कुछ मुश्किलें, कुछ उलझनें, कुछ खामियाँ भी हैं हुज़ूर
आवाज़ है आवाज़ पर ख़ामोशियाँ भी हैं हुज़ूर
अपनी बपौती जान कर, जंगल नहीं काटें कोई
इन जंगलों में, जन्तुओं की बस्तियाँ भी हैं हुज़ूर
जिस सोच ने, तुहफ़े दिये हैं, 'ताज़महलों' से हमें
उस सोच में, "क़ारीगरों की उँगलियाँ" भी हैं हुज़ूर
ये ज़िन्दगी अन्धा कुँआ है, जानते हैं सब 'नवीन'
पर इस कुँए में, हौसलों की रस्सियाँ भी हैं हुज़ूर
बहरे रजज मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़ इलुन x 4
2212 x 4
बहरे रजज मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़ इलुन x 4
2212 x 4
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें