मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान - कल्पना रामानी

नमस्कार

खुर्शीद खैराड़ी भाई के दोहों ने माहौल में रंग जमा दिया है। उसी रंगत को और अधिक चटख बनाते दोहा मुक्तक ले कर आ रही हैं आदरणीया कल्पना रामानी जी। मञ्च के विशेष अनुरोध पर आप ने दोहा मुक्तकों की रचना की है, जिस के लिये मञ्च आप का आभारी है। दोहा मुक्तक आज कल अपने फ्लेवर के चलते कई रचनाधर्मियों को आकर्षित कर रहे हैं। दोहा मुक्तक में चार चरण होते हैं। चारों चरण बिलकुल दोहे के शिल्प के मुताबिक़ ही होते हैं। पहले, दूसरे और चौथे चरण की तुक समान और तीसरे चरण की तुक अ-समान होना अनिवार्य है। शेष इन मुक्तकों को देख कर भी आइडिया लगाया जा सकता है। दोहा मुक्तकों का ज़ायका आप को कैसा लगा, बताइएगा अवश्य:-

मेला है नवरात्रि का, फैला परम प्रकाश।
देवी की जयकार से, गूँज उठा आकाश।
माँ प्रतिमा सँग घट सजे, चला जागरण दौर।
आलोकित जीवन हुआ, कटा तमस का पाश।।

आस्तिकता, विश्वास में, भारत देश कमाल।
गरबा उत्सव की मचीचारों ओर धमाल।
शक्तिमान, अपराजिता, माँ दुर्गा को पूज।
अर्पित कर भाव्याञ्जलि , जन-जन हुआ निहाल।।

बड़े गर्व की बात है, भारत इक परिवार।
आता है जब क्वार का, शुक्ल पक्ष हर बार।
जुटते पूजा पाठ में, भेद भूल सब लोग।
दुर्गा मातु विराजतीं, घर-घर मय शृंगार।।

भक्ति-पूर्ण माहौल का, जब होता निर्माण।
दुष्ट-दुष्टतम रूह भी, बने शुद्धतम प्राण।
जीवन भर हों पाप में, रत चाहे ये लोग।
पर देवी से माँगते, मृत्यु-बाद निर्वाण।।

रमता मन नवरात में, त्याग, भोग-जल-अन्न।
इस विधि होता पर्व येनौ दिन में सम्पन्न।
मेले, गरबे, झाँकियाँ, सजते सारी रात।
देवी के आह्वान सेहोते सभी प्रसन्न।। 

दनुज नहीं तुम हो मनुज, मत भूलो इनसान।
नारी से ही बंधुवर, है आबाद जहान।
देवि-शक्ति माँ रूप है, नारी भव का सार।
मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान।।

"मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान"। काश यह बात उन दरिंदों को भी समझ आ जाती जिन्होंने पिछले साल राजधानी को शर्मसार किया था। आ. कल्पना दीदी, आप ने मेरी प्रार्थना स्वीकार की, उस के लिये पुन: आप का बहुत-बहुत आभार। तो साथियो, आनन्द लीजिये इन दोहा मुक्तकों और इन्हें नवाज़िए अपने सुविचारों के साथ। मैं तैयारी करता हूँ अगली पोस्ट की। 

नमस्कार  

विशेष निवेदन :- जिन साथियों ने अपने दोहे / दोहा मुक्तक भेजने हों, लास्ट में लास्ट बुधवार [9 अक्तूबर] तक भेजने की कृपा करें। 

मूरत को गलहार है, औरत को क्यूँ तौख - खुर्शीद खैराड़ी

नमस्कार

गरबा-डाण्डिया के साथ झूम-झूम जाने को आतुर सपनों की नगरी मुम्बई से आप सभी को सादर प्रणाम। हिन्दुस्तान यानि कोस-कोस पे पानी बदले तीन कोस पे बानी। अनेक भाषा-बोलियों से सम्पन्न है वह धरातल जहाँ पैदा होने का सौभाग्य मिला हम लोगों को। ये वह धरती है जहाँ तमाम अन्तर्विरोधों, असमञ्जसों और अराजकताओं के बावजूद आज भी गङ्ग-जमुनवी संस्कृति की जड़ें गहरे तक पैठी हुई हैं। इसी गङ्ग-जमुनवी संस्कृति की शोभा बढ़ाने आज हमारे बीच उपस्थित हो रहे हैं भाई खुर्शीद खैराड़ी फ़्रोम जोधपुर। आपने अपनी माँ-बोली खैराड़ी में भी दोहे भेजे हैं। तो आइये श्री गणेश करते हैं आयोजन का :-

