आज मन अतुकान्त है
दोहा और रोला की खीञ्चतान में
कुण्डली मार के बैठी हैं उमीदें
तुम्हारी यादों का मौसमी कुहासा
नज़्म की तरह
धीरे-धीरे
मुझे अपने आगोश मेँ ले रहा है
और मैं
अमृत-ध्वनि छन्द की तरह
अपने ही तानेबाने में फँसा हुआ सा
जीवन के नवगीत में
पिङ्गल के नियमों की
व्यर्थ तलाश करता हुआ सा
तुम्हारे जूडे के लिये
दोहों के चार फूल चुनता हुआ सा
हूँ
ठीक उसी वक्त
तुम न जाने कहाँ से ले आती हो
तीन वल्लरियाँ
हाइकु की
अपने जूड़े मे गुँथवाने के लिए हमेशा की तरह
और अपने हाथों से
तुम्हारे जूड़े में
अपने लाये हुये फूल टाँकने की मेरी इच्छा
किसी क्लिष्ट गूढ पद के अर्थ की तरह
मुझे उलझा जाती है
फिर से
कभी-कभी लगता है
ज़िन्दगी की ग़ज़ल में
तुम मतला हो
और
मैं मक्ता
हमेशा एकसाथ
मगर मिलाप कभी नहीं
एकदूजे की ख़ैरियत के लिये भी
हम निर्भर हैं
कभी दल-बदलू काफ़ियों पर
तो कभी अडियल रदीफ़ पर
मैं भी चाहता हूँ
जीवन चौपाई छन्द जैसा मधुर
और
मनहर कवित्त सा मनोरम हो
लेकिन शायद
हमदोनों देवनागरी के ऐसे गुरु-वर्ण हैं
जो कि प्रतिबध्द हैं
पञ्चचामर छन्द में क्रमिक आवृत्ति के लिये
यानि हर बार
हम दौनों के बीच में
एक लघु का होना अपरिहार्य है
ऐसा लगता है
शायद विधना ने
हमारा मिलन
उस दिन के लिये फ़िक्स कर दिया है
जिस दिन
छन्दों के फूल
हाइकु की वल्लरियाँ
शेरों की सुगन्ध
और
नज़्मों की नज़ाकत
दूर न होगी कविता और कहानी के कथानक से
तुम मतला हो
ReplyDeleteऔर
मैं मक्ता
हमेशा एकसाथ
मगर मिलाप कभी नहीं
---क्या बात है ...अति सुन्दर ...
छन्दों के फूल
हाइकु की वल्लरियाँ
शेरों की सुगन्ध
और
नज़्मों की नज़ाकत
दूर न होगी कविता और कहानी के कथानक से..
---- और भे सुन्दर व सटीक, सार्थक......
सौंधास भरी और बहुत ही मीठी; मगर पंक्तियों के बीच अनेकानेक गहन अर्थ समेटे ऐसी नज़्म / कविता शायद पहली बार पढ़ रहा हूँ । जीते रहिये रचित।
ReplyDeleteदादा आपकी हौसलाअफजाई और मार्गदर्शन के लिये बहुत आभारी हूं
ReplyDeleteमोहनांशु रचित—भाई !! आप तो छा गये !! इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति !! कमाल है !! हर पंक्ति हरसिंगार की डाली है—इस कविता में –सचमुच इस सार्थक अभिव्यक्ति ने मन मोह लिया –मयंक
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद मयंक भईया। आपसे प्रशंसा पाकर अभीभूत हूं ।
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