31 मई 2013

एक नज़्म - नवीन

पिछले कई दिनों से लगातार अनेक नज़्में पढ़ने को मिलीं। कुछ बहुत अच्छी और कुछ अच्छी भी। आज अपने कॉलेज के ज़माने की डायरी पढ़ी, कितना कुछ बकवास भरा पड़ा है उस में। उस बहुत सारे बकवास में से कुछ ठीक-ठाक सी नज़्में हाथ लगीं तो सोचा एक को यहाँ चिपका देता हूँ ब्लॉग पर :)

कुकर से गैस
रिस रही थी हौले-हौले
बीच-बीच में
सुनाई भी पड़ रही थी
सीटी की आवाज़
उस की परिसीमाओं की आगाही
मगर सुना नहीं किसी ने
कुकर ने दी
एक और ज़ोरदार सीटी
गूँजी उस की चीख
"वक़्त हो चुका है.....
समाधान खोजो मेरा......
वरना फट जाऊँगा मैं.....
ध्वस्त कर डालूँगा तुम्हारी सारी साज-सज्जा.......
तुम्हारी काली करतूतों को......
विद्यमान कर दूँगा..... तुम्हारे मुखौटों पर....
चिन्ह रूप में......

मगर नहीं सुना
किसी ने भी नहीं सुना
और वही हुआ
जो चेतावनी थी
उस आग पर तपते प्रेशर कुकर की
हाँ उसी की तो
मज़बूरियों की आग में झुलसते
ज़माने की नज़रों में फालतू
बेबस मज़दूर की

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

30 मई 2013

बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या - नवीन

मुहतरम बानी मनचन्दा की साहब ज़मीन ‘क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या’ पर एक कोशिश।


बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या।
गढ़े हुये थे जो मुर्दे वे उठ के चलते क्या॥



हलाल हो के भी हमसे रिवाज़ छूटे नईं।
झुलस चुके हुये ज़िस्मों से बाल उचलते क्या॥



तरक़्क़ियों के तमाशों ने मार डाला हमें।
अनाज़ पचता नहीं धूल को निगलते क्या॥



डगर दिखाने गये थे नगर जला आये।
हवस के शोले दियों की तरह से जलते क्या॥



हरिक सवाल ज़ुरूरी हरिक जवाब अहम।
“हम आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या”॥






: नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन 
1212 1122 1212 22

28 मई 2013

बरसात पड़ रही है मगर नम नहीं ज़मीन - नवीन


हजरत अल्ताफ़ हुसैन साहब हाली की ज़मीन है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ” पर एक कोशिश

फ़ानी जहाँ में होनी है अपनी बसर कहाँ
पर इस से बच के जाएँ तो जाएँ किधरकहाँ?
फ़ानी - नश्वर / नाशवानबसर - गुजर-बसर / निर्वाह

ख़्वाबों ने हमको छोड़ा तो यादों ने धर लिया
तुम से मिले तो पायी फिर अपनी ख़बर कहाँ

हमसे कहो हो प्यार किया रस्म की तरह
उलफ़त में आप से भी हुई ना-नुकर कहाँ
उल्फ़त - प्रेम

हमने भी कैसी कैसी नज़ीरों को गढ़ दिया
शबनम कहाँ है और तेरी चश्मेतर कहाँ
नज़ीर - उदाहरण / प्रतीकचश्मेतर - भीगी आँख [आँसू के संदर्भ में]

बरसात पड़ रही है मगर नम नहीं ज़मीन
अब रहमतों में दिखता है वैसा असर कहाँ

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ

मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन
221 2121 1221 212

सच तभी हैं कि जब कोई माने- नवीन


जनाब शकेब ज़लाली साहब की ज़मीन कोई इस दिल का हाल क्या जाने’ पर एक कोशिश


सच तभी हैं कि जब कोई माने।
वरना झूठे हैं सारे अफ़साने॥



यह भी उलफ़त का ही करिश्मा है।
दर-ब-दर हो गये हैं दीवाने॥



इल्म जिन को नहीं पिलाने का।
भाड़ में जाएँ ऐसे पैमाने॥



हम ने बख़्शा ही क्या है लोगों को।
क्यों भला कोई हम को पहिचाने॥



यों ही थोड़ा ही जोश में है वह।
सर किये हैं सराब दरिया ने॥



अब तो बेगाने भी न काम आयें।
इस क़दर छल किये हैं दुनिया ने॥



मुठ्ठियाँ खुलती जा रही हैं रोज़।
लाज़िमी हो गये हैं तहखाने॥


सराब – मृगतृष्णा;






:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

2122 1212 22

जो कुछ भी हूँ पर यार गुनहगार नहीं हूँ - नवीन


हजरत अकबर इलाहाबादी साहब की ज़मीन बाज़ार से गुजरा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ’ पर एक कोशिश

जो कुछ भी हूँ पर यार गुनहगार नहीं हूँ
दहलीज़ हूँदरवाज़ा हूँदीवार नहीं हूँ

छह गलियों से असबाब चला आता है मुझ में
किस तरह से कह दूँ कि ख़रीदार नहीं हूँ
छह गली - छह इंद्रिय  असबाब - सामान

कल भोर का सपना है कोई बोल रहा था
इस पार ही रहता हूँ मैं उस पार नहीं हूँ

सब कुछ हूँ मगर वो नहीं जिस का हूँ तलबगार
मंज़र हूँमुसव्विर भी हूँमेयार नहीं हूँ
तलबगार - ढूँढने वाला / इच्छुकमंज़र - दृश्यमुसव्विर - चित्रकारमेयार - स्तर

जब कुछ नहीं करता हूँ तो करता हूँ तसव्वुर
इस तरह से जीता हूँ कि बेकार नहीं हूँ
तसव्वुर - कल्पना

:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122

समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता- नवीन


मुहतरम अमीर मीनाई साहब की ज़मीन सरकती जाये है रूख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता” पर एक कोशिश


समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता
करें भी क्या कि खुलते हैं सराब आहिस्ता-आहिस्ता 
सराब - मृगतृष्णा

हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
हमें होना था यारो क़ामयाब आहिस्ता-आहिस्ता

समय थमता नहीं है और बदन भी थक रहा है कुछ
बिखरते जा रहे हैं सारे ख़्वाब आहिस्ता-आहिस्ता

वही बज़्मेंवही रस्मेंवही ताक़तवही गुर्बत
उभरते जा रहे हैं फिर नवाब आहिस्ता-आहिस्ता
बज़्म - महफ़िलगुर्बत - ग़रीबी

किसी बेशर्म से मिन्नत नहीं सख़्ती से पेश आओ
ज़ुबाँ टपकायेगी सारे ज़वाब आहिस्ता-आहिस्ता

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222 1222 1222 1222 

दिल तो बच्चा है सो मचल बैठा - नवीन


शान-ए-शायरी हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन ‘दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है” पर एक जदीद  कोशिश:- 


यह न गाओ कि हो चुका क्या है।
यह बताओ कि हो रहा क्या है॥

ख़ुद भगीरथ भी सोचते होंगे।
क्या किया था मगर हुआ क्या है

आप कहते हैं तंग थीं गलियाँ।
शाहराहों से भी मिला क्या है॥

झोंपड़े ही बतायेंगे खुल कर।
आज कल मुल्क में हवा क्या है॥

बह्स-बाज़ों को कौन समझाये।
अब का तब से मुक़ाबला क्या है॥

हम फ़क़ीरों को तुम बताओगे।
बन्दगी क्या है और ख़ुदा क्या है॥

गर क़दीमी बचा नहीं सकती।
तो इलाज और दूसरा क्या है॥

दिल तो बच्चा है सो मचल बैठा।
कौन समझाये फ़लसफ़ा क्या है॥

क्लास में पूछता है इक बच्चा।
सर! मआनी ‘फ़िजूल’ का क्या है॥

झुक के बोला क़लम, इरेज़र से।
यार तुझको मुग़ालता क्या है॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन

2122 1212 22