राम घरों में सो रहे ,रावण है मुस्तैद
भोग रही है जानकी, युगों युगों से कैद

जगजननी जगदम्ब की, क्यूँ है मक़तल कोख
मूरत को गलहार है, औरत को क्यूँ तौख 

दीप जलाकर रोशनी, घर घर होती आज
फिर भी क्यूँ अँधियार का, घट-घट में है राज

सदियों से रावण दहन की है अच्छी रीत
फिर भी होती है बुरे लोगों की ही जीत

रोशन सारा देश है, जगमग जलते दीप
लेकिन अब भी गाँव हैं, अँधियारे के द्वीप

घर घर में आराधना, जिसकी करते लोग
उस देवी की दुर्दशा, देख हुआ है सोग

भूखे नंगे लोग है, गूँगी हर आवाज़
ग़ुरबत रावण हो गई, कौन करे आगाज़

दुर्गा दुर्गति नाशती, देती है सद्ज्ञान
फिर भी हम बन कर महिष,करते हैं अपमान

अँधियारे को जीतना, तुझको है 'खुरशीद'
जगमग करती भोर ही, तव दीवाली-ईद

तौख [तौक़] - कैदियों के गले में डालने की हँसली

खैराड़ी दोहावली

खांडा ने दे धार माँ, हाथां में दे ज़ोर
दुबलां रे हक़ लार माँ, सगती दूं झकझोर

चामुण्डा धर शीश पर, आशीसां रो हाथ
सामी रूं अन्याव रे, नीत-धरम रे साथ

जगमग जगमग दीवला, मावस में परभात
गाँव-गुवाङी चाँदणौ, कद होसी रुघनाथ

मंस-बली ना माँगती, सब जीवाँ री मात
दारू माँ री भेंट रो, भोपाजी गटकात

तोक लियो कैलास ने, रावण निज भुजपाण
नाभ अनय री भेद दी, एक राम रो बाण

कलजुग में दसमाथ रा,होग्या सौ सौ माथ
राम कठै घुस्या फरै, सीता इब बेनाथ

बरसां जूनी रीत है, बालां पुतलो घास
रावण मन रो बाळ लां, चारुं मेर उजास

जसयो हूं आछो बुरो, थारो हूं मैं मात
पत म्हारी भी राखजे, उजळी करजे रात

बायण थारे देवले, शीस  झुकाऊं आर
सब पर किरपा राखजे, बाडोली दातार

शब्दार्थ-खांडा-तलवार,दुबलां -कमज़ोर, रे-के, लार-साथ, सगती-शक्ति
सामी-सामने/विरुद्ध,रूं-रहूं,मावस-अमावस,गाँव-गुवाङी-गाँव तथा बस्ती
चाँदणौ-उजाला,कद-कब,रुघनाथ-रघुनाथ,मंस-माँसभोपाजी-पुजारी
चारुं मेर -चारों तरफ़,बायण-एक लोक देवी ,आर-आकरबाडोली -क्षेत्र विशेष की लोकदेवी

जे अम्बे
खुरशीद'खैराड़ी' , जोधपुर


मज़ा आ गया भाई। कुछ भी कहो देशी टेस्ट की बात ही अलग है। खैराड़ी भले ही हमारी माँ-बोली नहीं है पर ऐसा लाग्या खुर्शीद सा जी की आपणाँ मायड-बोली माँ ई बोल रया सी। भाई आप का बहुत-बहुत आभार, आप ने आयोजन का क्या ख़ूब श्री-गणेश किया है, जियो भाई, ख़ुश रहो।

