SP2/3/2 खुर्शीद खैराड़ी + सत्य नारायण सिंह

नमस्कार।

पिछली पोस्ट में उठी शंका जो कि पाद-संयोजन से सम्बन्धित है, का समाधान एक अलग पोस्ट के ज़रिये किया गया है। उस पोस्ट को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

वर्तमान आयोजन की पहली पोस्ट को लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिला है। दूसरी पोस्ट भी अपने फ्लेवर के साथ आप के समक्ष आ रही है। इस पोस्ट में हम महावीर भाई उर्फ़ खुर्शीद खैराड़ी के साथ-साथ मुम्बई निवासी भाई सत्यनारायण सिंह जी के छंदों को भी पढ़ेंगे। इस आयोजन से हम रचनाधर्मियों के मोबाइल नम्बर देना शुरू कर रहे हैं ताकि उन के प्रशंसक उन से सीधे संवाद कर सकें। जिन-जिन साथियों को अपने मोबाइल नम्बर छपने में दिक्कत न हो वह अपना-अपना मोबाइल नम्बर मेल के साथ भेजने की कृपा करें।  

तो आइये शुरुआत करते हैं भाई खुर्शीद खैराड़ी जी [9413408422] के छंदों के साथ

मैं अपनी ही खोज में ,भटक रहा दिन रात
ख़ुद, ख़ुद को मिलता नहींसुलझे कैसे बात?
सुलझे कैसे बात? सामने कैसे आऊँ?
ख़ुद अपनी ही ओट लिए ख़ुद से छुप जाऊँ।
युगों-युगों से खेल रहा हूँ खेल अनोखा
ख़ुद से ही हर बार खा रहा हूँ ख़ुद धोखा   
   
हम अपने ही देश मेंपरदेसी हैं आज
आयातित हर चीज परकरते कितना नाज
करते कितना नाज सभ्यता बेगानी पर
भूल गये हैं देश यही था देवों का घर
भारत माँ के लाल फिरंगी बनकर डोलें
निज गौरव को भूल विदेशी बानी बोलें

तुम चाहो तो देश का ,कर दो खस्ताहाल
चाहो तो श्रमजल बहा ,ऊँचा करदो भाल
ऊँचा करदो भालपुरातन यश लौटा दो
जागो भारत भाग्य विधाता भाग्य जगा दो
ख़ुद से यूँ अनजानहाशिए पे रहकर गुम
कब तक यूँ बेहोश रहोगे औसत जन तुम  ? 

इस मञ्च के पाठक सुधि-जन हैं और हर पंक्ति की मीमांसा अच्छी तरह कर सकते हैं। खुर्शीद भाई ने छंदों के परिमार्जन हेतु सतत प्रयास किया और परिणाम हमारे सामने है। दरअसल जिस तरह हम नर्सरी से स्नातक या स्नातकोत्तर का सफ़र तय करते हैं उसी तरह छंद-अभ्यास भी नित-नयी बातें सीखने के लिये प्रेरित करता है। हमें ख़ुशी है कि महावीर जी ने मञ्च के निवेदन पर अपने छंदों कों बार-बार बदला। सरल भाषा, सफल संवाद और तर्कपूर्ण संदेश इन छंदों की विशेषताएँ हैं। मञ्च को उम्मीद है कि अगली बार हमें इन से और बेहतर मिलेगा। औसत-जन के लिये विशेष बधाई।  

इस पोस्ट के अगले रचनाधर्मी हैं भाई सत्य नारायण जी [9768336346]

मैं  के चिंतन से हुआ, आत्म बोध का ज्ञान।
उस अविनाशी ब्रम्ह की, मैं  चेतन संतान।।
मैं चेतन संतान अंश उस मूल रूप का 
सहज भाव से ध्यान धरूँ मैं  उस अनूप का।।
समझाते शुचि ज्ञान सहज  हमको योगेश्वर।
शाश्वत आत्मा किन्तु मनुज का तन है नश्वर।।

