मैं
मैं
मैं
मैं
ये बकरी वाली 'में-में' नहीं है
ये वो 'मैं' है
जो आदमी को
शेर से
बकरी बनाता है..............
मैं,
हर बार आदमी को,
शेर से बकरी नहीं बनाता...........
कभी कभी
बकरी को भी,
शेर बना देता है................
और कभी कभी,
उस का,
स्वयँ से,
साक्षात्कार भी करा देता है..............
'मैं'
किस के अंदर नहीं है?
बोलो-बोलो!!!
हैं ना सबके अंदर?
कम या ज़्यादा!!!!!!
और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है
इस 'मैं' के बारे में............
पर डरता हूँ मैं भी
उस कड़वे सत्य को
सार्वजनिक रूप से
कहते हुए.................
इसलिए
सिर्फ़ इतना ही कहूँगा
कि मैं
इस 'मैं' का दीवाना तो बनूँ
पर, उतना नहीं-
कि ये 'मैं' तो परवान चढ़ जाए
और खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
'मैं' के द्वारा बुनी गयी-
ज़ालियों में............
आप क्या कहते हैं?
मैं
मैं
मैं
ये बकरी वाली 'में-में' नहीं है
ये वो 'मैं' है
जो आदमी को
शेर से
बकरी बनाता है..............
मैं,
हर बार आदमी को,
शेर से बकरी नहीं बनाता...........
कभी कभी
बकरी को भी,
शेर बना देता है................
और कभी कभी,
उस का,
स्वयँ से,
साक्षात्कार भी करा देता है..............
'मैं'
किस के अंदर नहीं है?
बोलो-बोलो!!!
हैं ना सबके अंदर?
कम या ज़्यादा!!!!!!
और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है
इस 'मैं' के बारे में............
पर डरता हूँ मैं भी
उस कड़वे सत्य को
सार्वजनिक रूप से
कहते हुए.................
इसलिए
सिर्फ़ इतना ही कहूँगा
कि मैं
इस 'मैं' का दीवाना तो बनूँ
पर, उतना नहीं-
कि ये 'मैं' तो परवान चढ़ जाए
और खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
'मैं' के द्वारा बुनी गयी-
ज़ालियों में............
आप क्या कहते हैं?
मेरी इच्छा थी कि सब से ज्वलंत पर अक्सर ही दरकिनार कर दिए जाने वाले इस विषय 'मैं' पर एक बहुत ही साधारण भाषा में ऐसी कविता लिखूं, जिसे समझने के लिए शब्द कोष या दिमागी घोड़े दौडाने की जरुरत न पड़े| मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पाया हूँ, आप लोग ही बता पायेंगे|
आप सो फ़ि सदी सफल रहे हैं नवीन जी इस मैं की महत्ता और उसके प्रभाव को दर्शाने में ... इस मैं से स्वयं का साक्षात्कार करवाने में ... बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंहैं ना सबके अंदर?
जवाब देंहटाएंकम या ज़्यादा!!!!!!
shat prtishat sahi
This 'मैं' very silently creeps and occupies a place in a person which he/she never becomes aware of.
जवाब देंहटाएं'मैं’ याने अहम!! सार्थक विश्लेषण किया है...न अत्याधिक अहम उचित है और न अहमरहित जीना....एक संतुलन की आवश्यक्ता है इस मैं के साथ.
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना.
बहुत ही सटीक और सार्थक विश्लेषण किया है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है नवीन जी! इसके जरिये आप जो कहना चाहते थे बखूबी कह गए हैं.
जवाब देंहटाएं----देवेंद्र गौतम
हमारा दिमाग तो अडि़यल टट्टू जैसा है, लेकिन लगा, प्रथम पुरुष-सर्वनाम 'मैं'
जवाब देंहटाएंमैं के द्वारा बुने जाल में हम फस ही जाते हैं।
जवाब देंहटाएंकि ये 'मैं' तो परवान चढ़ जाए
जवाब देंहटाएंऔर खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
'मैं' के द्वारा बुनी गयी-
ज़ालियों में............
जहाँ मैं आ जाता है वहीं उलझन बढ़ जाती है ..अच्छी प्रस्तुति
यह मैं मैं भी खूब रही भाई जी ! शुभकामनायें !!
जवाब देंहटाएंमैं का एहसास ही जीवन में सफल या असफल बनता है... जहाँ 'मैं' शकेस्पीयर के रोमांटिक नाटकों में प्रेम का सफल आधार बना है.. वहीँ हेमलेट जैसे नाटकों में त्रासदी का करन भी... 'मैं' पर आपकी यह कविता बेहतरीन बनी है...