दोस्तो ये वही दोहे हैं जो मैं कहना चाहता हूँ आप कहना चाहते हैं या कोई भी ललित कला प्रेमी कहना चाहेगा। यह विशेषता है इन दोहों की। इन में कुछ दोहे कुछ ज़ियादा ही ख़ास हैं, मुझे ख़ुशी होगी यदि उन दोहों को आप लोग कोट करें। तो साथियो आप आनन्द लीजिये इन दोहों का और मैं बढ़ता हूँ अगली पोस्ट की तरफ़। मुझे ख़ुशी होगी यदि आप लोग अपनी-अपनी माँ-बोली में कम से कम एक दोहा लिख कर भेजने की कृपा करें। 


विशेष निवेदन :- हाथ में पीलू की बेंत लिएँ घूमत भए मास्साब इधर आउते चीन्हौ तो कै दीजो कि जै बच्चन की किलास ए। 

नमस्कार।

हिन्दी ग़ज़ल सम्बन्धित प्रयोग - नवीन

आदरणीय विद्वत्समुदाय, सादर प्रणाम 

शायद मैं अभी तक ठीक से नहीं समझ पाया हूँ कि हिन्दी ग़ज़ल होती भी है या नहीं? और अगर होती है तो आख़िर होती क्या है? हिन्दी ग़ज़ल के बाबत अब तक जो कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता रहा है, उस से अभी तक न तो पूर्णतया संतुष्टि मिल पाई है और न ही इस असंतुष्टि का कोई स्पष्ट कारण बताना ही सम्भव हो पा रहा है। ये कुछ-कुछ ऐसा है कि गूँगे को मिश्री का स्वाद। बस, मन में आया चलो तज़रूबा  कर के देखें, सो किया। दूसरी बात, मैंने कभी अपने एक भ्रातृवत मित्र, जिन की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ और उन का स्नेह भी मुझे सहज ही उपलब्ध है, से एक बार मैं ने हर्फ़ गिराये बग़ैर ग़ज़ल कहने के लिये गुजारिश की थी – बस तभी से मन में था कि ख़ुद मैं भी तो यह कोशिश कर के देखूँ!!!!! बस इन्हीं वज़्हात के चलते एक कोशिश की है। उमीद करता हूँ इसे अदीबों की मुहब्बतें मिलेंगी। विद्वत-समुदाय के तार्किक, उपयोगी और स्पष्ट सु-विचारों का सहृदय स्वागत है 


सतत सनेह-सुधा-सार यदि बसे मन में 
मिले अनन्य रसानन्द स्वाद जूठन में

समुद्र-भूमि, तटों को तटस्थ रखते हैं 
उदारवाद भरा है अपार, कन-कन में

विकट, विदग्ध, विदारक विलाप है दृष्टव्य
समष्टि! रूप स्वयम का निहार दरपन में

विचित्र व्यक्ति हुये हैं इसी धरातल पर   
जिन्हें दिखे क्षिति-कल्याण-तत्व गो-धन में

ऋतुस्स्वभाव अनिर्वाच्य हो गया प्रियवर  
शरीर स्वेद बहाये निघोर अगहन में


सतत – लगातार, सनेह = प्रेम, सुधा – अमृत, अनन्य – बेजोड़, रसानन्द – रस+आनन्द, जूठन – जूठा खाना [यहाँ, शबरी ने राम को जो जूठे बेर खिलाये थे उस प्रसंग के सन्दर्भ के साथ] समुद्र-भूमि – समन्दर और ज़मीन, तट – साहिल, तटस्थ – न्यूट्रल, उदारवाद – ऐसे हालात जहाँ दूसरों के लिये गुंजाइश हो [यहाँ मुरव्वतों की तरह भी समझा जा सकता है], अपार – अत्यधिक, काफी, विकट – भीषण, विदग्ध – जलन भरा [कष्ट-युक्त, विदारक – फाड़ने वाला / तकलीफ़देह यानि पीड़ादायक के सन्दर्भ में , विलाप – रुदन, रोना-धोना, [है] दृष्टव्य – दिखाई पड़ रहा हैसमष्टि – ब्रह्माण्ड के लिये प्रयुक्त, विचित्र व्यक्ति – अज़ीब लोग, धरातल – धरती, क्षिति – धरती, क्षिति कल्याण तत्व – धरती की भलाई की बातें, गो-धन – गायों के लिये इस्तेमाल किया है, ऋतुस्स्वभाव – ऋतु:+स्वभाव=ऋतुस्स्वभाव यानि मौसम का मिज़ाज, अनिर्वाच्य – न कहे जाने लायक, स्वेद – पसीना, निघोर अगहन में – घोर अगहन के महीने में [अमूमन नवम्बर, दिसम्बर]