चेतन = आत्मा

हम से उर में जागतेशुभ सहकारी भाव।
अहम भाव जो नष्ट कर, भरते हिय के घाव।।
भरते हिय के घाव अहम का लेश न रहता 
मिट जाता अभिमान  वहम भी शेष न रहता।।
सदियों से यह बात सनातन चलते आई 
तुम’ अरु ‘मैं’ का योग सदा ‘हम’ होता भाई।। 

तुम कारक है द्वेष का, दर्शाता पार्थक्य ।
होते आँखें  चार  ही,  दूर हुआ पार्थक्य ।।
दूर हुआ पार्थक्य, बात कैसे समझाऊँ।
जित जित जाऊँ परछाईं सी तुम’ को पाऊँ ।।
दर्शन की मन चाह मिलो तो आँख चुराऊँ ।
सरसे तुम’  से प्रेम बिना तुम’  मैं अकुलाऊँ।।

पार्थक्य पृथकता या अलगाव का भाव

साहित्य की सफलता इसी में है कि जितने रचनाधर्मी हों उतनी तरह की रचनाएँ पढ़ने को मिलें। हर व्यक्ति के अपने अनुभव और अनुभूतियाँ होती हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की विविध अभिव्यक्तियों को पढ़ना ही पाठक या श्रोता का उद्देश्य होता है। गायक किशोर कुमार की हयात के दौरान तथा बाद में भी बहुतों ने उन की नकल में गाने की कोशिश की मगर क्षणिक सफलता के बाद असफल हो गये। हमें अपनी मूल अभिव्यक्ति के साथ आगे बढ़ना होता है। परन्तु मूल अभिव्यक्ति का मतलब मूल धारा से बिलगना नहीं हो सकता। मूल धारा मतलब “सरल भाषा, सफल संवाद और तर्कपूर्ण संदेश

तो साथियो आप आनन्द लीजियेगा इन छंदों का, उत्साह वर्धन कीजियेगा अपने साथियों का और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।


नमस्कार 

छंद आधारित काव्य में पाद-संयोजन

पिछली पोस्ट में कल्पना जी के एक छंद की एक पंक्ति

उन शूलों के साथ बाग़ में रहते हैं हम

पर एक सुझाव आया कि क्यूँ न इसे “उन शूलों के साथ रहते हैं बाग़ में हम” की तरह कहा जाये? मञ्च आभारी है कि एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिये संकेत दिया गया। यह पाद-संयोजन का विषय है।

थोड़ी तेज़ रफ़्तार में चलते-चलते अगर हम अचानक मुड़ जाएँ, साइकिल चलाते-चलाते अगर हम साइकिल का हेण्डल अचानक ही एक दिशा में मोड दें तो हम लड़खड़ा जाते हैं। सामान्य चलने पर ऐसा कुछ नहीं होता। यह सारी बातें मानव व्यवहार का अङ्ग हैं। ठीक इसी तरह जब हम सामान्य बातचीत करते हैं तो शब्दों के संयोजन तथा व्याकरण वग़ैरह पर ध्यान नहीं देते मगर जब यही बातचीत पद्य का स्वरूप धारण कर लेती है तो शिल्प सम्बन्धित बातें महत्वपूर्ण हो जाती हैं। पाद संयोजन उन बातों में से एक है।

पाद क्या होता है?

शब्दों का वह समूह जिन से किसी छंद का एक चरण या उस चरण का यति-पर्यन्त एक अंश बनता है, पाद कहलाता है।  यथा, विवेच्य पंक्ति में 'उन शूलों के साथ' तथा 'बाग़ में रहते हैं हम' दो पाद हुये। कुछ विद्वान इसे यति के साथ एक पाद भी मानते रहे हैं। अपने लिये ये दो पाद वाला विषय है। 

पाद-संयोजन क्या है ?

एकल – द्विकल – त्रिकल –चौकल –पञ्चकल वग़ैरह शब्दों को एक पाद में इस तरह गूँथना कि बात एकदम सरलता से कही जा सके, पाद-संयोजन कहलाता है।

एकल – द्विकल – त्रिकल वग़ैरह क्या होता है ?

