चंद अशआर - मदन मोहन दानिश

मसअला ये इश्क़ का है, ज़िन्दगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है, पानी का नहीं.
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बस एक काम है मौला, इसे अगर कर दे
मेरा जो मुझसे तअल्लुक है, मोतबर कर दे
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कितने साए लिपट गए मुझसे
रोशनी के क़रीब जाने से

वो कहाँ दूर तक गए 'दानिश'
जो परिंदे उड़े, उड़ाने से
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हम अपने दुःख को गाने लग गए हैं
मगर इसमे , ज़माने लग गए हैं

कहानी रुख़ बदलना चाहती है
नए किरदार आने लग गए हैं
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मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ.
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ

गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ .
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वो ज़माने से डर गया शायद
कम था मुझ में भी हौसला शायद

उसकी आवारगी तमाम हुई
कोई दरवाज़ा खुल गया शायद
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तुमसे ही छूटता नहीं जंगल तो क्या करें
वरना फ़रार होने का इक रास्ता तो है .

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डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गई
बस यहीं मजबूर दरिया हो गया.

ग़म अँधेरे का नहीं 'दानिश', मगर
वक़्त से पहले अँधेरा हो गया
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ये माना इस तरफ़ रस्ता न जाए
मगर फिर भी मुझे रोका न  जाए

बदल सकती है रुख़ तस्वीर अपना
कुछ इतने ग़ौर से देखा न जाए

हमारी अर्ज़ बस इतनी है दानिश
उदासी का सबब पूछा न जाए.
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जब अपनी बेकली से, बेख़ुदी से कुछ नहीं होता
पुकारें क्यों किसी को हम, किसी से कुछ नहीं होता.

कोई जब शह्र से जाए तो रौनक़ रूठ जाती है
किसी की शह्र में मौजूदगी से कुछ नहीं होता
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इनको बुझते कभी नहीं देखा
कौन जलता है इन सितारों में



मदन मोहन दानिश
Programme Exexcutive at AII Radio, Gwalior

चैत की गरमी में सावन की घटाएँ ढूँढना - नवीन

चैत की गरमी में सावन की घटाएँ ढूँढना
उफ़ ये पागलपन हसीनों में वफ़ाएँ ढूँढना

इस को नादानी कहूँ या फिर मेरी दीवानगी
ज़र्रे-ज़र्रे में मुहब्बत की अदाएँ ढूँढना

इस से बढ़कर और क्या होगी मुहब्बत की मिसाल
उस की नासमझी में भी अपनी ख़ताएँ ढूँढना

वह्म चुक जाते हैं तब जा कर उभरते हैं यक़ीन
इब्तिदाएँ चाहिये तो इन्तिहाएँ ढूँढना

शायरी का इल्म आ जाये तो फिर उस में 'नवीन'
बाइबिल - क़ुरआन - वेदों की ऋचाएँ ढूँढना

बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन
2122 2122 2122 212 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

3 ग़ज़लें - मयंक अवस्थी

वही  अज़ाब  वही  आसरा  भी  जीने का
वो मेरा दिल ही नहीं ज़ख्म भी है सीने का


मैं बेलिबास  ही शीशे के  घर में रहता हूँ

मुझे भी शौक है  अपनी तरह से जीने का


वो  देख  चाँद की पुरनूर  कहकशाओं  मे

तमाम  रंग  है  खुर्शीद  के  पसीने   का


मैं पुरखुलूस हूँ फागुन की दोपहर की  तरह

तेरा  मिजाज़  लगे  पूस  के  महीने  का


समंदरों  के  सफ़र  में सम्हाल कर रखना

किसी  कुयें  से जो पानी मिला है पीने का


मयंक” आँख में सैलाब उठ न पाये कभी  

कि  एक अश्क मुसाफिर है इस सफीने का

अज़ाब=पीड़ा, पुरनूर कहकशाओं = ज्योतिर्मय व्योम गंगाओं, खुर्शीद=सूर्य, पुरखुलूस=अत्मीयता से भरा  हुआ


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 

मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन 
1212 1122 1212 22.



