसे होगी एवं इस मंच का अभिप्राय क्या रह जायगा ....
---- हाँ यह किया जा सकता है कि जिस छंद आदि की रचना की जानी हो उसकी सूचना के साथ उसका शिल्प भी दे दिया जाय, कला पक्ष को इस प्रकार कुछ नियमित किया जा सकता है यद्यपि भाव-पक्ष तो बिना भाषा एवं विषय के सम्यक-ज्ञान के नहीं संवारा जा सकता ...परन्तु रचना तो निश्चय ही बिना संपादन के आनी चाहिए ....
.
कपूर जी...
जवाब देंहटाएं----टिप्पणियाँ सत्य से दूर कैसे हो सकती हैं ...आपका सत्य आपके ज्ञान के अनुरूप है टिप्पणीकार का सत्य उसके ज्ञान के अनुरूप ....किसका ज्ञान वास्तविक सत्य है ...कैसे निर्धारण होगा?...इसी तर्कपूर्ण विवेचना, व्याख्या विविध विचार, उदाहरण आदि की प्रस्तुतियों द्वारा....
---क्या आपके विचार में नवीनतम-पोस्ट पर साधना वैद जी के दोहे श्रेष्ठ नहीं थे ...कोई भी रचना श्रेष्ठतम नहीं होती जिस दिन कवि अपनी किसी रचना को श्रेष्ठतम मान लेगा उसका प्रयास रुक जायगा और साहित्यिक अंत...नेति...नेति भाव में सदैव ही 'और श्रेष्ठ' होने का भाव सदा रहता है ....
इस मंच से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। सीखने की प्रक्रिया तो गर्भ से कब्र तक जारी रहती है।
जवाब देंहटाएंआभार।
रचना विधान:
जवाब देंहटाएंसम पदांत में गुरु - लघु अनिवार्य। ये कुछ नियम हैं जो सर्वमान्य हैं, ...?
--- सर्प दोहे में यह नियम लागू नहीं होता
उथल-पुथल नित-नित नवल,समय अनवरत करत.
कण-कण पर निज परम-पद, धमक-धमक कर धरत...
श्याम जी
जवाब देंहटाएंअनेक साथियों के सम्पादन के आग्रह के बीच आप हठ करते रहे हैं कि रचनाएँ सम्पादन किए बिना ही पोस्ट की जाएँ, परंतु जब आप के दोहों के बारे में पूछा गया कि यूँ ही पोस्ट कर दें या सुधार कर? तो उस वक़्त फिर आप ने अपने हठ को क्यूँ छोड़ दिया?
तिलक जी
जवाब देंहटाएंदादा आप के मत से सहमत हूँ इसीलिए तो पोस्ट दर पोस्ट न सिर्फ़ खुले-विचारों को राह दे रहा हूँ, बल्कि कुछ न कुछ विचार-विमर्श हेतु बिन्दु भी उपलब्ध रहने दे रहा हूँ..... परन्तु अब तक की पोस्ट्स ने ही माहौल इस क़दर बोझिल कर दिया है कि आगे आयोजन किस तरह बढ़ाऊँ ये प्रश्न उपस्थित हो रहा है।
अव्वल तो छंद पर काम करना ही टेढ़ी खीर है, उस पर भी एक-एक व्यक्ति से व्यक्तिगत संपर्क कर के, कंविन्स कर के उत्तम प्रस्तुति हेतु तैयार करना - आप समझ सकते हैं - घनाक्षरी के दौरान आप के श्रेष्ठ छंद [कटि] की स्मृतियाँ हैं आप के साथ।
एक बार सभी पोस्ट्स की सभी टिप्पणियों पर दृष्टि डाल कर देखिये आप स्वयं समझ जाएँगे।
मैं समन्वय हेतु यथा सम्भव प्रयास कर रहा हूँ, परन्तु अब अपराध-बोध का आभास हो रहा है जैसे कि इस आयोजन के मार्फ़त मैं कोई जघन्य अपराध कर बैठा हूँ।
पुराने साथी आख़िर क्यूँ नहीं आ रहे, उन्हें क्या शिकायत है, बतानी चाहिए - खुलेआम नहीं तो मुझ से फोन पर बात कर के बता सकते हैं।
महेंद्र जी