एकल

जिस शब्द में एक मात्रा भार या लघु-वर्ण ही हो, उसे एकल कहा जाता है, यथा –
कि

द्विकल

दो मात्रा भार या गुरु वर्ण, यथा –
मैं
का
वह
व्रत [व तथा र सन्युक्ताक्षर हैं]
कृष [क तथा र सन्युक्ताक्षर हैं]
स्थिति [स और थ सन्युक्ताक्षर हैं]

त्रिकल

सनम
शर्म
भला
लाभ
द्रुपद

चतुष्कल / चौकल

शबनम
शबाना
शाना
सलमा
साजन
द्रौपदि
उदार

पञ्चकल

द्रौपदी
हमसफ़र
बेदख़ल
अलगाव
फुलझड़ी

षटकल

याराना
दावानल
बारदान
उलाहना
मोरपखा
अभिव्यक्ति

यहाँ ‘अभिव्यक्ति’ शब्द को सोद्देश्य लिया गया है। ‘अभि’ द्विकल है और ‘व्यक्ति’ त्रिकल इस तरह तो यह द्विकल + त्रिकल = पञ्चकल हुआ मगर चूँकि बोलते वक़्त हम ‘अभि’ के बाद ‘व्यक्ति’ के ‘व’ पर अधिक भार देते हैं इस लिये यह त्रिकल+त्रिकल यानि षट्कल माना जायेगा। हालाङ्कि पिङ्गलाचार्य जी ने ने कवि को इसे उच्चारण के आधार पर पञ्चकल मानने की छूट भी दे रखी है। 

इसी तरह सप्तकल , अष्टकल वग़ैरह होते हैं।

रोला छन्द के चरण के पूर्वार्ध में ग्यारहवीं मात्रा पर लघु अक्षर के साथ यति होती है। मतलब वहाँ या तो त्रिकल [सरल, शर्म, लाभ, शह्र टाइप - शहर, भला या सनम टाइप नहीं] आएगा या एकल [कि] या चौकल [उदार] या पञ्च्कल [अलगाव] या ऐसा ही कुछ और। त्रिकल के बाद का शब्द त्रिकल होने पर ही उच्चारण सटीक हो पाता है। अब उस उदाहरण को दौनों तरह से बोल कर देखा जाये :-

मूल पंक्ति – “उन शूलों के साथ बाग़ में रहते हैं हम”
सुझाव – “उन शूलों के साथ रहते हैं बाग़ में हम”

हम समझ सकते हैं कि ओरिजिनल पंक्ति बोलने में कोई रुकावट नहीं होती जब कि सुझाव वाली पंक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है। हाँ, अगर हम चाहें तो मूल पंक्ति में बाग़ की जगह चमन [उन शूलों के साथ चमन में रहते हैं हम] का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इस स्थिति में भी त्रिकल के बाद त्रिकल ही आता है। रोला छंद में पाद संयोजन के लिये कुछ और उदाहरण:- 

लाला लाला ला लला ला लाला लाला

इस उपरोक्त सूत्र को ध्यान में रखें। यहाँ पूर्वार्ध की ग्यारहवीं मात्रा का लघु जोना अनिवार्य है। अन्य शब्दों को पाद संयोजन की सहायता लेते हुये अलग-अलग तरह से सेट किया जा सकता है। यथा:- 

लला लालला ला लला ला लाला लाला
लालल लाला ला लाल ला ललाल लाला
वग़ैरह वग़ैरह। 

पंक्ति जितनी अधिक सीधी यानि 'लाला लाला ला लला ला लाला लाला' के अधिकतम निकट रहेगी, उतना ही बोलने में सरलता का अनुभव होगा। बादबाकी प्रयोग कवि के हाथ में है। ध्यान रहे कि पाद-संयोजन करते वक़्त अपने मुख के उच्चारण का नहीं बल्कि जन-सामान्य के मुख के उच्चारण का ध्यान रखा जाता है। 

पिङ्गल में इस तरह की और भी बहुत सारी जानकारियाँ दी हुई हैं। सारी जानकारियों को प्रस्तुत करना थोड़ा मुश्किल और अव्यावहारिक भी है; इसलिए समय-समय पर थोड़ी-थोड़ी जानकारियाँ पटल पर आती रहेंगी। आशा करते हैं कि शंका का समाधान हो गया होगा। यदि फिर भी कुछ शंका शेष हो तो अवश्य ही टिप्पणी या मेल या फोन के ज़रिये बात की जा सकती है।

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चरण क्या होता है ?