भाव महफिल में दिखाता हूँ  अमीरों  की तरह

छुप के ख़ैरात  भी लेता हूँ फ़क़ीरों की तरह


दूर  के   ढोल  नज़र आयें कहीं मुझको बस

उठ के  आदाब में बजता हूँ  मजीरों  की तरह


नक्श   पानी पे  बनाता  हूँ इसी हसरत में  

कोई कह दे इन्हें  पत्थर की लकीरों की तरह


रात  दिन  बस   तिरी  यादों के  थपेड़े खाकर

क़ैद हूँ  आज  समन्दर में   जज़ीरों  की तरह


ढाई  आखर का मुझे इल्म नहीं है फिर भी 

चाहता हूँ  कि  पढ़ा जाउँ कबीरों  की  तरह


जज़ीरों==द्वीप



बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन. 

फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन
2122 1122 1122 22.



मेरे  आगे  बड़ी  मुश्किल  खड़ी  है

मेरी  शुहरत  मेरे  कद  से बड़ी  है


चले  आओ  कि  सदियाँ हो चुकी हैं

तरस खाओ  कि नर्गिस  रो पड़ी  है


हवाओं में जो  चिंगारी थी  अब तक

वो अब जंगल के दिल में जा पड़ी है


कोई  आतिशफिशाँ  है  दिल में मेरे

मेरे   होंठो  पे  कोई   फुलझड़ी  है


तेरा   जूता   सभी    सीधा  करेंगे

तेरे   जूते   में  चाँदी  जो जड़ी  है


उधर इक दर इधर इस घर की इज़्ज़त

अभी   दहलीज़  पे  लड़की  खड़ी  है


मयंक   आवारगी  की  लाज  रखना

तुम्हारी  ताक  में  मंज़िल  खड़ी  है


आतिशफिशाँ=ज्वालामुखी



बहरे हजज मुसद्दस महजूफ़. 

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन.
1222 1222 122

हम ने दर्दों को दिलो-जाँ से लगाया ही नहीं - नवीन

ग़म की अगवानी में कालीन बिछाया ही नहीं
हम ने दर्दों को दिलो-जाँ से लगाया ही नहीं

रूह ने ज़िस्म की आँखों से तलाशा जो कुछ
सिर्फ़ आँखों में रहा दिल में समाया ही नहीं

लडखडाहट पे हमारी कोई तनक़ीद न कर
बोझ को ढोया भी है सिर्फ़ उठाया ही नहीं

अपनी कोशिश रही लमहों को युगों तक ले जाएँ
रेत पे हमने लक़ीरों को बनाया ही नहीं

एक बरसात में ढह जाने थे बालू के पहाड़
बादलो तुम ने मगर ज़ोर लगाया ही नहीं

बहरे रमल मुसम्मन मखबून महजूफ़
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 

सभी से खुल के मिलता हूँ मेरा जज़्बा ही ऐसा है - नवीन

सभी से खुल के मिलता हूँ मेरा जज़्बा ही ऐसा है
जो दिल में आये कहता हूँ मेरा लहजा ही ऐसा है

मुझे भी दीखता है आईने में टूटता परबत  
मगर कुछ कर नहीं सकता मेरा क़िस्सा ही ऐसा है

मुझे मालूम है वो ही बताने पे तुले हो क्यूँ
पसन्द आता नहीं सबको मेरा चेहरा ही ऐसा है

कोई भी दौर हो ये सर झुका कर ही रहा लेकिन
किशन को चोर कहता है मेरा क़स्बा ही ऐसा है

किसी का दिल दुखाना मुझ को भी अच्छा नहीं लगता
मगर मैं क्या करूँ यारो मेरा धन्धा ही ऐसा है

सुखों का ताज़ ठुकरा कर ग़मों पे नाज़ फरमा कर
दिलों पे राज करता है मेरा कुनबा ही ऐसा है

भला मैंने किसी को भी कभी चिट्ठी लिखी थी क्या
जो आये तुहफ़े लाता है मेरा ओहदा ही ऐसा है

बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन 
1222 1222 1222 1222 

फूल जहाँ रखता है; काँटे भी रखता ही है - नवीन

फूल जहाँ रखता है; काँटे भी रखता ही है
शायद ऊपर वाला भी अपने जैसा ही है

आख़िर कब तक सच बोलें और बैर बढाएँ हम
आईनों को एक दिन शीशा बन जाना ही है

स्वाद हवा का चखते ही दिल झूम उठा साहब
माँ के हाथ के शरबत में जादू होता ही है

आप हमारी सज्जनता पे इतना मत रीझें
बाबू जी हम झरनों को गिर कर बहना ही है

हम ने मज़बूरी में भेड़ों की सुहबत की थी
वरना शेरों की आदत तो मर्दाना ही है

आज की दुनिया को अन्धेर पसन्द है क्या कीजे
धुन्ध भरे इस्कूलों का धन्धा बढना ही है

क़िस्मत पर सुहबत का साया पड़ता ही है 'नवीन'
गेंहू की सुहबत में रह कर घुन पिसता ही है