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन. 
1212 1122 1212 22


कल नवरात्रि का पहला दिन है, कल से नवरात्रि / नवदुर्गा / दशहरा आधारित दोहों वाला कार्यक्रम आरम्भ हो जायेगा। 

नाम उसका नहीं फ़साने में - अभिनव अरुण

नाम उस का नहीं फ़साने में,
मैं ही रुसवा हुआ ज़माने में ॥

उन चराग़ों को सौ दुआएँ दो,
ख़ुद जले तुम जिन्हें जलाने में ॥

इक भरम हैं चमन के रंगों-बू ,
है मज़ा तितलियाँ उड़ाने में ॥

जाने किस जाल में फँसे पंछी ,
बच्चे भूखे रहे ठिकाने में ॥

कैसे कह दूँ मकान छोटा है ,
उम्र गुज़री इसे बनाने में ॥

दर्द कब देखा तुम ने गंगा का ,
तुम तो मशगूल थे नहाने में ॥

ताज में वे भी दफ्न हैं 'अभिनव',
हाथ जिनके कटे बनाने में ॥

--- अभिनव अरुण

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून.
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन.

2122 1212 22

तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता - आदित्य चौधरी

तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता
जाना पहचाना लगता है ये रास्ता

उसके खेतों से और उसके खलिहान से
छोटे जुम्मन की फूफी की दूकान से
उसके कमज़ोर काँधों के सामान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

माँगते भीख इंसान इंसान से
सर्द रातों से लड़ती हुई जान से
और हर गाँव में बनते वीरान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

आँख से जो न टपकी हो उस बूँद से
कसमसाते हुए दिल की हर गूँज से
बिन लिखे उन ख़तों के मज़मून से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

करवटों से परेशान फ़ुटपाथ से
उस मुहल्ले के बिछड़े हुए साथ से
और हँसिए को थामे हुए हाथ से

मेरा है वास्ता, है मेरा वास्ता

उसके अल्लाह से और भगवान से
उसके भजनों से भी, उसकी अज़ान से
और दंगों में जाती हुई जान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

उसके चूल्हे की बुझती हुई आग से
उस हवेली की जूठन, बचे साग से
टूटी चूड़ी के फूटे हुए भाग से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

कम्मो दादी की धोती के पैबंद से
और पसीने की आती हुई गंध से
उसके जूआ छुड़ाने की सौगंध से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

उसकी छत से टपकती हुई बूँद से
सरहदों पर बहाए हुए ख़ून से
ज़ुल्म ढाते हुए स्याह क़ानून से

तेरा हो या न हो, तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता
जाना पहचाना लगता है ये रास्ता
कितना अपना सा लगता है ये रास्ता

मेरा है वास्ता, मेरा है वास्ता
मेरा है वास्ता, मेरा है वास्ता

: आदित्य चौधरी 
[संस्थापक - भारत कोष व ब्रज डिस्कवरी]

उफ़! मुशायरों की ये हालत - साजिद घायल

दोस्तो, दुबई में एक मुशायरा सुनने का मौक़ा मिला। सही मायनों में यह मेरा पहला एक्सपीरियन्स था। इस से पहले कभी ज़िन्दगी में ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया था। बस यू ट्यूब पर ही देखा था बुजुर्गों को शायरी पढ़ते हुये और मस्त सामईन को मस्त होते हुये। बहुत कुछ एकस्पेक्ट कर रहा था इस ख़ूबसूरत महफ़िल से, और जब मुनव्वर राणा भाई मुशायरे की निज़ामत करने वाले हों, इक़बाल अशहर शेर पढ़ने वाले हों तो एक्सपेक्टेशन और भी ज़ियादा बढ़ जाती है। 