एक छंद को अमुक भागों में विभक्त किया जाता है, उन भागों को चरण कहते हैं। दोहा, सोरठा, चौपाई, हरिगीतिका, गीतिका, घनाक्षरी, ललित, ताटंक आदि सभी छंदों में चार चरण होते हैं। दोहा और सोरठा में प्रत्येक चरण के अंत में ही यति होती है मगर रोला, हरिगीतिका, ताटंक आदि जैसे छंदों में प्रत्येक चरण के बीच में कहीं यति की व्यवस्था भी होती है। छन्द का कोई एक चरण, यति व्यवस्था के द्वारा जिन दो भागों में विभक्त हुआ उन दो भागों को पाद कहा जाता है। 

उदाहरण 

हे पद्म आसन पर विराजित, मातु वीणा वादिनी

उपरोक्त पंक्ति हरिगीतिका छन्द का एक चरण है
यह चरण यति के साथ दो भागों में विभक्त है यथा 

हे पद्म आसन पर विराजित, = 16 मात्रा, विराजित कहने के साथ ही हम साँस लेते हैं, यही यति है 

मातु वीणा वादिनी = 12 मात्रा 

हरिगीतिका छन्द के एक चरण के 16 मात्रा और 12 मात्रा वाले दो भाग, दो पाद हुये। 

ज़र्रे-ज़र्रे में मुहब्बत भर रही है - नवीन

ज़र्रे-ज़र्रे में मुहब्बत भर रही है। 
क्या नज़र है और क्या जादूगरी है॥

प्यार के पट खोल कर देखा तो जाना। 
दिल हिमालय, ख़ामुशी गंगा नदी है॥

हम तो ख़ुशबू के दीवाने हैं बिरादर। 
जो नहीं दिखती वही तो ज़िन्दगी है॥

किस क़दर उलझा दिया है बन्दगी ने। 
उस को पाएँ तो इबादत छूटती है॥

ये अँधेरे ढूँढ ही लेते हैं हम को। 
इन की आँखों में ग़ज़ब की रौशनी है॥

एक दिन हम ने गटक डाले थे आँसू। 
आज तक दिल में तरावट हो रही है॥







:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन

2122 2122 2122

SP2/3/1 हम वो नन्हें फूल हैं, जिनसे महके बाग़ - कल्पना रामानी

नमस्कार

घोषणा के बाद हफ़्ते दस दिन का समय ज़ियादा नहीं बल्कि सामान्य है। इस बार के ‘शब्द’ दिखने में अवश्य ही आसान हैं, परन्तु ये शब्द हमारी मेधा को परखेंगे इस बार। जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे रवि और जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे अनुभवी – इस बार के आयोजन में इस उक्ति को चरितार्थ होते देखने का मौक़ा मिल भी सकता है। हमारे समाज की महिलाएँ बढ़ चढ़ कर साहित्य सेवार्थ स्वयं को उद्यत करर्ती रही हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता के सिद्धान्त की गरिमा को बनाये रखते हुये इस बार के आयोजन का श्री गणेश भी आदरणीया कल्पना रामानी जी [7498842072] के छंदों के साथ करते हैं।

मैं नारी अबला नहीं, बल्कि लचकती डाल।
बोलो तो नर-जूथ से, पूछूँ एक सवाल?
पूछूँ एक सवाल, उसे क्यूँ समझा कमतर।
जिस के उर में व्योम और क़दमों में सागर।
परिजन प्रेम-ममत्व-मोह की मारी हूँ मैं।
मेरा बल परिवार, न अबला नारी हूँ मैं॥