सीधी-सच्ची फिर भी अच्छी लगने वाली बात करें - नवीन

सीधी-सच्ची फिर भी अच्छी लगने वाली बात करें
मृगनैनी की चंचल अँखियाँ आईनों को मात करें

प्यार-मुहब्बत में इतना शक़ अच्छी बात नहीं है यार
इस से बहतर मेरे दिल पर ख़ुद ही को तैनात करें

हम उस वक़्त के लमहे हैं जब ये सिखलाया जाता था
कभी-कभी बच्चे बन कर बच्चों की तहक़ीक़ात करें

इश्क़ नहीं मापा जाता है थर्मामीटर से साहब
या तो अपने होठों से या आँखों से बरसात करें

इकतरफ़ा ब्यौहार मुहब्बत को ठंडा कर देता है
बहुत हुआ आयात, कभी ख़ुद भी तो कुछ निर्यात करें

कभी तो राहे-मुहब्बत में ये कमाल दिखे - नवीन

नया काम

कभी तो राहे-मुहब्बत में ये कमाल दिखे।
बिना बताये उसे मेरे दिल का हाल दिखे।।

दिल उस की सारी ख़ताएँ मुआफ़ कर देगा।
बस उस की आँखों में इक मर्तबा मलाल दिखे।।

हमेशा मैं ही जुदाई में किसलिये बिखरुँ।
कभी-कभार सनम भी तो तंगहाल दिखे।।

जवाब जिसका उसे मुझसे चाहिये या रब।
नज़र में उसकी मुझे भी तो वो सवाल दिखे।।

‘नवीन’ उसके बहाने कोई सुने कब तक।
वो पात-पात अगर है तो डाल-डाल दिखे।।


**** 

कभी तो राहेमुहब्बत में वो कमाल दिखे
बिना बताये उसे मेरा दिल का हाल दिखे

बहार आती है तो फूल भी निखरते हैं
है दिल में प्यार तो गालों पे भी गुलाल दिखे

दिल उस की सारी ख़ताएँ मुआफ़ कर देगा
बस उस की आँखों में इक मर्तबा मलाल दिखे

दिमाग़ प्यार को भगवान कह न पायेगा
ग़ज़ल की फिक्र में दिल का ही इस्तेमाल दिखे

ख़िजाँ के दौर में जब सब ने दर्द बाँटा है
तो फिर बहार में क्यूँ कोई तंगहाल दिखे

सफ़र का चलते ही रहना तो ठीक है लेकिन
क़दम वहाँ पे रखें क्यूँ जहां बवाल दिखे

नवीन सी. चतुर्वेदी 


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन 
1212 1122 1212 22.

तीन ग़ज़लें - काशफ़ हुसैन गाइर

हर शाम दिलाती है उसे याद हमारी
इतनी तो हवा करती है इमदाद हमारी
इमदाद - मदद का बहुवचन [सहायताएँ]

कुछ हैं भी अगर हम तो गिरफ़्तार हैं अपने
ज़ंजीर नज़र आती है आज़ाद हमारी

यह शह्र नज़र आता है हमज़ाद हमारा
और गर्द नज़र आती है फ़रियाद हमारी
हमज़ाद - साथ पैदा होने वाला

यह राह बता सकती है हम कौन हैं क्या हैं
यह धूल सुना सकती है रूदाद हमारी
रूदाद - रोना, विलाप

हम गोशानशीनों से है मानूस कुछ इतनी
जैसे कि ये तनहाई हो औलाद हमारी
गोशा नशीन - एकान्तप्रिय, मानूस - मुहब्बत करने वाला, हिला-मिला हुआ

अच्छा है कि दीवार के साये से रहें दूर
पड़ जाये न दीवार पे उफ़्ताद हमारी
उफ़्ताद - बुरा साया के सन्दर्भ में

बहरे हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122



मुझ से मनसूब है गुबार मेरा
क़ाफ़िले में न कर शुमार मेरा
मनसूब - प्रसिद्ध, गुबार - धूल