पर वहाँ जा कर मैंने जो माहौल देखा, जो मंज़र देखा उस ने मुझे यह फ़ैसला लेने पर मज़बूर कर दिया कि यह मेरा आख़िरी मुशायरा है। आज के बाद मैं ज़िन्दगी में कभी कोई मुशायरा सुनने नहीं जाऊँगा। इस मुशायरे को क़ामयाब मुशायरा बनाने के लिये हमारी असोसियेशन की टीम ने अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह उन की मेहनतों का और नेक-नीयती का ही नतीज़ा था जो यहाँ दूर परदेश में ऐसी महफ़िल सजी थी। शायरों / कवियों का हुजूम भी देखने लायक था। ऐसा लग रहा था मानो आसमान के जगमगाते तारे ज़मीन पर उतर आये हों। 

लेकिन जिस तरह की बेहूदगी और गंदगी से एक बड़ी जमात ने यह मुशायरा सुना है, उस ने मेरी आँखें नम कर दीं। मुनव्वर भाई तक का मज़ाक बनाया जा रहा था, एक बड़ी भीड़ को यह तक पता नहीं था कि मुनव्वर भाई हैं कौन? और उन का मक़ाम क्या है? हर शायर और ख़ास कर शायरा को इस बेदर्दी से जलील किया जा रहा था कि मैं बयान नहीं कर सकता। ऐसे-ऐसे जुमले कसे जा रहे थे मानो हम किसी मुशायरे में नहीं बल्कि किसी तवायफ़ के कोठे पर बैठे हों। अरे मैं तो कहता हूँ कि कोठों पर भी एक अदब होता होगा, यहाँ तो वह भी नहीं था। सारे भाई जो यह तमाशा देख रहे थे वो सब यू. पी. से बिलोंग करते थे। यक़ीन जानिये उन की इतनी बड़ी भीड़ होने के बावजूद मैं यह कहने पर मज़बूर हो गया एक भाई से कि "किसी की बे-इज़्ज़ती कर के आप बड़े नहीं हो जाओगे मेरे भाई " 

मैं तो इसी नतीज़े पर पहुँचा हूँ अगर 10 शेरो-शायरी से मुहब्बत करने वाले लोग हों तो सिर्फ़ वही आपस में बैठें और एक दूसरे को सुनें - सुनाएँ। इस तरह के घटिया और गिरे हुये लोगों को बुला कर मुशायरा करना उर्दू को गाली देना है,  उर्दू को नंगा कर के उस से मुजरा करवाने जैसा है। और क्या-क्या बताऊँ - सीटियाँ बजाई जा रही थीं। एक शायर............. नाम याद नहीं आ रहा ............... उन्होंने गिड़गिड़ा कर कहा भी "भाई उर्दू वैसे ही बुरे दौर से गुजर रही है, प्लीज आप सब से गुजारिश है कि सीटियाँ न बजाएँ , यहाँ कोई नौटंकी नहीं हो रही" .... मगर किसी पर कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ा। 

क्यूँ होते हैं यह मुशायरे? क्या मतलब रह गया है ऐसे मुशायरों का? छी: मुझे तो अब घिन आ गयी है। अगर मेरी बातों से किसी के दिल को कोई चोट पहुँची हो तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, यह मेरी और सिर्फ़ मेरी जाती राय है............... मैं ग़लत भी हो सकता हूँ  

आबू धाबी से साजिद घायल via email - sajidghayel@gmail.com

बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं - नवीन

बोल-बचनों को सदाचार समझ लेते हैं।
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं॥

दूर अम्बर में कोई चश्म लहू रोती है।
हम यहाँ उस को चमत्कार समझ लेते हैं॥

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर।
हम यहाँ ख़ुद को कलाकार समझ लेते हैं॥

भूल कर भी कभी पैजनियाँ को पाज़ेब न बोल।
किस की झनकार है फ़नकार समझ लेते हैं॥

पहले हर बात पे हम लोग उलझ पड़ते थे।
अब तो बस रार का इसरार समझ लेते हैं॥

एक दूजे को बहुत घाव दिये हैं हमने।
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं॥

अपनी बातों का बतंगड़ न बानाएँ साहब।
सार एक पल में समझदार समझ लेते हैं॥

टीला – मिट्टी या रेट की बड़ी छोटी सी पहाड़ीकुहसार – पहाड़ [बहुवचन], चश्म – आँख, तसव्वुर – कल्पना, रार – लड़ाईइसरार – जिद / हठ [लड़ाई की वज़्ह]


फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फ़ालुन. 
बहरे रमल मुसम्मन मख़्बून मुसक्कन. 
2122 1122 1122 22 