तुम हो इस ब्रह्माण्ड के, सर्व-श्रेष्ठ इन्सान।
पर, तब तक ही, जब तलक, ग्रसे नहीं शैतान॥
ग्रसे नहीं शैतान, समझिये इस का आशय।
घोर गर्त की ओर अन्यथा जाना है तय।
भ्रष्ट-भोग के चक्र - व्यूह में क्यूँ होना गुम?
सर्व-श्रेष्ठ इंसान, जब कि बन कर जनमे तुम॥

हम वो नन्हें फूल हैं, जिनसे महके बाग़।
इस कलुषित संसार में, अब तक हैं बेदाग़॥
अब तक हैं बेदाग़, गन्ध का ध्वज फहराएँ।
यत्र-तत्र सर्वत्र, ऐक्य का अलख जगाएँ।
प्राणिमात्र को जो कि बाँटते रहते हैं ग़म।
उन शूलों के साथ, बाग़ में रहते हैं हम॥

आदरणीया कल्पना जी आप की भावनाओं ने मुझे अभिभूत कर दिया है। आप ने इन तीन शब्द ‘मैं – हम – तुम’ के साथ वाक़ई पूरा-पूरा न्याय किया है। एक अनुभवी माँ की उक्तियाँ मानव समाज के लिये बहुत ही उपयोगी साबित होंगी इस मनोकामना के साथ मञ्च आप को सादर प्रणाम करता है।

जिस विद्वान को अपने छंदों पर सम्पादन नहीं चाहिये, वह मेल में लिख दे। पिछले अनुभवों के आधार पर एक बार फिर लिखना पड़ रहा है कि यह मञ्च ख़बरों में बने रहने के लिये ऊल-जुलूल बातों की बजाय अच्छी रचनाओं को प्रस्तुत करने का पक्षधर है। इस बार भी यदि किसी ने माहौल बिगाड़ने की कोशिश की तो उस की “अच्छी वाली टिप्पणियों को भी” फ़ौरन से पेश्तर हटा दिया जायेगा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का पूर्ण सम्मान एवं स्वागत है परन्तु इस की आड़ में धींगामुश्ती हरगिज़ अलाउड नहीं।

सरसुति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यों ज्यों खरचौ त्यों बढ़ै, बिन खरचें घट जात।

छन्द अचानक ही व्यवहार से बिलगने लगे तो हम ने इस का अध्ययन किया। उसी प्रक्रिया में ग़ज़ल को सीखने की कोशिश भी की। विभिन्न पुस्तकों तथा विद्वानों से जो सीखने को मिल सका तथा जो कुछ थोड़ा-बहुत अपने भेजे में आ सका; उसे छन्द-साहित्य के हित में जिज्ञासुओं से शेयर करना ज़रूरी लग रहा है। हमने  अभी तक कोई पुस्तक नहीं लिखी / छपवाई है। हमें लगता है कि पुस्तक अगर एक व्यक्ति को कवर करती है तो शायद अन्तर्जाल क़रीब सौ लोगों को कवर करता है। हमने अपने ब्लॉग को ही एक पुस्तक समझ रखा है। आप लोगों को पसन्द आया तो हम भविष्य में भी इन बातों को बतियाते रहेंगे। हमारे अनुसार छन्द लिखते वक़्त इन बातों को ध्यान में रखना अच्छा रहता है:- 

