वंदन शुभ अभिवन्दन - रमेश कँवल
एक और कदम हिंदी गज़ल की ओर – एम. एल. गुप्ता आदित्य
अन्तर्मन से - सरल और मृदुल कविताओं का संकलन
आभा दवे मूलतः गुजराती भाषी हैं साथ ही हिंदी भाषा पर उनका अधिकार दर्शनीय है . विवेच्य कविता संग्रह में आप ने भाषा के सरल और सरस प्रारूप को चुना है . विषय भी बहुत बोझल न हो कर आम जन से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं . दरअसल कविता लिखते समय कुछ लोग विशिष्ट शैली के उपदेशक होने का प्रहसन करने से स्वयं को रोक नहीं पाते . इस दृष्टिकोण से आभा दवे ने स्वयं को साक्षीभाव के स्तर पर बनाए रखा है . यह इनका चौथा काव्य संग्रह है और इन्होंने भूमिका में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इनकी कविताएँ स्वान्तः सुखाय हैं . पुस्तक का प्रकाशन इण्डिया नेट बुक्स द्वारा किया गया है और इसका मूल्य है २५०.०० रुपये . इस कविता संग्रह से कुछ उद्धरण
जमुना किनारे राधा पुकारे
ढूँढे फिरे वह साँझ सकारे
छुप गये कान्हा तुम कहाँ
तुम तो बने थे मेरे सहारे
*
चिलचिलाती धूप में वो बनाता है मकान आलीशान
जिसका खुद के रहने के लिए भी नहीं होता मकान
पर उसके चेहरे पर रहता नहीं है कोई भी मलाल
रह जायेगा उसके ही काम का इस धरा पर निशान
*
जब मुस्कुराती हैं ये लड़कियाँ
गजब ही ढाती हैं ये लड़कियाँ
जमाना दुश्मन क्यों न बन जाये
हर जुल्म सह जाती हैं ये लड़कियाँ
ऐसी सीधी सादी सरल और मृदुल कविताओं को पढने के लिए आप आभा दवे जी की इस पुस्तकको पढ़ सकते हैं .
आभा दवे जी का पता और फोन नंबर
बी/७/१०३,साकेत काम्प्लेक्स, थाने - पश्चिम - ४००६०१ (मुम्बई)
मोबाइल - ९८६९३९६७३१
रमेश कँवल - लीक से हटकर चलने वाले व्यक्ति
सबसे पहले 2020 की नुमाइन्दा ग़ज़लों का संकलन प्रकाशित किया . उसके बाद इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल की बेहतरीन ग़ज़लों का संकलन प्रस्तुत किया . तीसरे नम्बर पर एक रुकनी अनूठी ग़ज़लों का संकलन निकाला और अब स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष में 75 चुनिन्दा रदीफ़ों पर ताबिन्दा ग़ज़लों के
साथ दस्तक दी है
आज के दौर में जहाँ नये लोगों से मात्र दो या चार रचनाएँ छापने के लिए साझा संकलन
के नाम पर लोग हज़ार पाँच सौ रुपये बेझिझक माँग लेते हैं वहीं रमेश कँवल जी ने अनेक
शायरों / शायराओं को देश के कोने कोने तक बिना
एक भी पैसा लिए पहुँचाने का पुण्यकर्म किया है ।
रमेश कँवल जी स्वयं भी एक सिद्धहस्त शारदात्मज हैं । विषय के जानकार हैं और उनकी
ग़ज़लें तमाम पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं । इनकी कुछ ग़ज़लों को ग़ज़ल गायकों
ने गाया भी है । रमेश जी अपने काव्यगुरु श्री हफ़ीज़ बनारसी जी की स्मृति में सालाना
जलसे भी करवाते रहते हैं ।
रमेश जी के काम को एक पोस्ट में समेट पाना बहुत कठिन है । इनके प्रयासों के गाम्भीर्य को समझने के लिए इनके
उपरोक्त संकलनों को पढ़ना चाहिए । जहाँ एक ओर रमेश जी ने शायरी की भरपूर ख़िदमत की है
वहीं दूसरी ओर इन्होंने राष्ट्र गौरव के प्रतीकों, गाथाओं
और उद्धरणों को अपने संकलनों में प्रमुखता से स्थान दिया है ।