दीवार काफ़िये पर मुक्तलिफ़ अशआर

काव्य की विधा कोई भी हो, महत्वपूर्ण होता है कि हम किस तरह से ख़याल को नज़्म करते हैं। विभिन्न रचनधर्मी किसी एक ही ख़याल या शब्द या बन्दिश को अलग-अलग किस तरह से नज़्म करते हैं, यह बानगी भी देखने लायक होती है। इस की शुरुआत हुई थी पिङ्गल आधारित समस्या-पूर्ति आयोजनों से। कालान्तर में जब पिङ्गल से बढ़ कर अरूज़ का जन्म हुआ तो वहाँ भी तरही जैसे कार्यक्रम चलन में आये। कोई भी देश-काल-वातावरण-व्यक्ति-वस्तु-स्थिति वग़ैरह होमनुष्य को दरकार रहती है एक अदद एक्टिविटी की – जिस के ज़रिये वह अपनी कलाकारी [क्षमता] का प्रदर्शन कर सके। ग़ज़ल के तरही आयोजनों में इस तरह के नज़्ज़ारे भरपूर देखने को मिलते हैं। लफ़्ज़ की वेबसाइट पर ज़ारी 12 वीं तरही में तमाम शायरों ने एक ही क़ाफ़िये ‘दीवार’ को किस-किस तरह से नज़्म किया है, उस की झलकियाँ देखियेगा। स्थापित रचनाधर्मियों के लिये जहाँ एक ओर यह सबबे-लुत्फ़ है वहीं मेरे जैसे अनाड़ियों के लिये सीखने का ज़रीया। तरही में आई हुई ग़ज़लों के क्रम में ही उन के शेर लिये जा रहे हैं  :-

हवा आयेगी आग पहने हुए
समा जायेगी घर की दीवार में – स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’

स्वप्निल बेसिकली गीत के व्यक्ति हैं इसलिए इन की ग़ज़लों में गीतात्मकता प्रचुर मात्रा में मिलती है। हवा का आग पहन कर आना उस का एक अच्छा उदाहरण है।

पता तो चले कम से कम दिन तो है
झरोखा ये रहने दो दीवार में – याक़ूब आज़म

याक़ूब आज़म साहब बंधनों के साथ-साथ कुछ-कुछ आज़ादी की पैरवी भी कर रहे हैं। बहुत ख़ूब।

न परदा ही सरका, न खिड़की खुली
ठनी थी गली और दीवार में – गौतम राजरिशी

मिलिट्री वाले गौतम राजरिशी ग़ज़ल को बसन्ती चोला पहनाते रहते हैं, यहाँ भी उन का वही रूप मुखरित हुआ है ।  फ़ौजी भाई कमाल किया है आपने, जीते रहिये।

पहाड़ों में खोजूँगा झरना कोई
मैं खिड़की तलाशूँगा दीवार में – सौरभ शेखर

सौरभ, बातों को गहराई में उतर कर पकड़ते हैं और बहुत बार संकोच तो बहुत बार आवेश के साथ पटल पर रख देते हैं। निराशापूर्ण वातावरण में आशा की किरण ढूँढता उन का किरदार यहाँ मुख़ातिब है हमसे।

पसे-दर मकां में सभी अंधे हैं
दरीचे हज़ारों हैं दीवार में – खुर्शीद खैराड़ी
पसेदर – दरवाज़े के पीछे, दरीचा – खिड़की

खुर्शीद साहब को पहली बार पढ़ने का मौक़ा मिला और सभी ने मुक्त कण्ठ से आप की प्रशंसा की है। बड़ी ही मँझी हुई ग़ज़ल पेश की है आप ने। हमारे समय के विरोधाभास को बड़े ही सलीक़े से लपेटा है आप ने दीवार क़ाफ़िये के ज़रीए। अलबत्ता आप का ऊला मिसरा थोड़ी मेहनत ज़रूर माँग रहा है। आय मीन मिसरे के अन्त में बोलने में लड़खड़ाहट उत्पन्न हो रही है। लेकिन भरपूर ग़ज़ल के भरपूर शेर के लिये आप मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं।