1.      सब से पहले अंतिम पंक्ति / चरण को लिखिएगा
2.   ध्यान रहे यह अंतिम पंक्ति / चरण सारे छन्द का सार स्वरूप हो और उस में PUNCH ज़रूर होना चाहिये। PUNCH यानि जिसे पढ़ते /सुनते ही बंदे के मुँह से वाह निकले बिना रह न सके। इस पोस्ट के तीसरे छन्द की अंतिम दो पंक्तियों को एकाधिक बार पढ़ कर देखियेगा। जिज्ञासुओं के हितार्थ आदरणीय कलपना रामानी जी के कहने पर इन छंदों में किंचित बदलाव भी किये गये हैं और यह बात कल्पना जी के कहने पर लिखी जा रही है ताकि किसी को भ्रम न हो। 
3.      कोई भी बात कहें तो उस बात के पहले और बाद में उन बातों को अवश्य रखें [या ऐसी बातें सामान्य व्यवहार के कारण सर्व-ज्ञात भी हो सकती हैं] जिन से एक भरपूर कथानक बन कर उभरता हो।
4.      अगर आप अपनी तरफ़ से कोई नई बात कहना चाहते हैं तो उस के पक्ष में आवश्यक तर्क छन्द में ही अवश्य रखें। या तो ‘May Be’ टाइप बातें भी कर सकते हैं। आय मीन Judgemental होने की बजाय ‘शायद ऐसा हो’, ‘ऐसा लगता है’, ‘क्या ऐसा है’ टाइप बातें भी कह सकते हैं।
5.      बुद्धि के बिना तो कुछ भी मुमकिन नहीं मगर पद्य में हृदय का प्रभाव दूरगामी सिद्ध होता है।
                        ग़म-ए-दौराँ [दौर / समय का दुख] की हम सारे हिमायत करते हैं लेकिन।
                        ग़म-ए-जानाँ [महबूब का दुख] ज़ियादातर सभी के हाफिज़े [Memory] में है॥

कहने की आवश्यकता नहीं कि हम लोगों को अपनी टिप्पणियों से रचनाधर्मियों का उत्साह वर्धन तथा मार्गदर्शन करते रहना है। उत्साह वर्धन तथा मार्गदर्शन का व्यापक अर्थ रिसेंटली +प्रवीण पाण्डेय  जी ने अपनी एक पोस्ट में बतियाया है। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद J आप चाहें तो उस पोस्ट को भी पढ़ सकते हैं।

तो आप अपनी राय दीजिये इस पोस्ट के बारे में और मैं आज्ञा लेता हूँ अगली पोस्ट के लिये।


नमस्कार

गाय के दोहे - नवीन

होता है जिस का हृदय, दया-प्रेम का धाम
उस को देते हैं किशन, गौशाला का काम

ऋषि-मुनियों ने सूत से, पूछा - क्या है श्रेष्ठ
फ़ौरन बोले सूत जी, गौ सेवा है श्रेष्ठ

