दो कवितायें - सुमीता प्रवीण केशवा

उफ़

उफ़! पुरुष!

तुम्हारा उफन के बह जाना
और स्त्री का पिघल कर
तुम्हें समेट लेना
गिड़गिड़ाते हो तुम स्त्री के समक्ष
लूट खसोट लेते हो उसे भीतर तक
रोप लेते हो अपनी वन्शवेल
उस की तहों में
और करवा लेते हो दर्ज़
अपनी जीत ...... अब तृप्त हो तुम

उस की कोख तक पहुँच कर तुम
एक नये रूप में
आकार लेने लगते हो
और वह खाली हो चुकी है
अपना अस्तित्व तुम्हें सौंप कर
यहाँ भी देखो तुम्हारीही जीत है
तुम उसे जकड़ डालते हो बेड़ियों में
तुम्हारे नये रूप को सँवारने में
लग जाती है वह
अपना रूप खो कर
और धीरे-धीरे तुम
विरक्त होते जाते हो उस के सौन्दर्य से

वह सौन्दर्य अब बँट चुका है
नये रूप – नये आकार में
उस की काया शिथिल हो चुकी है
तुम्हारे अक़्स को आकार देने में
और तुम निकल पड़ते हो फिर से
एक नये रूप की तलाश में

क्योंकि तुम्हें
अब वह नहीं लगती
पहले जैसी



एक पूरी दुनिया है औरत

देह से बेख़बर
एक पूरी की पूरी दुनिया है औरत
उस की देह में बहती है नदी - बहते हैं नाले
पूरी देह में उतार-चढ़ाव
कटाव – छंटाव के साथ
उभरे हैं तमाम पर्वत-पहाड़ - टीले-मैदान और
घुमावदार टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियाँ
जिन से हो कर गुजरती हैं
उस की देह की हवाएँ
वह हवाओं को रोक
बनाती है अनुकूल वातावरण बरसने के लिये

बावजूद इस के वह रौंदी जाती है
कुचली-मसली जाती है
फिर बी बेमौसम-बेपरवाह
उग जाती है
कभी भी - कहीं भी

बढ़ाती है अपनी लताएँ
उगाती है अपनी पौधें
सहेजती है बाग-उपवन
बनती है जङ्गल
बनती है हवा
बनती है वज़्ह
जीवन-सञ्चालन की

छोड़ दो उसे
निर्जन सुनसान टापू पर
या छोड़ दो उसे मङ्गल-ग्रह पर
बसा लेगी औरत
एक पूरी की पूरी दुनिया
अपनी देह की मिट्टी से
कभी भी
कहीं भी


सुमीता प्रवीण केशवा – 9773555567 

प्रीत के अतीत से - जितेन्द्र 'जौहर'

 न जाने कितनी बार...
प्रीति में रँगी
किन्तु...
प्रतीति में टँगी
एक प्रणयातुर प्रतीक्षा
नैराश्य के अँधेरे में
सिसककर रोयी है,
पंथ निहारती
एक जोड़ी आँखों ने
'अ-योग' की उदासी ढोयी है... 
न जानेsss कितनी बार...!


न जाने कितनी बार...
भावों की कल्लोलिनी लहरों ने
किनारों के चरण पखारे हैं
सीमाओं के सदके उतारे हैं
उपेक्षा के तटस्थ प्रस्तरों से टकराकर
प्रत्यावर्तन की
'वर्तुलाकार' पीड़ा भोगी है;
अहासस्स...
यह प्रेम...फिर भी
एक निष्ठावान कर्मयोगी है...!!


न जाने कितनी बार...
एक आरोही ने
शिखर-यात्रा के बीच
'सुयोग' के संभावनाशील पलों में
केन्द्रेतर दुर्योंगों से
गोपनीय गठबंधन कर
शीर्ष-संयोग की झोली में
वियोग का रुदन भरा है,
फिर भी
अविराम...
अभिराम...
अन्तस के उपवन में
प्रेम-पराग ही झरा है...!


न जाने कितनी बार...
अनुभूतियों का लहूलुहान गौरव
विवशता के कँटीले उद्यान से
सस्मित लौटा है-
अनगिन खरोंचों का पारितोषिक लेकर...!


न जाने कितनी बार...
एक याचक मन
भावना की भीख पर
धनवान हुआ है,
यह जानते हुए भी
कि-
भिक्षाटन पर निकला
कोई आदमक़द स्वाभिमान
कभी कुबेर बनकर नहीं लौटता...
फिर भी
प्रेम के गीले नयन 
एकल द्वार पर
दृष्टि पसारकर
अहर्निश निहारते रहे
एकटक...
अपलक...
न जानेsss कितनी बार...!!