रमेश
जी का पता और मोबाइल नम्बर
रमेश
कँवल
6, मंगलम विहार कॉलोनी, आरा
गार्डन रोड,
जगदेव
पथ, पटना –
800014
मोबाइल
- 8789761287
हिंदी ग़ज़ल के प्रति आस्था का उद्घोष हैं 'धानी चुनर' की हिन्दी ग़ज़लें - देवमणि पाण्डेय
ओढ़कर धानी चुनर हिंदी ग़ज़ल
बढ़ रही सन्मार्ग पर हिंदी ग़ज़ल
देवभाषा की सलोनी संगिनी
मूल स्वर में है प्रवर हिंदी ग़ज़ल
हिंदी भाषा के पास संस्कृत की परंपरा से प्राप्त विपुल शब्द संपदा है। नवीन जी ने इस शब्द संपदा का सराहनीय उपयोग किया है। ऐसे बहुत से शब्द हैं जो हमारी बोलचाल से बाहर होकर हमारी स्मृति या शब्दकोश तक सीमित हो गए हैं। नवीन जी ने इनको ग़ज़लों में पिरो कर संरक्षित करने का नेक काम किया है। तदोपरांत और अंततोगत्वा ऐसे ही शब्द हैं। ग़ज़ल में इनकी शोभा देखिए-
हृदय को सर्वप्रथम निर्विकार करना था
तदोपरांत विषय पर विचार करना था
अंततोगत्वा दशानन हारता है राम से
शांतिहंता शांति दूतों को हरा सकते नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी ने एक बातचीत में कहा था कि हिंदुस्तान में ग़ज़ल को आए हुए अरसा हो गया। अब तक उसमें यहां की नदियां, पर्वत, लोक जीवन, राम और कृष्ण क्यों शामिल नहीं हैं? कवि नवीन चतुर्वेदी ने अपने हिंदी ग़ज़ल संग्रह 'धानी चुनर' में फ़िराक़ साहब के मशवरे पर भरपूर अमल किया है। उनकी हिंदी ग़ज़लों में हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ हमारे पौराणिक चरित्र राम सीता, कृष्ण राधा, शिव पार्वती आदि अपने मूल स्वभाव के साथ शामिल हैं। हमारी आस्था के केंद्र में रहने वाले ये पात्र अपनी विशेषताओं के साथ बार-बार नवीन जी की ग़ज़लों में आते हैं और हमारी सोच एवं सरोकार का हिस्सा बन जाते हैं-
अगर अमृत गटकना हो तो कतराते हैं माहेश्वर
मगर विषपान करना हो तो आ जाते हैं माहेश्वर
निरंतर सद्गुणों का उन्नयन करते हुए रघुवर
यती बनकर जिए पल पल जतन करते हुए रघुवर
किसी भी रचनाकार का एक दायित्व यह भी होता है कि वह समाज के कुछ विशिष्ट मुद्दों को रेखांकित करे ताकि दूसरों के मन में भी सकारात्मक सोच का उदय हो। इसी सामाजिक सरोकार के तहत नवीन चतुर्वेदी ने कई ग़ज़लों में स्त्री अस्मिता को रेखांकित करने की अच्छी कोशिश की है-
हे शुभांगी कोमलांगों का प्रदर्शन मत करो
ये ही सब करना है तो संस्कार वाचन मत करो
सृष्टि के आरंभ से ही तुम सहज स्वाधीन थीं
क्यों हुई परवश विचारो, मात्र रोदन मत करो
सामाजिक सरोकार के इसी क्रम में नवीन जी ने पुरुषों की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है-
व्यर्थ साधो बन रहे हो, कामना तो कर चुके हो
उर्वशी से प्रेम की तुम, याचना तो कर चुके हो
जैसे नटनागर ने स्पर्श किया राधा का मन
उसका अंतस वैसी ही शुचिता से छूना था
इन गज़लों में नयापन है, ताज़गी है और कथ्य की विशिष्टता है। ये ग़ज़लें उस मोड़ का पता देती हैं जहां से हिंदी ग़ज़ल का एक नया कारवां शुरू होगा-
दुखों की दिव्यता प्रत्येक मस्तक पर सुशोभित है
समस्या को सदा संवेदना की दृष्टि से देखें
वो जो दो पंक्तियों के मध्य का विवरण न पढ़ पाए
उसे पाठक तो कह सकते हैं संपादक कहें कैसे