जवाब देंहटाएंसहमत, सीखने वालों में ख़ुद मैं भी तो शामिल हूँ। आप सभी के अर्जित ज्ञान और अनुभव से मैं भी तो लाभान्वित हो रहा हूँ। परंतु जिस सहृदयता से आप ने मेरे अनुरोध को स्वीकार किया, ऐसे प्रसंग कम हैं।
श्याम जी सरल दोहा ढ़ंग से आने लगें एक बार, फिर सर्प क्या वानर, मंडूक, श्येन जैसे 23 प्रकार के विभिन्न दोहों पर भी कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँगी। पहले सरल से दिखने वाले प्रारूप पर तो ठीक-ठाक दोहे पढ़ने को मिल जाएँ, ऐसे दोहे जिन को सम्पादन की आवश्यकता ही न हो।
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र कुमार सज्जन के दोहे आयें तो पढ़ के देखना - उस बंदे ने एक नहीं दो नहीं चार बार अपने दोहों को बदला है, पाँचवीं बार भी बदलवा दे तो मुझे आश्चर्य न होगा, वह व्यक्ति साहित्य से सच्ची मुहब्बत करता है।
जवाब देंहटाएंछंद साधना का विषय है - समझने वाले समझते हैं।
साहित्य भाव जगत की रागात्मक वृत्ति है .गूंगे का गुड़ इसके निष्पादन के लिए किसी तर्क पंडित की ज़रुरत नहीं
जवाब देंहटाएंछंद लेखन बहुत ही कठिन कार्य है |पर कोशिश करने में क्या बुराई है|
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी लेख |
आशा
"धर्मेन्द्र कुमार सज्जन के दोहे आयें तो पढ़ के देखना - उस बंदे ने एक नहीं दो नहीं चार बार अपने दोहों को बदला है, पाँचवीं बार भी बदलवा दे तो मुझे आश्चर्य न होगा, वह व्यक्ति साहित्य से सच्ची मुहब्बत करता है।"
जवाब देंहटाएं---- नवीन जी मुझ से पूछे गए अपने प्रश्न का उत्तर तो आपने स्वयं ही उपरोक्त कथन में देदिया है....
"पोस्ट दर पोस्ट न सिर्फ़ खुले-विचारों को राह दे रहा हूँ, बल्कि कुछ न कुछ विचार-विमर्श हेतु बिन्दु भी उपलब्ध रहने दे रहा हूँ..."
जवाब देंहटाएं-- बहुत अच्छा कर रहे हैं नवीन जी ...साहित्य की प्रगति हेतु यह उचित है...हो सकता है इस प्रकार के मंथन द्वारा कोई २४ वाँ ..प्रकार का दोहा आजाय...
बिलकुल सही कहा आशा जी ...मेरे विचार से इसी अभिप्राय: हेतु इस मंच का आयोजन है..
जवाब देंहटाएं-"साहित्य भाव जगत की रागात्मक वृत्ति है .गूंगे का गुड़ इसके निष्पादन के लिए किसी तर्क पंडित की ज़रुरत नहीं |"
---गूंगे का गुड़...सिर्फ आत्मानंद-संतोष-वृत्ति तक है ...समष्टि-भाव एवं प्रगति हेतु ...विचार विनिमय, विमर्श व तर्क की आवश्यकता है ताकि उपयुक्तता स्थित हो सके......साहित्य सिर्फ रागात्मक वृत्ति नहीं अपितु समष्टि-हिताय वृत्ति है...
--- विचार-विमर्श व तर्क से परहेज़ का अर्थ है अज्ञानता या संन्यास ...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभाई नवीनजी, पुनः क्षमा, चाह कर रेगुलर नहीं हो पा रहा हूँ. खैर..
जवाब देंहटाएंआदरणीय सलीलजी की प्रस्तुत पोस्ट सारगर्भित है, स्पष्ट है और साहसी है. इसके कथ्य पर फिर आऊँगा.
अभी इस दोहा के साथ कि,
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय
यहाँ निंदक की निंदा को हम समालोचना के समकक्ष रख स्वयं के अंदर सकारात्मक परिवर्तन की चेष्टा करते हैं.
