5 जनवरी 2014

SP2/3/1 हम वो नन्हें फूल हैं, जिनसे महके बाग़ - कल्पना रामानी

नमस्कार

घोषणा के बाद हफ़्ते दस दिन का समय ज़ियादा नहीं बल्कि सामान्य है। इस बार के ‘शब्द’ दिखने में अवश्य ही आसान हैं, परन्तु ये शब्द हमारी मेधा को परखेंगे इस बार। जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे रवि और जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे अनुभवी – इस बार के आयोजन में इस उक्ति को चरितार्थ होते देखने का मौक़ा मिल भी सकता है। हमारे समाज की महिलाएँ बढ़ चढ़ कर साहित्य सेवार्थ स्वयं को उद्यत करर्ती रही हैं। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता के सिद्धान्त की गरिमा को बनाये रखते हुये इस बार के आयोजन का श्री गणेश भी आदरणीया कल्पना रामानी जी [7498842072] के छंदों के साथ करते हैं।

मैं नारी अबला नहीं, बल्कि लचकती डाल।
बोलो तो नर-जूथ से, पूछूँ एक सवाल?
पूछूँ एक सवाल, उसे क्यूँ समझा कमतर।
जिस के उर में व्योम और क़दमों में सागर।
परिजन प्रेम-ममत्व-मोह की मारी हूँ मैं।
मेरा बल परिवार, न अबला नारी हूँ मैं॥

तुम हो इस ब्रह्माण्ड के, सर्व-श्रेष्ठ इन्सान।
पर, तब तक ही, जब तलक, ग्रसे नहीं शैतान॥
ग्रसे नहीं शैतान, समझिये इस का आशय।
घोर गर्त की ओर अन्यथा जाना है तय।
भ्रष्ट-भोग के चक्र - व्यूह में क्यूँ होना गुम?
सर्व-श्रेष्ठ इंसान, जब कि बन कर जनमे तुम॥

हम वो नन्हें फूल हैं, जिनसे महके बाग़।
इस कलुषित संसार में, अब तक हैं बेदाग़॥
अब तक हैं बेदाग़, गन्ध का ध्वज फहराएँ।
यत्र-तत्र सर्वत्र, ऐक्य का अलख जगाएँ।
प्राणिमात्र को जो कि बाँटते रहते हैं ग़म।
उन शूलों के साथ, बाग़ में रहते हैं हम॥

आदरणीया कल्पना जी आप की भावनाओं ने मुझे अभिभूत कर दिया है। आप ने इन तीन शब्द ‘मैं – हम – तुम’ के साथ वाक़ई पूरा-पूरा न्याय किया है। एक अनुभवी माँ की उक्तियाँ मानव समाज के लिये बहुत ही उपयोगी साबित होंगी इस मनोकामना के साथ मञ्च आप को सादर प्रणाम करता है।

जिस विद्वान को अपने छंदों पर सम्पादन नहीं चाहिये, वह मेल में लिख दे। पिछले अनुभवों के आधार पर एक बार फिर लिखना पड़ रहा है कि यह मञ्च ख़बरों में बने रहने के लिये ऊल-जुलूल बातों की बजाय अच्छी रचनाओं को प्रस्तुत करने का पक्षधर है। इस बार भी यदि किसी ने माहौल बिगाड़ने की कोशिश की तो उस की “अच्छी वाली टिप्पणियों को भी” फ़ौरन से पेश्तर हटा दिया जायेगा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का पूर्ण सम्मान एवं स्वागत है परन्तु इस की आड़ में धींगामुश्ती हरगिज़ अलाउड नहीं।

सरसुति के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यों ज्यों खरचौ त्यों बढ़ै, बिन खरचें घट जात।