जवाब देंहटाएंयही है ' मैं ' का मायाजाल .....
जवाब देंहटाएंनवीन जी मैं में तो सारी दुनिया अपना आपा खो बैठी है...दुनिया की सारी बड़ी लड़ाइयाँ इस मैं को संतुष्ट करने के लिए ही लड़ी गयीं हैं .
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं तो एक ऐसी सच्चाई है जिससे आपने इस कविता में रु-ब-रू कराया है यह आदमी को शेर से बकरी बनाता है और बकरी को शेर
लेकिन यह सब भी केवल एक भ्रम होता है जिसमे फंस कर आदमी अपनी जग-हँसाई कराता है...आपने सही कहा मैं को अपनी सही जगह पर छोड़ कर आगे बढ़ने में ही भलाई है बहुत सुन्दर भाव लिए एक दार्शनिक चिंतन ....बहुत ही सफल रचना
मैं की इस सार्थक परिभाषा के लिये हार्दिक बधाईयां...
जवाब देंहटाएंटोपी पहनाने की कला...
गर भला किसी का कर ना सको तो...
आपने बड़े प्रभावशाली ढंग से और सुगम सहज भाषा में इस "मैं" को प्रतिपादित किया है ! आपकी रचना हर दृष्टिकोण से स्वागत योग्य है ! बधाई एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंइस ‘मैं‘ का दीवाना तो बनूँ
जवाब देंहटाएंपर, उतना नहीं-
कि ये ‘मैं‘ तो परवान चढ़ जाए
और खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
‘मैं‘ के द्वारा बुनी गयी.
ज़ालियों में.......
आदमी के भीतर मौजूद दोनों ‘मैं‘ का अच्छा विश्लेषण किया है आपने। प्रभावशाली कविता के लिए बधाई।
कि ये 'मैं' तो परवान चढ़ जाए
जवाब देंहटाएंऔर खुद मैं-
उलझ के रह जाऊँ,
इस परवान चढ़े हुए,
'मैं' के द्वारा बुनी गयी-
ज़ालियों में............
मानव मनोविज्ञान का बहुत सुन्दर विवेचन..मैं का अनियंत्रित प्रभाव मनुष्य को हैवान भी बना देता है..बहुत सुन्दर और सशक्त रचना..
ये बकरी वाली 'में-में' नहीं है
जवाब देंहटाएंये वो 'मैं' है
जो आदमी को
शेर से
बकरी बनाता है..............
यह मैं ही ही तो आदमी के अन्दर जो बैठा रहता है और जब बाहर आता है तो कहीं 'मैं' कभी में में ''
बहुत ही बढ़िया रच
बहुत ही सटीक और सार्थक विश्लेषण किया है। धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआप लोगों के समर्थन और सराहना के लिए बहुत बहुत आभार:-
जवाब देंहटाएंदिगंबर नासवा जी
दिलबाग विर्क जी
कुंवर कुसूमेश जी
समीर लाल जी
वंदना जी
देवेन्द्र गौतम जी
राहुल सिंह जी
प्रवीण जी
संगीता जी
सतीश जी
अरुण जी
मोनिका जी
बृजेश जी
सुशील जी
साधना जी
महेंद्र जी
कैलाश जी
कविता जी
एवं patali जी [आप का नाम पता नहीं]
आद. नवीन जी,
जवाब देंहटाएंमैं पर आपकी सारगर्भित कविता' ने 'मैं ' के कई अछूते आयाम को रेखांकित किया है !
मौलिक सोच के साथ लिखी गयी कविता हेतु साधुवाद!
'मैं'..........बहुत सुन्दर विश्लेषण
जवाब देंहटाएं'जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नांहि'............कबीर
यही मै 'हम' को 'तुम' मे बदल देती है।कविता बहुत अच्छी लगी। आभार।
जवाब देंहटाएंWah ! Bhaisaab !! Aap ko naman !!
जवाब देंहटाएंचतुर्वेदी जी आपका प्रयास सफल है. जब मैं का सही इस्तेमाल हो तो दवा है नहीं तो ज़हर.
जवाब देंहटाएंदुनाली पर पढ़ें-
कहानी हॉरर न्यूज़ चैनल्स की
ज्ञान चंद्र मर्मज्ञ जी
जवाब देंहटाएंसुरेंद्र झंझट जी
अदरणीया निर्मला जी
शेखर जी
और
एम सिंह जी
उत्साह वर्धन के लिए आप सभी का सहृदय आभार..............