हवा, रौशनी, धूप आने लगें
खुले इक दरीचा जो दीवार में – अदील जाफ़री

अदील जाफ़री साहब ने भी निराशा में आशा को ढूँढने का अच्छा प्रयास किया है।

हरिक संग शीशे सा है इन दिनों
नज़र आता है मुँह भी दीवार में – मयंक अवस्थी
संग – पत्थर

मयंक जी लीक से हट कर चलने वाले शायर हैं। आप का उक्त शेर मेरी बात की तसदीक़ करता है। दीवार में शीशे का तसव्वुर  बरबस ही मुँह से वाह कहलवा देता है । इसी शेर का एक फ्लेवर यह भी है कि अब विरोधाभास, समस्याएँ, अवरोध वग़ैरह सेल्फ़-एक्सप्लनेटरी हो चुके हैं – यानि ग़ालिब की तरह अब “दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है? आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?” टाइप सवालात की दरकार नहीं है। बच्चे भी बता सकते हैं – वॉट्स रूट लेवल कॉज़ ऑफ द प्रोब्लेम।

फिर इक रोज़ दिल का खँडर ढह गया
नमी थी लगातार दीवार में – नवनीत शर्मा

दीवार में नमी होने के कारण दिल के खण्डहर का ढह जाना! भाई वाह!! क्या बात है!!! शायर ने कमाल किया है यहाँ।

नदी सर पटकती रही बाँध पर
नहीं राह मिल पाई दीवार में – दिनेश नायडू

दिनेश नायडू इंजीनियरिंग से जुड़े व्यक्ति हैं और देखिये अभियन्ता ने बाँध से क्या मंज़र चुराया है। बहुत ख़ूब। इस तरह की अभियांत्रिकीय कल्पनाएँ धर्मेन्द्र कुमार सज्जन की रचनाओं में देखने का आदी रहा हूँ मैं अब दिनेश भी इन इमकानात से लबरेज़ दिखाई पड़ रहे हैं। जीते रहिये। 

खुला भेद पहली ही बौछार में
कई दर निकल आये दीवार में – इरशाद ख़ान सिकन्दर

इरशाद अपनी सहज और सरस बेबाक़ी के लिये मक़बूल हैं और आप का उपरोक्त शेर इस बात की पुष्टि करता है। यानि शायर ने अपनी बात कह दी – अब सोचना शुरू करें लोगबाग........

उदासी भी उसने वहीं पर रखी
ख़ुशी का जो आला था दीवार में – शबाब मेरठी

शबाब साहब देशज प्रतीकों को बड़ी ही सुंदरता के साथ नज़्म करते हैं, यहाँ भी आप ने ‘आला’ शब्द / प्रतीक के ज़रीए अपनी उसी कारीगरी का भरपूर प्रदर्शन किया है। क्या बात है।

ये छत को सहारा न दे पायेगी
अगर इतने दर होंगे दीवार में – आदिक भारती

ग़ज़ल में ख़याल पर ख़याल निकल कर आते हैं। इरशाद भाई के बाद आदिक साहब की ग़ज़ल आई थी। मुमकिन है आप ने इरशाद के ख़याल पर ख़याल बाँधा हो या यह भी हो सकता है कि ख़यालों का टकराना महज़ एक इत्तेफ़ाक़ हो। जो भी हो, तरही की पहली 14 ग़ज़लों में ‘दीवार’ क़ाफ़िया की इतनी अच्छी गिरह आप के हिस्से आयी, आप को भरपूर बधाइयाँ।

फ़क़त एक दस्तक ही बारिश ने दी
दरारें उभर आईं दीवार में – विकास शर्मा ‘राज़’

यहाँ भी ख़याल की रिपीटेशन है और यक़ीनन यह संयोग वश ही होगा। हालाँकि इस से बचा भी जा सकता है, परन्तु अधिकतर लोग तरही ग़ज़लों को उतनी गम्भीरता से नहीं लेते। अन्तर सिर्फ़ दरवाज़ा और दरार का है। चूँकि इरशाद और विकास दौनों ही मेरे गुरूभाई हैं, इसलिए थोड़ा अधिकार समझते हुये इस बात को रेखांकित किया है ताकि अगर बात उचित लगे तो भावी आयोजनों में इस तरह के दुहराव को अवॉइड किया जा सके।