छन्द अचानक ही व्यवहार से बिलगने लगे तो हम ने इस का अध्ययन किया। उसी प्रक्रिया में ग़ज़ल को सीखने की कोशिश भी की। विभिन्न पुस्तकों तथा विद्वानों से जो सीखने को मिल सका तथा जो कुछ थोड़ा-बहुत अपने भेजे में आ सका; उसे छन्द-साहित्य के हित में जिज्ञासुओं से शेयर करना ज़रूरी लग रहा है। हमने  अभी तक कोई पुस्तक नहीं लिखी / छपवाई है। हमें लगता है कि पुस्तक अगर एक व्यक्ति को कवर करती है तो शायद अन्तर्जाल क़रीब सौ लोगों को कवर करता है। हमने अपने ब्लॉग को ही एक पुस्तक समझ रखा है। आप लोगों को पसन्द आया तो हम भविष्य में भी इन बातों को बतियाते रहेंगे। हमारे अनुसार छन्द लिखते वक़्त इन बातों को ध्यान में रखना अच्छा रहता है:- 

1.      सब से पहले अंतिम पंक्ति / चरण को लिखिएगा
2.   ध्यान रहे यह अंतिम पंक्ति / चरण सारे छन्द का सार स्वरूप हो और उस में PUNCH ज़रूर होना चाहिये। PUNCH यानि जिसे पढ़ते /सुनते ही बंदे के मुँह से वाह निकले बिना रह न सके। इस पोस्ट के तीसरे छन्द की अंतिम दो पंक्तियों को एकाधिक बार पढ़ कर देखियेगा। जिज्ञासुओं के हितार्थ आदरणीय कलपना रामानी जी के कहने पर इन छंदों में किंचित बदलाव भी किये गये हैं और यह बात कल्पना जी के कहने पर लिखी जा रही है ताकि किसी को भ्रम न हो। 
3.      कोई भी बात कहें तो उस बात के पहले और बाद में उन बातों को अवश्य रखें [या ऐसी बातें सामान्य व्यवहार के कारण सर्व-ज्ञात भी हो सकती हैं] जिन से एक भरपूर कथानक बन कर उभरता हो।
4.      अगर आप अपनी तरफ़ से कोई नई बात कहना चाहते हैं तो उस के पक्ष में आवश्यक तर्क छन्द में ही अवश्य रखें। या तो ‘May Be’ टाइप बातें भी कर सकते हैं। आय मीन Judgemental होने की बजाय ‘शायद ऐसा हो’, ‘ऐसा लगता है’, ‘क्या ऐसा है’ टाइप बातें भी कह सकते हैं।
5.      बुद्धि के बिना तो कुछ भी मुमकिन नहीं मगर पद्य में हृदय का प्रभाव दूरगामी सिद्ध होता है।
                        ग़म-ए-दौराँ [दौर / समय का दुख] की हम सारे हिमायत करते हैं लेकिन।
                        ग़म-ए-जानाँ [महबूब का दुख] ज़ियादातर सभी के हाफिज़े [Memory] में है॥

कहने की आवश्यकता नहीं कि हम लोगों को अपनी टिप्पणियों से रचनाधर्मियों का उत्साह वर्धन तथा मार्गदर्शन करते रहना है। उत्साह वर्धन तथा मार्गदर्शन का व्यापक अर्थ रिसेंटली +प्रवीण पाण्डेय  जी ने अपनी एक पोस्ट में बतियाया है। इस पोस्ट को पढ़ने के बाद J आप चाहें तो उस पोस्ट को भी पढ़ सकते हैं।

तो आप अपनी राय दीजिये इस पोस्ट के बारे में और मैं आज्ञा लेता हूँ अगली पोस्ट के लिये।


नमस्कार

20 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह .. लय, ताल, गेयता और भाव ... सभी कुछ तो है इन कुंडलियों में ... और साथ साथ आपका विवेचन कुंडलियों पर ... गागर में सागर पूर्ण रूप से ...

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    1. आदरणीय, आपकी प्रशंसात्मक टिप्पणी से अभिभूत हूँ। हृदय से धन्यवाद आपका

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  2. परम आ. नवीनजी आयोजन के शानदार शुभारंभ हेतु हार्दिक बधाई एवं ढेरों हार्दिक शुभकामनाएँ
    वाह! प्रथम लाजवाब प्रस्तुति अत्यंत सुन्दर भावपूर्ण कुण्डलिया छंद के साथ, मन मुग्ध हो गया.
    परिजन प्रेम-ममत्व-मोह की मारी हूँ मैं।
    मेरा बल परिवार, न अबला नारी हूँ मैं॥ .......... अति सुन्दर, सार गर्भित पंक्तियां
    हार्दिक बधाई ढेरों हार्दिक शुभकामनाएँ.. आदरणीया.