हर नई शाम मेरी उज्लत है
दिन बिताना ही रोज़गार मेरा
उज्लत - जल्दबाजी

ये तेरी जागती हुई आँखें
इन पे हर ख़्वाब हो निसार मेरा

कोई आता नहीं इधर फिर भी
ध्यान जाता है बार-बार मेरा

रात के साथ-साथ बढ़ता गया
इन चरागों पे एतबार मेरा
ऐतबार - भरोसा

वक़्त इतना कहाँ था वक़्त के पास
वरना करता वो इंतज़ार मेरा

नींद पर मेरी दस्तरस गाइर
और न ख़्वाबों पे इख्तियार मेरा
दस्तरस - पहुँच, इख्तियार - अधिकार

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून. 
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन. 
2122 1212 22



इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है
कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है
शिद्दत - प्रबलता , वह्शत - आदमियों से बिदकना, पागलपन, सब से अलग रहना

सहरा में आ निकले तो मालूम हुआ
तनहाई को वुसअत कम पड़ जाती है
वुसअत - विस्तार

अपने आप से मिलता हूँ मैं फुर्सत में 
और फिर मुझ को फुर्सत कम पड़ जाती है

कुछ ऐसी भी दिल की बातें होती हैं
जिन बातों को ख़ल्वत कम पड़ जाती है
ख़ल्वत - एकान्त

ज़िन्दा रहने का नश्शा ही ऐसा है
कितनी भी हो मुद्दत कम पड़ जाती है

काशफ़ गाइर दिल का क़र्ज़ चुकाने में
दुनिया भर की दौलत कम पड़ जाती है

:  काशफ़ हुसैन गाइर [पकिस्तान]
परिचय के लिये भाई अभिषेक शुक्ला का आभार 

वरना हमें ग़रीब कौन मानेगा - आदित्य चौधरी

भारत कोश वाले आदित्य चौधरी जी को पहले भी पढ़ा, मगर उन का यह आलेख बहुत ही मार्मिक और प्रासंगिक भी है, अपनी यादों में सँजोये रखने की ख़ातिर इसे वातायन का हिस्सा बना रहा हूँ।

ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी


Ghareebee.jpg
       शास्त्रों में तीन हठ गिनाए गए हैं। बाल हठ, त्रिया हठ और राज हठ।
एक राजपुत्र ने राज हठ किया-
"मिश्रा जी! पंद्रह अगस्त आने वाला है। कुछ नया होना चाहिए..."
"यस सर! आप पोलो मॅच के लिए कह रहे थे... उसका अरेंजमेन्ट करवा दें..."
"नहीं!... हमें देश के लिए कुछ करना है... हमको अपने देश से, उसके सिटीज़न से, बहुत इंटीमेसी है... हम हमारे देश के ग़रीब देखना चाहते हैं, हमें ग़रीब दिखाइये।"
"यस सर! मैं अभी आपको गूगल इमेज में और नेशनल ज्योग्राफ़िक मैगज़ीन में ग़रीब दिखाता हूँ।"
"ओ... नो! हमें रीयल ग़रीब देखने हैं, ये वाले ग़रीब तो हम रोज़ाना देखते हैं।... एकदम नॅचुरल ग़रीब।"
"सॉरी सर! मैं समझा नहीं?"
"इसमें समझने की कौन सी बात है... हमको सचमुच के ग़रीब देखने हैं... उनको टच करना है... उनसे बात करनी है... आई वान्ट टू नो द रीयल फ़ील ऑफ़ पूअर... गॉट इट? आया समझ में?"
"ओके सर! मैं समझ गया... अभी दो-चार ग़रीब बुलवाता हूँ... एक तो हमारा चपरासी ही काफ़ी ग़रीब है..."
"नो नो नो हमको उनके पास जाना है। हमें गावों में जाना है।" यू फ़िक्स द टूर। हम जाएँगे।"
        एक गाँव तुरंत छांटा गया लेकिन ये गाँव राजपुत्र ने नकार दिया, कारण था कि ये गाँव काफ़ी विकसित था। राजपुत्र को एक बेहद पिछड़ा गाँव देखना था। आख़िर झक मार कर अधिकारियों ने एक पिछड़ा गाँव छांट लिया। यात्रा शुरू हो गई। पहले चार्टर प्लेन फिर हॅलीकॉप्टर और उसके बाद कारों का क़ाफ़िला उस 'पिछड़े' गाँव में जा पहुँचा जहाँ 'ग़रीब' रहते थे। राजपुत्र के स्वागत के लिए दूर-दूर से लोग आए हुए थे। अफ़रातफ़री का माहौल था। भीड़-भाड़ देखकर राजपुत्र का 'मूड' ख़राब हो गया।
"इनमें से जो ग़रीब हैं उन्हें मेरे कॅम्प में बुलवाइए।" राजपुत्र ने सचिव को आदेश दिया। चार ग़रीब कॅम्प में बुलाए गए जिनमें दो पुरुष ग़रीब और दो महिला ग़रीब हैं। कॅम्प में ग़रीबों को ज़मीन पर बिछी दरी पर बिठाकर बातचीत शुरू हो गई। राजपुत्र भी कुर्सी छोड़कर नीचे ही बैठ गया।
Blockquote-open.gif "इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" Blockquote-close.gif
        एक ग़रीब ने दूसरे से फ़ुसफ़ुसा कर कहा-
"देख ले बेटा! मैंने कहा था चुनाव आ रहे हैं, इसीलिए तो ये नीचे बैठ गए..."
"सब चुप हो जाओ! जो पूछें उसका जवाब दो!" अधिकारी ने डांटा।
राजपुत्र- "तोऽऽऽ... आप लोग ग़रीब हैं?" राजपुत्र ने अपने चेहरे से मंदबुद्धि दर्शाने वाली मासूमियत को छुपाने के प्रयास में, अपने चेहरे पर गम्भीरता ओढ़ते हुए सवाल किया। ये सवाल ऐसा ही होता है जैसा कि अदालत में गवाह या अपराधी का नाम पता अच्छी तरह जानते हुए भी वकील उस व्यक्ति का नाम वग़ैरा पूछते हैं।
पहला ग़रीब- "हाँ सरकार! बहुत ग़रीब हैं।" इस ग़रीब ने अति उत्साह में काफ़ी तेज़ आवाज़ में 'हाँ सरकार' कहा लेकिन जब पास खड़े अधिकारी ने उसे अर्थ सहित घूरा तो फिर 'बहुत ग़रीब हैं' को बहुत धीमी आवाज़ में कहा जो कि लगभग फुसफुसाहट में बदल गई।
राजपुत्र- "अच्छाऽऽऽ! लेकिन कितने ग़रीब?" राजपुत्र ने जैसे कोई रहस्य जानने की कोशिश की।
दूसरा ग़रीब- "बहुत ज़्यादा सरकार!... मतलब कि एकदम से पूरे के पूरे ग़रीब।" दूसरे ग़रीब ने पास खड़े अधिकारी की तरफ़ इशारा किया और ज़रा रुककर कहा-
"इनको मालूम है सरकार कि हम कितने ग़रीब हैं... एकदम प्योर ग़रीब हैं सरकार!... क्यों सरकार हैं ना हम ग़रीब?" इस पर अधिकारी ने खिसाहट भरे आश्चर्य से राजपुत्र की तरफ़ देखकर अपने अनुभवी अधिकारी होने का फ़र्ज अदा किया।
राजपुत्र- "क्या खाते हैं आप लोग? मतलब कि ब्रेकफ़ास्ट... लंच... डिनर में क्या लेते हैं?" राजपुत्र ने बड़े घरेलू अंदाज़ में पूछताछ आगे बढ़ाई।
अधिकारी- "सर पूछ रहे हैं कि सुबह, दोपहर और रात के खाने में क्या खाते हो?"
पहला ग़रीब- "आप जो खिलाएँगे खा लेंगे सरकार!..." बेचारे ने सोचा कि शायद कुछ खिलाने-पिलाने की बात चल रही है तो फ़ौरन मेहमान वाले अंदाज़ में शरमा कर कहा।
राजपुत्र- "वो तो ठीक है... आप लोगों के खाने का इंतज़ाम भी है... लेकिन मैं ये जानना चाहता हूँ कि आप खाते क्या हैं मतलब कि आपका रोज़ाना का खाना क्या होता है?"
दूसरा ग़रीब- "जो मिल जाय सो खा लेते हैं सरकार... वैसे रोटी-चटनी ज़्यादा खाते हैं सरकार!... अब तीन टाइम तो नहीं खाते हैं... कभी दो बार तो कभी एक बार... खेत में से भी कुछ साग-सब्ज़ी मिल जाती है तो पका लेते हैं।"
