मुहतरम बानी मनचन्दा की साहब ज़मीन ‘क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते
क्या’ पर एक कोशिश।
बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या।
गढ़े हुये थे जो मुर्दे वे उठ के चलते क्या॥
हलाल हो के भी हमसे रिवाज़ छूटे नईं।
झुलस चुके हुये ज़िस्मों से बाल उचलते क्या॥
तरक़्क़ियों के तमाशों ने मार डाला हमें।
अनाज़ पचता नहीं धूल को निगलते क्या॥
डगर दिखाने गये थे नगर जला आये।
हवस के शोले दियों की तरह से जलते क्या॥
हरिक सवाल ज़ुरूरी हरिक जवाब अहम।
“हम आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या”॥
गढ़े हुये थे जो मुर्दे वे उठ के चलते क्या॥
हलाल हो के भी हमसे रिवाज़ छूटे नईं।
झुलस चुके हुये ज़िस्मों से बाल उचलते क्या॥
तरक़्क़ियों के तमाशों ने मार डाला हमें।
अनाज़ पचता नहीं धूल को निगलते क्या॥
डगर दिखाने गये थे नगर जला आये।
हवस के शोले दियों की तरह से जलते क्या॥
हरिक सवाल ज़ुरूरी हरिक जवाब अहम।
“हम आ चुके थे क़रीब इतने बच निकलते क्या”॥
: नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ.
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22
बहुत उम्दा,लाजबाब प्रयास ,, बधाई
जवाब देंहटाएंRecent post: ओ प्यारी लली,
वाह।
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
जवाब देंहटाएंहमने पढ़ा....
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए शनिवार 01/06/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (31-05-2013) के "जिन्दादिली का प्रमाण दो" (चर्चा मंचःअंक-1261) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बदल बदल के भी दुनिया को हम बदलते क्या
जवाब देंहटाएंगढ़े हुये थे जो मुर्दे वो उठ के चलते क्या
वाह, मतले ने ही मार डाला