न जाने कितनी बार...
विडम्बनाओं ने
कुछ यूँ विवश किया है
कि-
एक जीते हुए योद्धा ने 
अपने ही रण-शिविर में आकर
पराजय-बोध को जिया है...!!


न जाने कितनी बार...
जीवन
छद्म के हाथों लुटा है,
फिर भी
भस्मीभूत अस्तित्व का फीनिक्स 
अपनी ही राख से
जी उठा है
नयी उड़ान
नये गान का हौसला लेकर...!
न जाने कितनी बार...!
न जानेsss कितनी बार...!!
न जाने...कितनीsss बार...!!!

:- जितेन्द्र 'जौहर' 9450320472

पेङ, पर्यावरण और कागज – नवीन सी. चतुर्वेदी

कटते जा रहे हैं पेङ
पीढी दर पीढी
बढता जा रहा है धुआँ
सीढी दर सीढी
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये,
चिन्तित है
काग़ज़ी समुदाय

हावी होता जा रहा है कम्प्यूटर,
दिन ब दिन,
फिर भी
समाप्त नहीं हुआ - महत्व,
काग़ज़ का अब तक

बावजूद इन्टरनेट के,
काग़ज़ आज भी प्रासंगिक है
नानी की चिठ्ठियों में,
दद्दू की वसीयत में
काग़ज़ ही होता है इस्तेमाल,
हर मोङ पर जिन्दगी के

परन्तु अब थकने भी लगा है काग़ज़
बिना वजह छपते छपते

काग़ज़ के अस्तितव के लिये
जितने जरूरी हैं
पेङ,
पर्यावरण,
आदि आदि,
उतना ही जरूरी है
उनका सदुपयोग
सकारण

अकारण नहीं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

नज़्म - रिश्वत – जोश मलीहाबादी

लोग हम  से रोज़ कहते हैं ये आदत छोड़िये
ये तिज़ारत है ख़िलाफ़ेआदमीयत – छोड़िये
इस से बदतर लत नहीं है कोई, ये लत छोड़िये
रोज़ अख़बारों में छपता है कि रिश्वत छोड़िये
भूल कर भी जो कोई लेता है रिश्वत – चोर है
आज क़ौमी पागलों में रात-दिन ये शोर है

किस को समझाएँ इसे खो देंगे तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
क़ैद भी कर दें तो हम को राह पर लाएँगे क्या
यह जुनूनेइश्क़ के अंदाज़ छुट जाएँगे क्या
मुल्क़ भर को क़ैद कर दें किस के बस की बात है
ख़ैर से सब हैं कोई दो  चार दस की बात है

ये हवस ये चोर-बाज़ारी ये महँगाई ये भाव
राई की कीमत हो जब परबत तो क्यों आये न ताव
अपनी तनख़्वाहों के नालों में है पानी आध पाव
और लाखों टन की भारी अपने जीवन की है नाव
जब तलक रिश्वत न लें हम, दाल गल सकती नहीं
नाव तनख़्वाहों के नालों में तो चल सकती नहीं

ये है मिल वाला, वो बनिया और वो साहूकार है
ये है दूकाँदार वो है वैद्य वो अत्तार है
वो अगर ठग है तो वो डाकू है वो बटमार है
आज हर गर्दन में काली जीत का एक हार है
हैफ़, मुल्क़-ओ-क़ौम की ख़िदमत-गुज़ारी के लिये
रह गए हैं इक हमीं ईमानदारी के लिये

भूख के क़ानून में ईमानदारी ज़ुर्म है
और बे-ईमानियों पर शर्मसारी ज़ुर्म है
डाकुओं के दौर में परहेज़गारी ज़ुर्म है
जब हुकूमत ख़ाम हो तो पुख़्ताकारी ज़ुर्म है
लोग अटकाते हैं क्यों रोड़े हमारे काम में
जिस को देखो ख़ैर से नङ्गा है वो हम्माम में

देखिये जिस को दबाये है बगल में वो छुरा
फ़र्क़ क्या इस में कि मुजरिम सख़्त है या भुरभुरा
ग़म तो इस का है, ज़माना ही है कुछ-कुछ खुरदुरा
एक मुजरिम दूसरे मुजरिम को कहता है बुरा
हम को जो चाहें सो कह लें, हम तो रिश्वत खोर हैं
वाइज़-ओ-नासेह-ओ-मुसफ़िक अल्ला रक्खे चोर हैं