Blockquote-open.gif "ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..." Blockquote-close.gif
राजपुत्र- "डाइरेक्ट खेत से तो ऑरगेनिक फ़ूड मिलता होगा आपको?"
दूसरा ग़रीब- "सरकार बथुआ, चौलाई, कुल्फा मिल जाता है, या फिर कभी मूली... और जब आलू की खुदाई चलती है तो आलू ख़ूब मिलते हैं वो भी बिल्कुल फिरी में..."
राजपुत्र, अधिकारी से- "आप सब कुछ नोट कर रहे हैं ना? मुझे पूरा डेटाबेस चाहिए..."
अधिकारी- "यस सर! मैं नोट कर रहा हूँ।"
राजपुत्र- "फल कौन-कौन से खाते हैं आप लोग?"
पहला ग़रीब- "बेर खा लेते हैं सरकार!... और भी बहुत सी चीज़ें हैं सरकार आप नहीं जानते होंगे"
राजपुत्र- "जैसे?"
पहला ग़रीब- "जैसे सेंद, फूट, ककड़ी..."
राजपुत्र- "ये क्या हैं?"
अधिकारी "सर वाइल्ड फ़्रूट हैं, एक तरह से स्वीट मिलोन और ककुम्बर की तरह..."
राजपुत्र- "ओ.के. ... ये आपके साथ जो लेडीज़ हैं...?"
पहला ग़रीब- "ये हमारी घरवाली है सरकार और ये इसकी घरवाली है। वाइफ़ है सरकार वाइफ़। मेरी घरवाली पढ़ी लिक्खी है सरकार हाईस्कूल पास..."
राजपुत्र- "अच्छा! वॅरी गुड! आप लोगों का ख़र्चा कितना होता है खाने के ऊपर?"
दोनों 'ग़रीबों' ने एक दूसरे की तरफ़ देखा... अधिकारी की तरफ़ देखा... अपनी बीवियों से कानाफूसी की और फिर बड़े सोच-समझ कर पहले ग़रीब ने जवाब दिया-
पहला ग़रीब- "सरकार एक बार का खाना पौने पाँच रुपये में हो जाता है और दिन भर का पूरा ख़र्चा आता है छब्बीस रुपये!..."
राजपुत्र- "बस इतना ही...? इससे ज़्यादा नहीं?
दूसरा ग़रीब- "हाँ सरकार! इतने में ही खाना पड़ता है वरना हमको ग़रीब कौन मानेगा... अगर पाँच रुपये से ज़्यादा का खाएँगे तो ग़रीबी की रेखा से ऊपर चले जाएँगे... फिर तो राशन भी नहीं मिलेगा... मिट्टी का तेल वगैरा कुछ भी नहीं मिलेगा... बीपीऐल कार्ड भी छिन जाएगा सरकार! ..."
राजपुत्र ने अधिकारी से पूछा-
राजपुत्र- "क्या बस स्टॅन्ड पर खाना पाँच रुपए में मिल जाता है?"
अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।"
राजपुत्र- "रेलवे स्टेशन पर मिलता होगा?"
अधिकारी- "नो सर!, नहीं मिलता।"
Blockquote-open.gif सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं। Blockquote-close.gif
राजपुत्र- "पाँच रुपए में खाना तो बांग्ला देश और श्रीलंका में भी नहीं मिलता फिर ये चक्कर क्या है?"
पहला ग़रीब- "नहीं सरकार! दिल्ली और बम्बई में पाँच-दस रुपये में खाना मिल जाता है, बड़े-बड़े नेता यही बता रहे हैं, वहाँ इतना सस्ता खाना है तो हमको भी वहीं ले चलिए सरकार..."
राजपुत्र- "देखिए आपके दिल्ली या बॉम्बे जाने से कुछ नहीं होगा... ग़रीबी आपके दिमाग़ में है... इट्स इन योर माइंड... जस्ट अ स्टेट ऑफ़ माइंड... आप सोचते हैं कि आप ग़रीब हैं तो आप ग़रीब हो जाते हैं... आप सोचो मत कि आप ग़रीब हैं... यही सीक्रेट है... मैंने आपको सबसे अच्छा तरीक़ा बता दिया है... कुछ आया समझ में?"
तम्बू में सन्नाटा हो गया, सब एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो पहले ग़रीब की हाईस्कूल पास पत्नी अचानक बोल पड़ी-
"ठीक कह रहे हैं बाबू जी, ग़रीबी हमारे दिमाग़ में है... आप लोगों के दिमाग़ में नहीं... अगर हमारी ग़रीबी आपके दिमाग़ में भी होती तो हम ग़रीब नहीं होते..."
ये तो पता नहीं कि राजपुत्र पर इन बातों का कितना प्रभाव पड़ा और उसने क्या किया... तो आइए भारतकोश पर वापस चलते हैं।-
        देश में, बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे राजनीतिक मुद्दे हुआ करते थे। इन्हीं मुद्दों का बोलबाला चुनावों में भी होता था। धीरे-धीरे नेता (और शायद जनता भी) इन मुद्दों से 'बोर' हो गयी। मुद्दे बदलते चले गए और जनता भी अपनी मुख्य ज़रूरत को भूल कर टीवी, लॅपटॉप, इंटरनेट जैसे आकर्षक मुद्दों के प्रति अधिक गंभीर हो गई। कारण था कि ये सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत मुद्दे थे। राजनीतिक दल भी मनुष्य की इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना सीख गए। नेताओं को समझ में आने लगा कि भाषणों में, सड़क बनवाने की बात करने से ज़्यादा लाभकारी है कर्ज़ा माफ़ करने की बात करना। जनता को भी लगने लगा कि सड़क तो 'सबके' लिए बनेगी लेकिन कर्ज़ा तो 'मेरा' माफ़ होगा। यहीं से व्यक्तिगत लाभ देने की राजनीति शुरू हो गई और सार्वजनिक समस्याएँ पिछड़ती चली गईं।