मुझे यह देख कर अपार कष्ट होता है कि कुछ तथाकथित निंदकों की निंदा दुराग्रह मात्र है. और, स्तर भी.. खैर. आपका सादर आभार कि आपने इस मंच के वातावरण को अपनी ओर से अभी तक उदार बनाये रखा है.
आलोचना हेतु जब कोई तथाकथित रचनाकार मुँह खोलता है तो पाठकों की आम अपेक्षा उस रचनाकार की ’रचना’ को देखने-पढ़ने की होती है. यदि उन रचनाओं का स्तर उस हिसाब से कहीं का न हुआ तो फिर सारा कथ्य-अकथ्य किसी गड़हे में जमे पानी की सतह पर उतरा आये अवशिष्ट की तरह प्रतीत होने लगता है. हम अवशिष्टों को कितनी तरज़ीह देंगे यह मात्र व्यक्तिगत धैर्य पर नहीं, मंच की गरिमा पर भी निर्भर करता है.
आप-हम साहित्य सेवा की अनुशासित चर्चा करें, भाईजी. न-जानकारों के ’प्रयोगों’ पर सिर धुनने के लिये क्या यह उपयुक्त मंच हैं ?
सादर
पोस्ट और संवाद सभी पठनीय हैं । बधाई आप सभी को और आयोजन के लिये नवीन जी को --मयंक
जवाब देंहटाएंमुझे आश्चर्य नहीं हुआ इस विस्तृत चर्चा को पढ़कर, इतना अवश्य कहूँगा कि इससे संबंधित अन्य पोस्ट मैनें नहीं पढ़ीं। मेरी टिप्पणी केवल सलिल जी के आलेख से उत्पन्न हुई है।
जवाब देंहटाएंहिन्दी में काव्य विधा का पटल विस्तीर्ण है और मैं मूलत: कवि नहीं इसलिये इन विधाओं में प्रयास करने का साहस कभी नहीं जुटा पाया। सबकी अपनी निजि क्षमता होती है। आयोजक के लिये यह भी व्यवहारिक नहीं कि वो विश्लेषण कर कमज़ोर रचनायें मॉंजता रहे। उचित तो यही होगा कि प्रेषक अगर विधा का आवश्यक ज्ञान नहीं रखता है तो किसी जानकार से परामर्श कर ही रचना भेजे जिससे शिल्प तो सही रहे। भाव,कथ्य आदि कमज़ोर हो सकते हैं, हर व्यक्ति बच्चन या निराला (अन्य भी बहुत से नाम हैं) तो नहीं हो सकता।
आ० श्याम गुप्त के सुझावों से सहमत हूँ | विषय को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी देखना आवश्यक है | हिंदी का अध्ययन और अध्यापन दोनों हिंदी के काम चलाऊ ज्ञान तक सीमित हो चुके हैं |छात्र को पास होने और अध्यापक को उसे पास कराने तक ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है | भाषा, साहित्य, व्याकरण, शब्द-ज्ञान, रचना कौशल, शिल्प आदि गंभीर अध्ययन और मनन का विषय हैं जिसके लिए पर्याप्त समय,साधन, साधना, गहरी रुचि और समर्पण चाहिए | इनमें से कितना कुछ आज उपलब्ध है ? ऐसी पृष्ठभूमि में यह अपेक्षा करना कि हर दृष्टि से शुद्ध साहित्य ही परोसा जाय केवल दिवा-स्वप्न सामान है | अंतरजाल के विशाल क्षेत्र में पनपते अनेक साहित्य समूहों, इपत्रिकाओं के लिए विशुद्ध साहित्यिक सामिग्री पर निर्भरता असंभव है | पाठक तो क्या अधिकाँश रचनाकार भी साहित्य सृजन की बारीकियों से अनभिज्ञ हैं | ८० -९० प्रतिशत लेखक व पाठक केवल भाव-पक्ष या तत्व-पक्ष को ही प्रधानता देते हैं | काव्य -विधा की कई शाखाएं, जैसे,सोरठा,कुण्डलियाँ,सवैयाँ
जवाब देंहटाएंदोहा आदि लुप्त होते जा रहे हैं | केवल कहीं कहीं इनकी अलख जगाने के प्रयास दीखते हैं | यदि ये व्याकरणीय आलोचना का शिकार होते रहेंगे तो प्रस्तुतियों की संख्या पर विपरीत असर पड़ेगा | वैसे भी समूह व इपत्रिकाओं के लिए सामिग्री के लाले पड़े हैं | विशुद्ध व्याकरणीय नियम लागू होने से रचनाकार और पाठक शायद ढूंढें न मिलें |
