नमस्कार
कल क़रीब एक-डेढ़ साल बाद आदरणीय श्री योगराज
प्रभाकर जी की आवाज़ सुनाई पड़ी। लम्बी और अत्यधिक पीड़ादायक बीमारी के बाद आप हमारे
बीच लौटे हैं। आप के परिवारी जनों के साथ-साथ आप की वापसी हमारे लिये भी सौभाग्य
की बात है। सौभाग्य की बात इसलिये कि यह किरदार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
निरन्तर ही छन्द साहित्य की सेवा में लगा हुआ है। हम आप की स्वस्थ और दीर्घायु की
मङ्गल-कामना करते हैं। मैं एक बार फिर से लिखना चाहूँगा कि योगराज भाई जी ने मुझे
फेसबुकिया होने से बचाया और आज यह मञ्च जिस मक़ाम पर पहुँचा है उस में भी आप का
महत्वपूर्ण योगदान है। मञ्च के निवेदन पर आप ने अपने छन्द भेजे हैं, आइये पहले आप के
छंदों को पढ़ते हैं :-
मैं क्या हूँ? बस हूँ सिफ़र, तनहा, बे-औक़ात
साथ मिले गर 'एक' भी,
'नौ' को दे दूँ मात
'नौ' को दे
दूँ मात, सिफ़र से ‘दस’ हो जाऊँ
तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ
इसको दोस्त कदापि न समझो विकट समस्या
लाज़िम है यह साथ, वगरना तुम क्या मैं
क्या
तुम लय, सुर अरु ताल हो, ख़ुद में हो संगीत
तर्ज़ इधर बेतर्ज़ सी, तुम सुन्दरतम गीत
तुम सुन्दरतम गीत, बिखेरो छटा बसंती
मैं भटका सा राग, मगर तुम "जै जै
वंती"
मैं गरिमा से हीन, मगर हो गरिमामय तुम
मैं हूँ कर्कश बोल, मृदुल, मनुहारी लय तुम
हम के अन्दर हैं छिपे, हिंदू-मुस्लिम नाम
भीड़ पड़ी जब देश पर, दोनों आए काम
दोनों आए काम, कहाँ से नफ़रत आई
भारत माँ हैरान, लड़ें क्यों दोनों भाई
अपने झण्डे छोड़, उठायें क़ौमी परचम
इक माँ की सन्तान, बताएँ दुनिया को हम
सलिल जी की तरह ही योगराज जी के साथ भी भाषा
तथा छन्द वग़ैरह के विषय में लम्बी-लम्बी वार्ताएँ होती रही हैं। आप भाषाई चौधराहट
के मुखर विरोधी हैं। सिफ़्र [21] को सिफ़र [12] नज़्म करते हैं, वो भी धड़ल्ले के
साथ। सिफ़्र यानि शून्य। शून्य को ले कर आप ने जो छन्द कहा है उस पूरे छन्द की हर
एक पंक्ति बरबस ही आगे बढ़ते क़दमों को रोकती है। छंदों में अक्सर ही जो रूखापन दिखाई पड़ने लगा है
उस के कुछ कारण हैं मसलन [1] अत्यधिक शास्त्रीयता [2] वाक्यों का स्पष्ट-सरस-सरल न
होना [3] सार्थक संदेश की अनुपस्थिति और
[4] हृदय की बजाय मस्तिष्क का अधिक इस्तेमाल।
“तुम जो दे दो साथ, किसी गिनती में आऊँ” और “वगरना
तुम क्या मैं क्या” जैसे वाक्य सीधे दिल से निकले हुये वाक्य हैं। ‘गिनती’ वाले वाक्य में जहाँ हृदय का आर्तनाद है वहीं
‘वगरना’ वाले वाक्य में सार्थक संदेश
भी है। इन ही तत्वों से छन्द, छन्द बनता है।
तुम वाले छन्द को देखिये। ‘मैं‘ कुछ भी नहीं और ‘तुम’ सब कुछ, यही सब तो कहा जाना है। बस हम लोग कैसे-कैसे इस बात को कहते हैं, वह देखने जैसा होता है। एक-एक शब्द को पढ़ना बड़ा ही सुखद अनुभव है। अरे, इतनी मनुहार सुन कर तो पत्थरों का कलेज़ा भी पिघल जाये। जीते रहिये योगराज
जी।
‘हम’
वाले छन्द के ‘हम’ में ‘हिन्दू-मुस्लिम’एकता का नारा बुलन्द करने के लिये, 'क़ौमी परचम' यानि 'इन्सानियत का परचम' बुलन्द करने के लिये कवि को सादर प्रणाम। यार, यहाँ आप से जलन होती है, मैं ऐसा क्यूँ नहीं सोच पाया? तुस्सी ग्रेट हो भाई