नवीन चतुर्वेदी की हिंदी ग़ज़लें प्रथम दृष्टि में शास्त्रीय संगीत की तरह दुरूह लगती हैं। मगर जब आप इन के समीप जाते हैं, इन्हें महसूस करते हैं तो इनमें निहित विचारों और भावनाओं की ख़ुशबू से आपका मन महकने लगता है। ये कहना उचित होगा कि नवीन चतुर्वेदी की हिंदी ग़ज़लें किसी संत के सरस प्रवचन की तरह हैं जो हमारे अंतस को आलोकित करती हैं और मन को भी आह्लादित करती हैं। इस रचनात्मक उपलब्धि के लिए मैं नवीन सी. चतुर्वेदी को बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
इस किताब के प्रकाशक हैं आर. के. पब्लिकेशन मुंबई। उनका संपर्क नंबर है- 90225-21190, 98212-51190
आपका-
देवमणि पांडेय
सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्या पाडा, गोकुलधाम, फिल्मसिटी रोड, गोरेगांव पूर्व, मुम्बई-400063 , 98210 82126
'लव की हॅप्पी एंडिंग' एवं 'कुछ दिल की कुछ दुनिया की' - पुस्तक समीक्षा
अब जरूर हम मथुरा को
ठीकठाक सा एक टाउन कह सकते हैं मगर 1990 के आसपास मथुरा इतना डिवैलप नहीं हुआ था ।
हालाँकि रिफायनरी आ चुकी थी, टाउनशिप बस चुकी थी, कॉलोनियों की बात हवाओं में तैरने लगी थी फिर भी 1990 का मथुरा 1980 के
मथुरा से बहुत अधिक उन्नत नहीं लगता था ।
उस मथुरा की एक गली में
जन्मी हुई लड़की की शादी महानगर में होती है । मथुरा के संस्कारों को मस्तिष्क में
और महानगर वाले पतिदेव के अहसासात को दिल में सँजोये हुए वह गुड़िया बाबुल का घर
छोड़ कर पी के नगर के लिए निकल पड़ती है । जिस तरह कहते हैं न कि दुनिया गोल है उसी
तरह गृहस्थी की दुनिया भी सभी जगह और सभी के लिए गोल-मोल ही होती है । उस गोल-मोल
दुनिया में यह लड़की डटकर परफोर्म करती है, दूरदर्शन,
सी एन एन, सी एन बी सी, डी
डी भारती और आई बी एन से मीडिया अनुभव ग्रहण करते हुए कालान्तर में एक सफल लेखिका
बन कर राष्ट्रीय पटल पर छा जाती है । इस लड़की का घर का नाम गुड़िया ही है और अब
भारतीय साहित्य-जगत इसे अर्चना चतुर्वेदी के नाम से जानता है । उत्कृष्ट कोटि की
व्यंग्य लेखिका अर्चना जी का साहित्यिक प्रवास उत्तरोत्तर ऊर्ध्व-गामी रहा है ।
ब्रजभाषा और हिन्दी दौनों ही क्षेत्रों में आप की रचनाओं को पाठकों का अपरिमित
स्नेह प्राप्त हुआ है । आप की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । आपको अनेक
पुरस्कार मिल चुके हैं ।
पिछले दिनों आप की दो
पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । पहली पुस्तक “लव की हॅप्पी एंडिंग” जो कि हास्य कहानी
संग्रह है और दूसरी पुस्तक “कुछ दिल की कुछ दुनिया की” किस्सा गोई पर आधारित है ।
अर्चना चतुर्वेदी प्रसन्नमना लेखिका हैं, दिल से लिखती
हैं, मज़े ले-ले कर लिखती हैं, इसीलिए
इन्हें पढ़ने वाले इन्हें बार-बार पढ़ना चाहते हैं ।
इन पुस्तकों को भावना
प्रकाशन से मँगवाया जा सकता है ।
भावना प्रकाशन – फोन
नम्बर – 8800139685, 9312869947
श्राद्ध के दिन पर्व मनाएँ या नहीं
How to celebrate
Diwali If shradham falls on that day?
प्रश्न पूछा गया है कि श्राद्ध तिथि अगर दिवाली को
पड़ जाये तो दिवाली को कैसे सेलिब्रेट किया जाये ?
सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम श्राद्ध
क्यों मनाते हैं और श्राद्ध का अर्थ क्या होता है ?
श्राद्ध का अर्थ
अपने पितरों को याद कर के उन के कल्याण हेतु अपनी-अपनी
लोक रीतियों के अनुसार जो कुछ भी पुण्य काम हम सच्ची श्रद्धा के साथ करते हैं उसे श्राद्ध
कहा जाता है ।
श्राद्ध क्यों मनाते हैं
हमारे बड़े-बुजुर्ग जो कि जीवित हैं उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हमारे पास अनेक विकल्प होते हैं मगर हमारे जो बड़े-बुजुर्ग स्वर्गवासी हो चुके हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए श्राद्ध-कर्म किया जाता है ।
श्राद्ध तिथि को पर्व मनाएँ या नहीं
यह प्रश्न सैद्धान्तिक कम और व्यावहारिक अधिक है । यह विषय अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग प्रसंगों के लिए अलग-अलग है । यदि वह तिथि किसी बड़े-बुजुर्ग की है जो सबकुछ भोग-विलास कर के भरा-पूरा परिवार छोड़ कर के सुखद स्थिति में इस नश्वर संसार को छोड़ कर परलोक सिधारे हैं उस केस में तो सुबह के समय तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म करने के उपरान्त अन्य पारिवारिक सदस्यों की सहमति के साथ पर्व मनाने में कोई समस्या नहीं है परन्तु यदि यह प्रसंग दुखदायक है तो ऐसे में पर्व सम्बन्धी निर्णय लोक के अनुसार पारिवारिक सदस्यों से परामर्श कर के लेना ही अच्छा रहता है ।
हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या
हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या
शेरो-सुख़न में हमने गुज़ारी तमाम उम्र
उर्दू ज़बाँ पै अपना भी है क़र्ज़ दोसतो
परिन्दे मेरे आँगन में उतरते क्यों नहीं हैं
: अयाज़ अहमद तालिब
वही है देखना हम को जो रब दिखाता है
“ कृष्ण कुमार “तूर”
ये किसकी रूह का ताइर तवाफ़ करता है
“ राजिन्दर नाथ “राहबर”
बेचारा मर गया नये कपड़ों की आस में
“ ज़मीर दरवेश
ग़म के बादल भी बहुत जल्दी धुआँ हो जाएँगे
: आबशार आदम
हर आदमी का जनाज़ा नहीं निकलता है
: “कशिश” होशियारपुरी
जो ‘सिकन्दर’ को ‘सिकन्दर’ नहीं रहने देता
: द्विजेंद्र द्विज
जिनकी थाली में कल चाँद उतारा था
: नववीत शर्मा
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग
: कृष्ण कुमार “नाज़”
जो तेरा क़र्ज़ चुकाते हुए मर जाते हैं
“ सुभाष गुप्ता “शफ़ीक़”
कहाँ से दुर्ग ढहना है ये अपना जानता है
: जावेद उलफ़त
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
: टी. एन. राज़
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ शाइरी के साथ
: काशिफ़ अहसन
सदियों का सारांश - द्विजेन्द्र द्विज - एक समीक्षा
पहाड़ों पर जाना किसे
अच्छा नहीं लगता ? कौन है जिसे पहाड़ों से मुहब्बत नहीं है? पहाड़ों का हुस्न, पहाड़ों का पानी, पहाड़ों की चढ़ाई, पहाड़ों की उतराई, पहाड़ों की गर्मी, पहाड़ों की सर्दी, पहाड़ों का खाना, पहाड़ों के सरोकार ऐसे अनेक विषयों से आप अवश्य ही दो-चार हो चुके होंगे अब
तक । पहाड़ों पर अनेक कविताएँ, गीत, शेर
आदि भी पढे होंगे आप ने अब तक । परन्तु किसी एक ही काव्य संग्रह विशेष कर ग़ज़ल संग्रह
में बार-बार पहाड़ों के बारे में बतियाना और वह भी अलग-अलग ज़ावियों के साथ ऐसे उदाहरण
अगर आप को मिले भी होंगे तो बहुत कम ही मिले होंगे । उस में भी विशेष बात यह कि शायर
भी पहाड़ों वाला ही हो ।
भारतीय ज्ञान पीठ की लोकोदय ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित इस पुस्तक को पाने का पता