कविता - कुकर से गैस रिस रही थी धीरे धीरे - नवीन सी चतुर्वेदी

पिछले कई दिनों से लगातार अनेक नज़्में पढ़ने को मिलीं। कुछ बहुत अच्छी और कुछ अच्छी भी। आज अपने कॉलेज के ज़माने की डायरी पढ़ी, कितना कुछ बकवास भरा पड़ा है उस में। उस बहुत सारे बकवास में से कुछ ठीक-ठाक सी नज़्में हाथ लगीं तो सोचा एक को यहाँ चिपका देता हूँ ब्लॉग पर :)

कुकर से गैस
रिस रही थी हौले-हौले
बीच-बीच में
सुनाई भी पड़ रही थी
सीटी की आवाज़
उस की परिसीमाओं की आगाही
मगर सुना नहीं किसी ने
कुकर ने दी
एक और ज़ोरदार सीटी
गूँजी उस की चीख
"वक़्त हो चुका है.....
समाधान खोजो मेरा......
वरना फट जाऊँगा मैं.....
ध्वस्त कर डालूँगा तुम्हारी सारी साज-सज्जा.......
तुम्हारी काली करतूतों को......
विद्यमान कर दूँगा..... तुम्हारे मुखौटों पर....
चिन्ह रूप में......

मगर नहीं सुना
किसी ने भी नहीं सुना
और वही हुआ
जो चेतावनी थी
उस आग पर तपते प्रेशर कुकर की
हाँ उसी की तो
मज़बूरियों की आग में झुलसते
ज़माने की नज़रों में फालतू
बेबस मज़दूर की

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

2 टिप्‍पणियां:

  1. "वक़्त हो चुका है.....
    समाधान खोजो मेरा......
    वरना फट जाऊँगा मैं.....
    ध्वस्त कर डालूँगा तुम्हारी सारी साज-सज्जा.......
    तुम्हारी काली करतूतों को......
    विद्यमान कर दूँगा..... तुम्हारे मुखौटों पर....
    चिन्ह रूप में......

    सहजता से कही गहरी बात
    बहुत खूब
    बधाई

    मेरे ब्लॉग का अनुसरण करें
    तपती गरमी जेठ मास में---
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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  2. न जाने क्यों पर संकेत हम झुठलाते रहते हैं।

    जवाब देंहटाएं

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