तोंद वालों की तो हो आईनादारी वाह वा
और हम भूखों के सर पे चाँदमारी वाह वा
उन की ख़ातिर सुब्ह होते ही नहारी वाह वा
और हम चाटा करें ईमानदारी वाह वा
सेठ जी तो खूब मोटर में हवा खाते फिरें
और हम सब जूतियाँ गलियों में चटखाते फिरें

इस गिरानी में भला क्या गुंच-ए-ईमाँ खिले
जौ के दाने सख़्त हैं ताँबे के सिक्के पिलपिले
जाएँ कपड़ों के लिये तो दाम सुन कर दिल हिले
जब गिरेबाँ ताबा दे कर आएँ तो कपड़ा मिले
जान भी दे दें तो सस्ते दाम मिल सकता नहीं

आदमीयत का कफ़न है दोस्तो कपड़ा नहीं 

:- जोश मलीहाबादी

एक हाइकु - भगवत शरण अग्रवाल


बोये सपने
सींचे इन्द्र-धनुष
फले कैक्टस
 


-भगवत शरण अग्रवाल

तकलीफ़ों के बाद तनिक आराम है - डा. राम मनोहर त्रिपाठी

तकलीफ़ों के बाद तनिक आराम है
तुम कहते हो गीतों से क्या काम है

गीतों का बादल मुझ को नहलाता है
स्वर का गुंजन घावों को सहलाता है
यह हर दुख में मेरा मन बहलाता है
मेरा जीना ही इस का परिणाम है
तुम कहते हो गीतों से क्या काम है

यही सोच कर तुम को भी हैरानी है
जो दुखियारा है मेरी पहिचानी है
सब से परिचित मेरी राम कहानी है
मेरे लिए यही पैसा है दाम है
तुम कहते हो गीतों से क्या काम है

भावुकता के वेश हजारों धरता हूँ
मधु-ऋतु सा लिख कर, पतझर सा झरता हूँ
ध्यान लगा कर स्वर की पूजा करता हूँ
गीतों के मन्दिर में मेरा राम है

तुम कहते हो गीतों से क्या काम है 

:- डा. राम मनोहर त्रिपाठी

यह मेरा अनुरागी मन - सरस्वती कुमार ‘दीपक’

 यह मेरा अनुरागी मन

रस माँगा करता कलियों से
लय माँगा करता अलियों से
संकेतों से बोल माँगता
दिशा माँगता है गलियों से
जीवन का ले कर इकतारा
फिरता बन बादल आवारा
सुख-दुख के तारों को छू कर
गाता है बैरागी मन
यह मेरा अनुरागी मन

कहाँ किसी से माँगा वैभव
उस के हित है सब कुछ सम्भव
सदा विवशता का विष पी कर
भर लेता झोली में अनुभव
अपनी धुन में चलने वाला
परहित पल-पल जलने वाला
बिन माँगे दे देता सब कुछ
मेरा इतना त्यागी मन

यह मेरा अनुरागी मन 

:- सरस्वती कुमार ‘दीपक’

मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से - पुरुषोत्तम दुबे

मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

धरती जिस पर फूल बिलखते, काँटे हँसते
मरुस्थलों के पैर पूजता है गंगाजल
मिट्टी के पुतलों से पर्वत टकराते हैं
हरियाली पर कोड़े बरसाता दावानल
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

दुनिया जिस में शान्ति कफ़न बांधे फिरती है
और अशान्ति पर चँवर डुलाता है सिन्हासन
दुनिया जिस में दुनिया की गोली से पीड़ित
डोला करता रुग्ण अहिंसा का पद्मासन
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

जीवन जिस का सत्य सिसकता है कुटियों में
और झूठ महलों में मौज़ उड़ाया करता
जीवन जिस का न्याय सड़ा करता जेलों में
और अन्य ख़ुशियों के दीप जलाया करता
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से
केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है

जहाँ चाँदनी धोती है कलंक जीवन भर
और अमावस तारों से सम्मानित होती
जहाँ भटकते मोती-माणिक अँधियारे में
और कौयलों [coal] को प्रकाश की किरणें धोतीं
मैं ने देखा है धरती को बड़े पास से

केवल देखा नहीं देख कर परखा भी है 

:- पुरुषोत्तम दुबे