कोई मौज बेचैन है उस तरफ़
लगाये कोई नक़्ब दीवार में – पवन कुमार
मौज – लहर, नक़्ब – सेंध

प्रशासनिक सेवा से जुड़े पवन जी की फ़िक्र हमें यह सोचने पर मज़बूर कर देती है कि साहित्य के लिये क्या वाक़ई पूर्ण-कालिक इबादत ज़रूरी है? न सिर्फ़ इन की फ़िक्र में इन की छाप स्पष्ट रूप से द्रष्टव्य होती है, बल्कि उस में निरन्तरता का पुट भी विद्यमान रहता है। दीवार के उस पार की लहर को इस पार लाने के लिये दीवार में सेंध.............. , अद्भुत सोच और विलक्षण सम्प्रेषण। यदि आप को मेरा कहा अतिशयोक्ति लगे तो इस बयान को किसी प्रशासनिक अधिकारी के अनुभव / सरोकार / राय वग़ैरह से सम्बन्धित सांकेतिक-अनुदेश के सन्दर्भ के साथ देखिये और इस की गहराइयों की थाह लेने की कोशिश कीजिये।

मुहब्बत को चुनवा के दीवार में
कहां ख़ुश था अकबर भी दरबार में – शफ़ीक़ रायपुरी

शफ़ीक़ साहब ने भी क्या ख़ूब निभाया है ‘दीवार’ क़ाफ़िये को। इस शेर की एक और ख़ूबी है कि इस के ऊला और सानी मिसरे को अदल-बदल करने पर लुत्फ़ बढ़ जा रहा है। उस्तादों वाला काम।

फिराती रही वहशते-दिल मुझे
न दर में रहा और न दीवार में – असलम इलाहाबादी

वहशतेदिल का भटकाव बख़ूबी नज़्म किया गया है अलबत्ता ‘दर / दीवार - में’ थोड़ा-थोड़ा ‘दर / दीवार - पर’ जैसा दृश्य दिखला रहे हैं, पर चल जाने लायक है। तुफ़ैल साहब से भी बात हुई थी इस शेर पर।

दबाया था आहों को मैंने बहुत
दरार आ गयी दिल की दीवार में – तुफ़ैल चतुर्वेदी

शुरुआत की अमूमन सभी ग़ज़लों में ‘दीवार’ क़ाफ़िये को नज़्म किया गया फिर यक-ब-यक  अनेक ऐसी ग़ज़लें आईं जिन में यह क़ाफ़िया नज़्म नहीं किया गया। अब फिर से इस की आमद शुरू हुई है। आदिक साहब का नज़्म किया हुआ ‘दीवार’ क़ाफ़िया अभी भी हमें अपने सुरूर में जकड़े हुये है पर यहाँ जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब ने भी दावेदारी पेश कर दी है। एक्यूरेटली डिजाइन्ड लिटरली परफेक्ट पिक्चर पोर्ट्रेट है यह शेर। तर्क पर कसें तो भी कुछ कमी नहीं है और 99.99% ख़याल भी नया है।

दरीचों से बोली गुज़रती हवा
कोई दर भी होता था दीवार में – आदिल रज़ा मंसूरी

शेर का मज़ा यही है कि उस के मुक्तलिफ़ मायने निकलें। मैं इस शेर को महँगाई से जोड़ कर पढ़ रहा हूँ और लुत्फ़ भी ले रहा हूँ। बढ़िया शेर है।

मिरे इश्क़ का घर बना जब, जुड़ी
तिरे नाम की ईंट दीवार में – प्रकाश सिंह अर्श

प्रकाश भाई को बधाई इस शेर के लिये।

प्रकाश सिंह अर्श की ग़ज़ल 29वें नम्बर पर आई और 25 सितम्बर बुधवार रात तक कुल जमा 35 ग़ज़लें आ चुकी हैं। शायद यहाँ तरही का समापन भी हो चुका है। अर्श के बाद की ग़ज़लों में भी ‘दीवार’ क़ाफ़िया नज़्म नहीं किया गया।


तो दोस्तो यह एक सफ़र था, मेरा साथ इस सफ़र पर चलने के लिये आप का बहुत-बहुत आभार। आप को यह आलेख कैसा लगा, बताइएगा अवश्य।