जी। मालिक आप की हज़ारी उम्र करें। जीते रहिये, और यूँ ही ख़ुश
होने के मौक़े देते रहिये।
इस पोस्ट के दूसरे छन्दानुरागी हैं भाई दिगम्बर नासवा जी। पिछले आयोजन के दौरान समस्या-पूर्ति मञ्च पर हम उन के दोहे पढ़ चुके हैं। एक छन्द पुष्प
के साथ आप इस आयोजन में उपस्थित हो रहे हैं। आइये पढ़ते हैं आप का छन्द :-
'मैं' से
'हम' के बीच में बीते पच्चिस साल
अब क्या बोलूँ, क्या किया, इन सालों ने हाल
इन सालों ने हाल बिगाड़ा भर कर भुस्सा
माँ-बापू नाराज़, बहन-भाई भी गुस्सा
कहे दिगम्बर सास बहू का झगड़ा भारी
इस को सुलझाने में सारी दुनिया हारी
विश्वस्त सूत्रों [ J ] से पता
चलता है कि यह छन्द इन का अपना अनुभव नहीं है बल्कि किसी बहुत ही ख़ास मित्र का अनुभव है। भाई हमें भी आप के उस ख़ास मित्र से बेहद हमदर्दी है। और अगर यह आप का अनुभव भी होता तो क्या हुआ, सौ में से कम से कम, एक सौ एक लोगों के साथ ये समस्या है ही। फिर भी दिगम्बर भाई आप ने कमाल किया
है भाई और आप को इस कमाल के लिये बहुत-बहुत बधाई। आयोजन में हास्य-रस की कुछ कमी
खल रही थी, सो शेखर के बाद आप ने भी इस कमी को भरने में अच्छा योगदान दिया है। कुछ
मित्र कहते हैं कि मैं हास्य का विरोधी हूँ, ऐसा नहीं, मैं हास्य का विरोधी नहीं बल्कि चुटकुला-सम्मेलनों / गोष्ठियों को कवि-सम्मेलनों / गोष्ठियों की जगह
लेता देख कर दुखी अवश्य हूँ। चुट्कुले सुन कर हँसता हूँ और कविता की बदहाली पर रोता हूँ।
तो साथियो आप इन छंदों का आनन्द लीजियेगा, अपने बहुमूल्य विचारों
से अलङ्कृत कीजियेगा और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।
जितने छन्द आये सभी पोस्ट हो चुके हैं। अगर अन्य
साथी इस आयोजन से ख़ुद को दूर रखने के निर्णय पर क़ायम रहते हैं तो अगली पोस्ट समापन
पोस्ट होगी।
नमस्कार
अलग अलग छंदों के रस से तन मन सराबोर हो गया। आदरणीय योगराज जी के बेमिसाल छंद 'सिर्फ प्रशंसा' से बहुत ऊपर हैं। सब कुछ नवीन जी ने कह दिया है बाकी कुछ नहीं बचता। आदरणीय दिगंबर जी ने हास्य रस से आनंदित किया। सभी विद्वानों का हार्दिक आभार और नवीन जी को इस मंच के माध्यम से सबको जोड़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआभार बहुत बहुत ....
हटाएंआदरणीया कल्पना रामानी जी, आप जैसी विदुषी की सराहना पाना मेरे लिए बहुत गौरव की बात है. आपको छंद पसंद आए यह जान कर बहुत प्रसन्नता हुई, हार्दिक आभार आदरणीय।
हटाएंछंदों और संबंधों के बारे में कितना कुछ जानने को मिला।
जवाब देंहटाएंइसका सारा श्रेय भाई नवीन चतुर्वेदी जी को ही जाता है भाई प्रवीण पांडे जी.
हटाएंसतत अनुशरण कर रहा हूँ-
जवाब देंहटाएंआपकी प्रेरणा से-
सादर
मै मैगल अंकुश-रहित, *गलगाजन जलकेलि |
पग जकड़े गलग्राह जब, होय बंद अठखेलि |
*आनंद से गरजना
होय बंद अठखेलि, ताल में ताल ठोंकते |
लड़ें युद्ध गज-ग्राह, समूची शक्ति झोंकते |
शिथिल होंय पद-चार, शुण्ड ऊपर कर विह्वल |
त्राहिमाम उच्चार, हुआ प्रभुमै मै मैगल ॥
आभार आपके निराले अदा़ंज का ...