        अनेक योजनाओं के चलते गांवों में पानी की टंकियां बनीं लेकिन जनता का सारा ध्यान अपने घर के दरवाज़े पर हैण्ड पम्प लगवाने में रहा। टंकियों की हालत ख़राब होने लगी और ज़्यादातर टंकियां अब बेकार पड़ी हैं। ग्राम पंचायत, ज़िला पंचायत और विधायकों को मिलने वाले वोटों के पीछे जनता की व्यक्तिगत मांगों का दवाब बना रहता है।
        जन प्रतिनिधि होने का अर्थ, काफ़ी हद तक यह हो चुका है कि प्रतिनिधि हर समय, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकता के लिए भागदौड़ करे। थाने, तहसील, डी.ऍम., ऍस.पी. के पास सच्चे झूठे मुद्दे और मुक़दमों की सिफ़ारिश करे। इस प्रक्रिया में जन प्रतिनिधि में अपना-पराया की भावना बहुत प्रबल हो जाती है। किसने वोट दिया और किसने नहीं, इस बात को लेकर जनता के कार्यों की वरीयता निश्चित की जाती है।
        हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं।
        इसके लिए केवल एक ही कारण है। हमारे देश में राजनीतिक दलों की संख्या का अनियंत्रित होना। किसी भी देश के प्रजातांत्रिक ढांचे में देश के समग्र विकास के लिए विचारधाराओं के आधार पर ही राजनीतिक दलों का गठन होना चाहिए। ये विचारधाराएं दो या अधिकतम तीन ही हो सकती हैं, इससे अधिक होने का सीधा अर्थ है कि नए राजनीतिक दल के गठन के पीछे कोई न कोई धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र का मुद्दा है।
        सामान्यत: जनता के मन में तीन प्रकार की सोच ही समायी रहती हैं; दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी। इन तीन विचारधाराओं से दीगर कोई और सोच कभी भी समग्र समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। दक्षिणपंथी विचारधारा में; परम्परा, धर्म, पूंजीवाद आदि समाहित रहते हैं। वामपंथी विचारधारा में प्रगति, धर्म निरपेक्षता और समाजवाद समाहित होते हैं। मध्यमार्गी विचारधारा इन दोनों के बीच की सोच है जिसमें विकास, सर्व धर्म समभाव और पूंजीवाद-समाजवाद का सम्मिश्रण समाहित होते हैं।
        भारत में राजनीतिक दल बनाना कोई फ़र्म या कम्पनी बनाने जितना आसान है। 2-4 विधायक या सांसदों को लेकर किसी सरकार में शामिल हो जाना एक खेल बन गया है। जब किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो अनेक राजनीतिक दल मिलकर एक गुट बनाते हैं। ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली हो क्योंकि राजनीतिक प्रभाव वाले व्यक्ति से सभी दल डरते हैं कि 'कहीं ये हमारे विधायकों या सांसदों को अपनी ओर 'तोड़' न ले'।
        इस प्रक्रिया के चलते भारत ने कई कठपुतली प्रधानमंत्रियों को झेला है। इसी तरह परिवारवाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और अनेक बार हमारे देश और राज्यों का शासन ऐसे ही अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों में रहा है। इस प्रक्रिया के बचाव में एक सामान्य सा उदाहरण दिया जाता है कि व्यापारी का वंशज व्यापारी, अभिनेता का वंशज अभिनेता, खिलाड़ी का वंशज खिलाड़ी तो फिर नेता का वंशज नेता क्यों नहीं? सीधी-साधी जनता इस मूर्खतापूर्ण तर्क को सहज ही मान लेती है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। व्यापार, खेल और फ़िल्मी दुनिया की उपलब्धियाँ, व्यक्तिगत हितों को आधार बना कर ही की जातीं हैं, जिसमें जनता का कोई लेना-देना या भागीदारी सामान्यत: नहीं होती। राजनीति की सीढ़ियाँ तो स्पष्ट रूप से जनता की भागीदारी से ही निर्मित होती हैं, जिन पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार जमाना पूर्णत: अनैतिक है। यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे कि कोई सेनाधिकारी अपने वंशज को अपना पद बिना किसी प्रतियोगिता के देना चाहे। जिस प्रकार देश की सेना देश के लिए जवाबदेह है उसी प्रकार राजनीतिक नेता भी। ज़रा सोचिए जिन गुणों, संघर्षों, बलिदानों को ध्यान में रखते हुए जनता ने किसी को नेता माना हो और वह नेता अपने वंशज को अपना पद देना चाहे तो क्या समझदार जनता को इसे स्वीकारना चाहिए?
        भारत में यही होता आया है। इस वंशवाद के कारण राजनीति में सबसे अधिक ठेस गुरु-शिष्य परंपरा को लगी है। आज के समय में राजनीति में कर्तव्यनिष्ठ शिष्य होना असंभव जैसा हो गया है। यदि हमारे देश में दो या तीन राजनीतिक दलों का नियम लागू नहीं किया गया और वंशवाद पर लगाम न कसी गई तो देश का विकास होना असंभव ही है।

इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक

यूँ रब्त कोई उस का मेरे घर से नहीं था - नवीन

मुहतरम बानी मनचन्दा साहब की ज़मीन ‘ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था’ पर एक कोशिश। इटेलिक्स वाले अशआर में सानी मिसरे बानी साहब के हैंउन पर गिरह लगाने की नाक़ाम कोशिश की है

यूँ रब्त कोई उस का मेरे घर से नहीं था
पर पल भी हटा दर्द मेरे दर से नहीं था
रब्त – सम्बन्ध

आवारा कहा जायेगा दुनिया में हरिक सम्त
सँभला जो सफ़ीना किसी लंगर से नहीं था
सम्त – तरफ़ / ओरसफ़ीना – नाव

महफ़ूज रहा है ये मुक़द्दर से ही अब तक
पाला ही पड़ा शीशे का पत्थर से नहीं था
महफ़ूज – सुरक्षित

ख़ुशियाँ थीं हरिक सम्त मगर ग़म ही दिखे बस
बेदार कोई अपने बराबर से नहीं था”
बेदार – परिचित के सन्दर्भ में

क्या अपनी है औक़ात कि इस दुनिया को शिकवा
जंगल से नहीं था कि समन्दर से नहीं था”
शिकवा – शिकायत

: - नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन

221 1221 1221 122

जागती आँखों से छुआ नही जाता - दिगम्बर नासवा

अक्सर ऐसा हुआ है
   बहुत कोशिशों के बाद
      जब उसे मैं छू न सका
         सो गया मूँद कर आँखें अपनी

बहुत देर तक फिर सोया रहा
   महसूस करता रहा उसके हाथ की नरमी
      छू लिया हल्के से उसके रुखसार को

उड़ता रहा खुले आसमान में
   थामे रहा उसका हाथ
      चुपके से सहलाता रहा उसके बाल

पर हर बार
   जब भी मेरी आँख खुली
      अचानक सब कुछ दूर
         बहुत दूर हो गया

क्या वो सिर्फ़ एक एहसास था...................

   एहसास जिसे महसूस तो किया जा सकता है
      पर जागती आँखों से छुआ नही जा सकता

         जागती आँखों से छुआ नहीं जाता