मुहतरम अमीर मीनाई साहब की ज़मीन “सरकती जाये है रूख़ से नक़ाब
आहिस्ता-आहिस्ता” पर एक
कोशिश
समझ में आते हैं कुछ इन्क़लाब आहिस्ता-आहिस्ता
करें भी क्या कि खुलते हैं सराब आहिस्ता-आहिस्ता
सराब - मृगतृष्णा
हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
हमें होना था यारो क़ामयाब आहिस्ता-आहिस्ता
समय थमता नहीं है और बदन भी थक रहा है कुछ
बिखरते जा रहे हैं सारे ख़्वाब आहिस्ता-आहिस्ता
वही बज़्में, वही
रस्में, वही
ताक़त, वही
गुर्बत
उभरते जा रहे हैं फिर नवाब आहिस्ता-आहिस्ता
बज़्म - महफ़िल, गुर्बत - ग़रीबी
किसी बेशर्म से मिन्नत नहीं सख़्ती से पेश आओ
ज़ुबाँ टपकायेगी सारे ज़वाब आहिस्ता-आहिस्ता
:- नवीन
सी. चतुर्वेदी
बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
जवाब देंहटाएंहमें होना था यारो कामयाब आहिस्ता-आहिस्ता
सच में
बहुत खूब! लाजवाब कोशिश मैं तो बिलकुल समझ गया :)
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
हमारी कोशिशों को ये जहाँ समझा न समझेगा
जवाब देंहटाएंहमें होना था यारो कामयाब आहिस्ता-आहिस्ता ..
कामयाबी आहिस्ता ही मिलती है ...
बहुत ही लाजवाब शेर है नवीन भई ... गज़ल का हर शेर काबिले तारीफ़ है ....
सुन्दर और सार्थक
जवाब देंहटाएं