पहाड़ों पर जाना किसे
अच्छा नहीं लगता ? कौन है जिसे पहाड़ों से मुहब्बत नहीं है? पहाड़ों का हुस्न, पहाड़ों का पानी, पहाड़ों की चढ़ाई, पहाड़ों की उतराई, पहाड़ों की गर्मी, पहाड़ों की सर्दी, पहाड़ों का खाना, पहाड़ों के सरोकार ऐसे अनेक विषयों से आप अवश्य ही दो-चार हो चुके होंगे अब
तक । पहाड़ों पर अनेक कविताएँ, गीत, शेर
आदि भी पढे होंगे आप ने अब तक । परन्तु किसी एक ही काव्य संग्रह विशेष कर ग़ज़ल संग्रह
में बार-बार पहाड़ों के बारे में बतियाना और वह भी अलग-अलग ज़ावियों के साथ ऐसे उदाहरण
अगर आप को मिले भी होंगे तो बहुत कम ही मिले होंगे । उस में भी विशेष बात यह कि शायर
भी पहाड़ों वाला ही हो ।
आज की इस चर्चा में
हम स्वभाव से बहुत ही विनम्र और अध्ययन में बहुत ही गहरे शायर श्री द्विजेन्द्र द्विज
जी के हालिया रिलीज हुए ग़ज़ल-संग्रह “सदियों का सारांश “ की बात का रहे हैं ।
द्विज जी न केवल हिमाचली, उर्दू और
हिन्दी के बेहतरीन जानकार हैं बल्कि अंग्रेजी के भी उन चुनिन्दा जानकारों में आप का
शुमार होता है जो अंग्रेजी भाषा की बारीकियों पर साधिकार बात करते हैं । 10 अक्तूबर
1962 को इस धराधाम पर द्विज जी पधारे और अब तक उन्हें उनकी कृतियों के लिए अनेकानेक
सम्मान प्राप्त हो चुके हैं । “ ऐब पुराणा सीहस्से दा “ नाम से आप का हिमाचली ग़ज़ल संग्रह
क़ाफ़ी चर्चित हुआ है ।
विवेच्य ग़ज़ल-संग्रह
“ सदियों का सारांश “ में द्विज जी ने देवनागरी लिपि में अपनी उर्दू ग़ज़लों को संग्रहित
कर प्रस्तुत किया है । इस ग़ज़ल-संग्रह में शायर ने हिन्दी भाषा के लालित्य को भी बख़ूबी
इस्तेमाल किया है । उर्दू शायरी में जिन अशआर को सुना / पढ़ा और सराहा जाता रहा है, आइये पहले
ऐसे कुछ अशआर पढ़ते हैं
इन आँसुओं को सीने
में रखना मुहाल है
धारे निकल ही आते
हैं पत्थर को तोड़ के
ज़ुरअत करे, कहे तो कोई
आसमान से
पंछी कहाँ गये, जो न लौटे
उड़ान से
चलो मिलकर उजालों
के लिए दीपक जलाते हैं
अंधेरे में अकेले
बैठना अच्छा नहीं लगता
शिफ़ाख़ाने में तेरे
ऐ हकीम, इतनी तो राहत हो
न कम हो दर्द लेकिन
दर्द सहने की इजाज़त हो
वो आयी है तो चमन
मुँह बना के बैठा है
गयी बहार को रोयेगी
हर कली इक दिन
एक लमहे को उसको देखा
था
उम्र भर फिर उसी के
ख़्वाब आये
कोई निस्बत नहीं ज़मीं
से मियाँ
घर तुम्हारा है आसमान
में क्या
जो धोखा दे रहे थे
हर नज़र को
मैं आख़िर ऐसे मंज़र
देखता क्या
मशीन बन तो चुका हूँ
मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में
दिल भी कभी धड़कता था
द्विज जी ने रवायती
और जदीद दौनों तरह की शायरी की है । हिन्दी ग़ज़ल के नाम से मशहूर मगर वास्तव में दुष्यंत
कुमार की उर्दू शायरी का जो लबो-लहजा है वह भी द्विज जी के यहाँ भरपूर मात्रा में उपलब्ध
है । इस ग़ज़ल संग्रह में पहली दो ग़ज़लें ऐसी हैं जिन की रदीफ़ ही “पहाड़” है । इन दौनों
ग़ज़लों में और दीगर ग़ज़लों में भी जहाँ-जहाँ मौक़ा मिला है शायर ने पहाड़ों से अपने पवित्र-प्रेम
को बड़ी ही शिद्दत से बयान किया है । आइये अब उन अशआर को पढ़ते हैं जो मुझे इस ग़ज़ल संग्रह
का वैशिष्ठ्य प्रतीत हुए :
ख़ुद भले ही झेली हो
त्रासदी पहाड़ों ने
बस्तियों को दी लेकिन
हर ख़ुशी पहाड़ों ने
भाता अगर है आप को
जीना पहाड़ का
लेकर कहाँ से आयेंगे
सीना पहाड़ का
जो देखना है तुझको
भी जीना पहाड़ का
सर्दी में आ के काट
महीना पहाड़ का
इमदाद हो कोई कि इशारा
वतन का हो
आता है काम ख़ून-पसीना
पहाड़ का
बस आसमान सुने तो
इन्हें सुने यारो
पहाड़ की भी पहाड़ों
सी ही व्यथाएँ हैं
न जाने कितनी सुरंगें
निकल गयीं उस से
खड़ा पहाड़ भी तो आँख
का ही धोखा था
रू-ब-रू हमसे हमेशा
रहा है हर मौसम
हम पहाड़ों का भी किरदार
सम्हाले हुए हैं
फिर आज धूप टहलती
दिखी पहाड़ों पर
फिर आज दीप उमीदों
के हो गये रौशन
पर्वतों को चीर कर
जिस दम नदी आगे बढ़ी
दूर उसका फिर किनारे
से किनारा हो गया
कुछ देर डरायेगा पहाड़ों
का कुहासा
फिर इस में नज़र आयेगी
सूरज की किरन भी
आगे बढ़ने पै मिलेंगे
तुझे मंज़र भी हसीन
इन पहाड़ों के कुहासे
को कुहासा न समझ
द्विज जी ने अपनी
शायरी में सादगी को वरीयता प्रदान की है । हालाँकि व्यंजनात्मकता और लालित्य से इन्होंने
परहेज़ नहीं किया है मगर जो देखा सो लिखा पर इनका अधिक ज़ोर रहा है और आज के युग में
ऐसे साहित्य को भी रेखांकित किया जा रहा है । द्विज जी को इस ग़ज़ल संग्रह के लिए बहुत-बहुत
बधाई ।
भारतीय ज्ञान पीठ
की लोकोदय ग्रंथमाला के अंतर्गत प्रकाशित इस पुस्तक को पाने का पता
भारतीय ज्ञानपीठ
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार 🙏🌺
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