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    1. रचना को आपका स्नेह और सम्मान मिला, हार्दिक प्रसन्नता हुई। सादर धन्यवाद आपका आदरणीय सत्यनारायण जी

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  3. वाह...बहुत ही सुंदर कुण्डलिया रची है कल्पना दी ने...तीनों शब्दों को सार्थक करती रचना के लिए सादर बधाई....
    तीसरी कुण्डलिया की अन्तिम पंक्ति है-उन शूलों के साथ, बाग़ में रहते हैं हम॥
    इसे इस तरह पढ़ें तो प्रवाह की गेयता बढ़ जाए शायद---उन शूलों के साथ,रहते हैं बाग़ में हम॥....सादर

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    1. ऋता शेर मधुजी,
      आपका सुझाव हो सकता है उचित हो, लेकिन कल्पनाजी जिस वैचारिक-स्कूल से आती हैं उसमें छंदों या विधाओं की शास्त्रीयता से तनिक छेड़छाड़ न करते हुए प्रयोगों को महत्त्व दिया जाता है. आपके सुझाव के अनुसार कुण्डलिया छंद के विधान से ही समझौता करना पड़ रहा है जो कल्पनाजी को अवश्य ही स्वीकार्य नहीं होगा.
      ऐसा मैं आदरणीया के सान्निध्य और उनके अन्यान्य मंचों पर सतत काव्य-कर्म के आधार पर कह पा रहा हूँ.
      शुभ-शुभ

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    2. जी ...छंद विधान के बारे में मैं बिल्कुल ही अनभिज्ञ हूँ...कल्पना दीदी ने लिखा है तो वह पूर्ण रूप से सही है ऐसा मैं भी मानती हूँ...मुझे पढ़ने के हिसाब से जो ठीक लगा वह मैंने लिखा...आशा है कल्पना दी इसे अन्यथा न लेंगी...सादर

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    3. कमेण्ट मोबाइल पर पढ़ लिया था, पर आज दिन भर बाहर होने के कारण शंका का समाधान नहीं कर पाया। दरअसल यह पाद संयोजन से जुड़ा विषय है, अगली पोस्ट में इस बारें में थोड़ा विस्तार से बात करेंगे।

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    4. ऋता जी आपने ध्यानपूर्वक मेरी रचना पढ़ी और सराहा, आपका हार्दिक धन्यवाद। बाकी तो आदरणीय सौरभ जी और नवीन जी ने स्पष्ट कर ही दिया है। मेरे विचार से तो पंक्ति पूरी तरह लय में है, जिसके आधार पर मेरा लेखन टिका हुआ है। अपने विचार साझा करने में कोई बुराई नहीं है, बल्कि विचारों में और प्रवाह आता है। अन्यथा लेने का कोई सवाल ही नहीं है।

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  4. आज की प्रस्तुति से मन मुग्ध है. आदरणीया कल्पनाजी को प्रदत्त शीर्षक के अनुरूप अति सार्थक निर्वहन के लिए मेरी ढेर सारी बधाइयाँ.
    सादर

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    1. आदरणीय आप की उपस्थिटि मात्र से ही मेरी रचनाओं का मान बढ़ जाता है और मन खिल जाता है। आपका हृदय से आभार।

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  5. आ.कल्पना रामानी जी
    सादर प्रणाम
    बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है ,विषय के भावों को पूर्णतया समाहित करती हुई मनोहारी कुण्डलियाँ हैं
    कोटि कोटि बधाईयाँ स्वीकार करें
    सादर

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    1. रचना की सराहना करके उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार आपका आदरणीय खुर्शीद जी।

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  6. मैं तो कल्पना रामानी जी का प्रशंसक हूँ। जिस भी विधा में लिखती हैं कमाल करती हैं। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार कुण्डलिया छंदों के लिए।

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  7. सनातनी शिल्प का निर्वहन करते हुए कल्पना जी के तीनों भावपूर्ण छंद अपमे आप में बेजोड़ हैं ....इनके रस, लय व लालित्य को नमन ....कल्पना जी हमारी ओंर से इस सृजन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये ....

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