प्रतेक प्रस्तुति को सम्पादन के पश्चात ही प्रकाशित करने की अनिवार्यता समूहों के लिए अव्यवहारिक एवं असम्भव है | स्वस्थ और निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं का तो स्वागत होना चाहिए किन्तु अपना पक्ष अन्य पर थोपना , भले वह कितना भी सही हो, तनाव और मनस्ताप का कारण बनता है | " मुंडे मुंडे मतिर्भीनः " के इस युग में अधिक बहस का स्थान नहीं | स्वस्थ संतुलित भावपक्ष की रचनाओं पर व्याकरणीय प्रतिबन्ध की बजाय गुनीजन अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा समझाने का अगर प्रयास करें की उसे किस प्रकार लिखा जाना उचित होता तो रचनाकार का भला होगा | केवल नकारात्मक प्रतिक्रिया हतोत्साहित करती है |
मानता हूँ कि विद्वानों को व्याकरणीय या शिल्प आदि की त्रुटियाँ देख कर कष्ट होता है पर उससे बचने का उपाय भी नज़र नहीं आता | अस्तु सामंजस्य बना कर चलने का ही विकल्प शेष है |
कमल
कमल जी ...आपने अच्छी व्याख्या की है ...प्रायः यह हो रहा है कि कुछ साहित्यकार...उसी लीक पर चलने के आदी होजाते हैं वे उस घेरे से आगे देख ही नहीं पाते.. ---क्योंकि प्रयोगों व नवीनता एवं गतिशीलता के लिए सिर्फ उपलब्ध पुरा-शिल्प का ही समुचित ज्ञान नहीं अपितु साहित्य की आत्मा एवं भाषा, संस्कृति, विविध साहित्य एवं विविध विषयक ज्ञान की आवश्यकता होती है ...
जवाब देंहटाएं--- आपने सही कहा कि पाठक क्या अधिकाँश रचनाकार भी कविता की आत्मा को नहीं पहचानते.. शिल्प को तो वे सीख लेते हैं एक टेक्नीशियन की भांति परन्तु भावपक्ष व विषय ज्ञान से अनभिग्य है अतः उनकी कविता में सुदृड शिल्प के वावजूद प्राय: भाव-दोष, अर्थ-प्रतीति दोष, कथ्यात्मक एवं तथ्यात्मक दोष पाए जाते हैं...जो उचित विवेचनात्मक व उदाहरणात्मक टिप्पणियों के माध्यम से ही समझाए जा सकते हैं ....
--- मेरा भी यही मानना है कि काव्य में २५ % शिल्प की एवं ७५ % भाव व तात्विक-पक्ष की महत्ता होती है ...पाठक को तो रसानुभूति चाहिए उसे क्या फर्क पडता है कि एक मात्रा कम है या कोई छंद अशुद्ध है अतः अधिक शिल्पी बारीकियों में जाना आवश्यक नहीं है ...
अब क्या कहूँ? अदम गोंडवी साहब ने लिखा है कि
जवाब देंहटाएं"ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में।
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में॥"
लेकिन उनकी ग़ज़लों में बहर का या काफ़िए रदीफ़ का दोष ढूँढना भूसे के ढेर में से सुई ढूँढने के बराबर होता है। जब एक साधारण किसान ग़ज़ल के शिल्प पर ऐसी महारथ हासिल कर सकता है तो विद्वान क्यों अपनी विधा के शिल्प में कोई कमी छोड़े?
------बहुत सही कहा आदम साहब ने---- इसका अर्थ यही है की वे चाहते थे की अदबी -झमेले से ग़ज़ल बाहर निकले .....हो सकता है वे किसी कारणवश स्वयं नहीं कर पा रहे हों परन्तु दिल की टीस दर्ज है ...यहाँ .....
जवाब देंहटाएंइन अदबी इदारों से भी हाँ फन की तवज्जो है,
सुखनवर का तो सुख है किन्तु शहनाई में भावों की ।