जीवन तो है खेल तमाशा , चालाकी, नादानी है
तब तक ज़िंदा रहते हैं हम जब तक इक हैरानी है
आग हवा और मिटटी पानी मिल कर कैसे रहते हैं
देख के खुद को हैराँ हूँ मैं , जैसे ख़्वाब कहानी है
इस मंज़र को आखिर क्यूँ मैं पहरों तकता रहता हूँ
ऊपर ठहरी चट्टानें हैं , तह में बहता पानी है
मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी
देखो ! इस तस्वीर को देखो ! ये तस्वीर पुरानी है
आलम ! मुझको बीमारी है नींद में चलते रहने की
रातों में भी कब रुकता है मुझ में जो सैलानी है
तब तक ज़िंदा रहते हैं हम जब तक इक हैरानी है
आग हवा और मिटटी पानी मिल कर कैसे रहते हैं
देख के खुद को हैराँ हूँ मैं , जैसे ख़्वाब कहानी है
इस मंज़र को आखिर क्यूँ मैं पहरों तकता रहता हूँ
ऊपर ठहरी चट्टानें हैं , तह में बहता पानी है
मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी
देखो ! इस तस्वीर को देखो ! ये तस्वीर पुरानी है
आलम ! मुझको बीमारी है नींद में चलते रहने की
रातों में भी कब रुकता है मुझ में जो सैलानी है
:- आलम ख़ुर्शीद
बहुत सुन्दर..
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आग हवा और मिट्टी पानी मिल कर कैसे रहते हैं
देख के खुद को हैरां हूं मैं , जैसे ख़्वाब कहानी है
वाह वाह !
आदरणीय आलम ख़ुर्शीद साहब को इस सहज रचना के लिए
बहुत बहुत बधाई !
नवीन भाई आपको इस सुंदर रचना की प्रस्तुति के लिए
बहुत बहुत साधुवाद !
हार्दिक शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.
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