हटाएंतुम तुमड़ी तुल तुक तुमुल, सुन नागिन-मन नाँच |
हटाएंबिसराऊँ सुध-बुध जहर, शुद्ध तत्त्व हों पाँच |
शुद्ध तत्त्व हों पाँच, दूर हों नाग विषैले |
पड़े तुम्हारी आँच, कीर्ति दुनिया में फैले |
रविकर दर्शन साँच, भीड़ भारी है उमड़ी |
काँचुलि काँचन कांति, बढ़ाये तुर तुम तुमड़ी ||
रविकर ...एक ही तरह का खाद्य खाते-खाते, खिलाते-खिलाते स्वयं को भी अरुचि होने लगती है और क्वालिटी ऑफ़ वर्क...गिरने लगती है...होशियार....
हटाएंकलम की धार देखकर लगता नहीं कि योगराज जी इतनी लम्बी बीमारी से उबरकर आये हैं। ये धार यूँ ही बनी रहे और हमें यूँ ही शानदार छंदों की सौगात देती रहे। बहुत बहुत बधाई योगराज जी को।
जवाब देंहटाएंदिगंबर जी ने हास्य रस का छंद लिखकर शेखर जी के बाद फिर से रस परिवर्तन का कार्य किया है। इसके लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई।
सज्जन जी का बहुत बहुत आभार ...
हटाएंआ० भाई धर्मेन्द्र सिंह जी, यह सब आप सब मित्रों की दुयायों , पंजाबी फ़ूड और रशियन वोडका का कमाल है कि ये बंदा यमराज चाचा को भी गच्चा ( फिलहाल) देने में सफल रहा, वर्ना उसने तो ऊपर मेरे लिए फ्लैट बुक करवा के रखा था :) आप का अनुमोदन पाना मेरे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं, आपका दिल से शुक्रिया।
हटाएंअच्छे छंद हैं.....हाँ.. मैं ..सिफर या सिफ्र नहीं होता ....अन्यथा कवि क्यों कहता ....
जवाब देंहटाएं.."मैं अकेला ही चला था.....लोग आते गए कारवां बनता गया |."..यदि मैं में कुछ तथ्य नहीं होगा तो कोइ साथ या पीछे नहीं चलेगा ..तभी तो कृष्ण गीता में..मैं का प्रयोग करते हैं...
सिफर या सिफ्र नहीं होता
हटाएंमैं अकेला ही चला था.....
गीता
कृष्ण
मैं
खैर !! आपका तो माशाअल्लाह बाबा आदम ही निराला है परम आदरणीय श्याम गुप्ता जी.
kyaa baat hai yograj jee
हटाएंहमारी हाँ भी है और ना भी .....ना ना करते मान उन्हीं को हम बैठे...वाह! क्या निराला अंदाजा है जी......धन्यवाद...
हटाएंसभी छंद एक से बढ़ कर एक ! हर छंद की अलग बानगी एवं अलग प्रभाव ! माननीय योगीराज जी व नासवा जी को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें ! एवं आपको इस सफल आयोजन के लिए ढेर सारा साधुवाद !
जवाब देंहटाएंआ० साधना वैद जी - दिल से आभार।
हटाएंआदरणीय योगराज जी की प्रस्तुति पर कुछ कहूँ इतना मैं अपने को सक्षम नही समझता, आदरणीय योगराज जी से सदैव नया कुछ सीखने की प्रेरणा मिलती है. अतएव रचनाऑ को हमसे साझा करने हेतु आदरणीय योगराज जी को ह्रदय से आभार |
जवाब देंहटाएंआ, नासवा जी को भी सुन्दर छंद प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई
आ० सत्यनारायण सिंह जी आपकी बधाई सर आँखों पर, रचनायों को मान देने के लिए हार्दिक आभार।
हटाएंआदरणीय योगराज सर एवं नासवा सर को सुन्दर छंद प्रस्तुति के लिए सादर बधाई !!
जवाब देंहटाएंसफल आयोजन के लिए साधुवाद एवं उत्कृष्ट ज्ञानवर्द्धक छंद प्रस्तुतियों के लिए समस्यापूर्ति मंच का आभार !
आ० ऋचा शेखर मधु जी, आपके उत्साहवर्धन का दिल से आभारी हूँ.
हटाएंआ.योगराज जी एवं दिगम्बर जी के छंदों को पढ़कर मन प्रसन्न हो गया |आप महानुभवों को सादर बधाई
जवाब देंहटाएंआपको खुश देखकर मेरा भी मन बेहद खुश हुआ आ० खुर्शीद खैराड़ी जी, हार्दिक आभार।
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