कौन काम लाभार्थ है कौन काम परमार्थ
गौ-पालन लाभार्थ है, गौ-सेवा परमार्थ

उस माँ को शत-शत नमन, वन्दन बारम्बार
गौ सेवा करता रहे, जिस का घर-परिवार

ऐसे मनुआ श्रेष्ठ हैं, उन को कहो कुलीन
रहते हैं जो हर घड़ी गौ सेवा में लीन

इक दिन बस यूँ ही किया, हम ने गूगल सर्च
शौक़-मौज़ से कम लगा, एक गाय का खर्च

यदि चहरे पर चाहिये, रूप और लालित्य
दही, दूध, गौ-मूत्र का, सेवन करिये नित्य

सीधे दिल तक जायगी अमरित रस की धार
गैया के थन से कभी होंठ लगा तो यार

खान साब! ये हम नहीं, कहती है कुरआन
गौमाता के पेट में है दौलत की खान

समझा है यूनान ने, लगा-लगा कर जोड़
खाओगे गौ-माँस तो, बढ़ सकती है कोढ़

इंगलिश में पढ़ कर मुझे, ज्ञात हुआ ये ज्ञान
गौ गोबर अरु सींग से, फ़स्ल बने गुणवान

एक बार यदि मान लें, मार्टिन का प्रारूप
गौ-गोबर से, तेल के, भर सकते हैं, कूप

अमरीका, इङ्ग्लेंड भी, करने लगे बखान
अब तो गौ के दूध की महिमा को पहिचान

कोई भी संसार में, करता नहीं विरोध
अपना आयुर्वेद है, युगों युगों का शोध

चलो यहीं पे रोक दें, ये पगलौट जुनून
एलोपैथिक मेडिसिन, देती नहीं सुकून

अगर गाय की पीठ पर, फेरे कोई हाथ
हो सकता है छोड़ दे, बी. पी. उस का साथ

गैया खाये साल में जितने का आहार
उस से दस गुण मोल के देती है उपहार

बछिया होती है अगर, मिलें दूध के दाम
बछड़ा भी हो जाय तो, करे खेत का काम

दुद्दू पी कर, भेंस के - पड्डा जी अलसात
लेकिन बछड़ा गाय का, करता है उत्पात

यदि पैसे ही से तुझे, समझ पड़े है मोल
तो भैया फिर दूध से, मट्ठा तक तू तोल

:- नवीन सी. चतुर्वेदी






YouTube Link :-
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काका हाथरसी की रचनाएँ

नर्क का तर्क

स्वर्ग-नर्क के बीच की चटख गई दीवार ।    
कौन कराए रिपेयर इस पर थी तकरार ॥
इस पर थी तकरारस्वर्गवासी थे सहमत ।  
आधा-आधा खर्चा दो हो जाए मरम्मत ॥
नर्केश्वर ने कहा – गलत है नीति तुम्हारी ।  
रंचमात्र भी नहीं हमारी जिम्मेदारी ॥

जिम्मेदारी से बचें कर्महीन डरपोक ।
मान जाउ नहिं कोर्ट में दावा देंगे ठोंक ॥
दावा देंगे ठोंक नरक मेनेजर बोले ।          
स्वर्गलोक के नर नारी होते हैं भोले ॥
मान लिया दावा तो आप ज़रूर करोगे ।       
सब वकील हैं यहाँकेस किस तरह लड़ोगे ॥

चाँद से लोन

वित्तमंत्री से मिलेकाका कवि अनजान ।     
प्रश्न किया क्या चाँद पर रहते हैं इंसान ॥
रहते हैं इंसानमारकर एक ठहाका ।
कहने लगे कि तुम बिलकुल बुद्धू हो काका ॥
अगर वहाँ मानव रहतेहम चुप रह जाते ।    
अब तक सौ दो सौ करोड़ कर्जा ले आते ॥

मोटी पत्नी

ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल
किसी किसी के भाग्य में लिखी ठोस फुटबॉल
लिखी ठोस फुटबॉल, न करती घर का धन्धा
आठ बज रहे बिस्तर पर ही पड़ा पुलन्दा
कह काका कविराय खाय वह ठूसम ठूसा
यदि ऊपर गिर पड़े बना दे पति का भूसा

भोलू तेली का ब्याह

भोलू तेली गाँव मेंकरै तेल की सेल
गली-गली फेरी करै, 'तेल लेऊ जी तेल'
'तेल लेऊ जी तेल', कड़कड़ी ऐसी बोली
बिजुरी तड़कै अथवा छूट रही हो गोली
कहँ काका कवि कछुक दिना सन्नाटौ छायौ
एक साल तक तेली नहीं गाँव में आयो

मिल्यौ अचानक एक दिनमरियल बा की चाल
काया ढीली पिलपिलीपिचके दोऊ गाल
पिचके दोऊ गालगैल में धक्का खावै
'तेल लेऊ जी तेल', बकरिया सौ मिमियावै
पूछी हमने जे कहा हाल है गयौ तेरौ
भोलू बोलोकाका ब्याह है गयौ मेरौ

खटमल मच्छर युद्ध

'काकावेटिंग रूम में फँसे देहरादून
नींद न आई रात भरमच्छर चूसें खून
मच्छर चूसें खूनदेह घायल कर डाली         
हमें उड़ा ले ज़ाने की योजना बना ली
किंतु बच गए कैसेयह बतलाएँ तुमको       
नीचे खटमल जी ने पकड़ रखा था हमको

हुई विकट रस्साकशीथके नहीं रणधीर
ऊपर मच्छर खींचते नीचे खटमल वीर
नीचे खटमल वीरजान संकट में आई
घिघियाए हम- "जै जै जै हनुमान गुसाईं
पंजाबी सरदार एक बोला चिल्लाके
त्व्हाणूँ पजन करना होवे तो करो बाहर जाके