आदरणीय विद्वत्समुदाय, सादर
प्रणाम
शायद मैं अभी तक ठीक से नहीं समझ पाया हूँ कि हिन्दी ग़ज़ल होती
भी है या नहीं? और अगर होती है तो आख़िर होती क्या है? हिन्दी ग़ज़ल के बाबत अब तक जो कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता रहा है, उस से अभी तक न तो पूर्णतया संतुष्टि मिल पाई है और न ही इस असंतुष्टि का
कोई स्पष्ट कारण बताना ही सम्भव हो पा रहा है। ये कुछ-कुछ ऐसा है कि गूँगे को
मिश्री का स्वाद। बस, मन में आया चलो तज़रूबा कर के देखें, सो किया।
दूसरी बात, मैंने कभी अपने एक भ्रातृवत मित्र, जिन की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ और उन का स्नेह भी मुझे सहज ही उपलब्ध है, से एक बार मैं ने हर्फ़ गिराये बग़ैर ग़ज़ल कहने के लिये गुजारिश की थी – बस
तभी से मन में था कि ख़ुद मैं भी तो यह कोशिश कर के देखूँ!!!!! बस इन्हीं वज़्हात के
चलते एक कोशिश की है। उमीद करता हूँ इसे अदीबों की मुहब्बतें मिलेंगी। विद्वत-समुदाय
के तार्किक, उपयोगी और स्पष्ट सु-विचारों का सहृदय स्वागत है
सतत सनेह-सुधा-सार यदि बसे मन में
मिले अनन्य रसानन्द स्वाद जूठन में
समुद्र-भूमि, तटों
को तटस्थ रखते हैं
उदारवाद भरा है अपार,
कन-कन में
विकट, विदग्ध, विदारक विलाप है दृष्टव्य
समष्टि! रूप स्वयम का निहार दरपन में
विचित्र व्यक्ति हुये हैं इसी धरातल पर
जिन्हें दिखे ‘क्षिति-कल्याण-तत्व’ गो-धन में
ऋतुस्स्वभाव अनिर्वाच्य हो गया प्रियवर
शरीर स्वेद बहाये निघोर अगहन में
सतत – लगातार, सनेह = प्रेम, सुधा –
अमृत, अनन्य – बेजोड़, रसानन्द –
रस+आनन्द, जूठन – जूठा खाना [यहाँ,
शबरी ने राम को जो जूठे बेर खिलाये थे उस प्रसंग के सन्दर्भ के साथ] समुद्र-भूमि –
समन्दर और ज़मीन, तट – साहिल, तटस्थ –
न्यूट्रल, उदारवाद – ऐसे हालात जहाँ दूसरों के लिये गुंजाइश
हो [यहाँ मुरव्वतों की तरह भी समझा जा सकता है], अपार – अत्यधिक, काफी, विकट – भीषण, विदग्ध –
जलन भरा [कष्ट-युक्त, विदारक – फाड़ने वाला / तकलीफ़देह यानि
पीड़ादायक के सन्दर्भ में , विलाप – रुदन, रोना-धोना, [है] दृष्टव्य – दिखाई पड़ रहा है, समष्टि – ब्रह्माण्ड के लिये प्रयुक्त, विचित्र व्यक्ति – अज़ीब लोग, धरातल –
धरती, क्षिति – धरती, क्षिति कल्याण
तत्व – धरती की भलाई की बातें, गो-धन – गायों के लिये
इस्तेमाल किया है, ऋतुस्स्वभाव – ऋतु:+स्वभाव=ऋतुस्स्वभाव
यानि मौसम का मिज़ाज, अनिर्वाच्य – न कहे जाने लायक, स्वेद – पसीना, निघोर अगहन में – घोर अगहन के महीने
में [अमूमन नवम्बर, दिसम्बर]
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ.
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन.
1212 1122 1212 22
कल नवरात्रि का पहला दिन है, कल से नवरात्रि / नवदुर्गा / दशहरा आधारित दोहों वाला कार्यक्रम आरम्भ हो जायेगा।
मुझे तो लगता है कि ग़ज़ल कहने के बाद उसे छोड़ दिया जाये पाठक/श्रोता के निर्णय के लिये। रचयिता का रचना पर अधिकार तो रचने तक होता है।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल जिन तत्वों से परिभाषित होती है वो तो बदल नहीं सकते, बात रह जाती है शब्द-भंडार, शबद-रूप और वाक्य-रचना के व्याकरण की।
आदरणीय प्रणाम। ग़ज़ल की राहों के पुराने मुसाफ़िर हैं आप। अन्तर्जालीय तुकबंदी के दौर में भी आप की बातों से सार ग्रहण करते रहे हैं हम लोग। मुझे ख़ुशी होगी यदि आप 'हिन्दी-ग़ज़ल' के बारे में अपने विचार व्यक्त करें। नमन।
हटाएं☆★☆★☆
विलक्षणं च शिवं सुंदरं च मनहरणं
नवीन नित्य करे नवप्रयोग लेखन में
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आशुकवि का अर्थ अगर कोई पूछे तो मैं एक सेकण्ड में कह सकता हूँ आशुकवि यानि 'राजेन्द्र स्वर्णकार' जैसा कवि। आभार भाई।
हटाएंयह एक अच्छा हिन्दी श्लोक है....
हटाएंवाह ! बहुत सुंदर लाजबाब प्रयोग के लिए बधाई .!
जवाब देंहटाएंRECENT POST : पाँच दोहे,
आभारी हूँ मान्यवर
हटाएंग़ज़ल अप्रतिम - अद्भुत सौन्दर्य और आकर्षण से परिपूर्ण है आदरणीय नवीन जी और पोस्ट में शामिल आपके विचार अत्यंत उपयोगी और विचारपरक हैं | साधुवाद !!
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिये बहुत-बहुत आभार बन्धुवर। इस विषय पर आप की राय की प्रतीक्षा है।
हटाएंआपको ढेरों शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार प्रवीण भाई
हटाएं---- एक हिन्दी ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंतू वही है
तू वही है |
प्रश्न गहरा ,
तू कहीं है |
तू कहीं है,
या नहीं है |
जहाँ ढूंढो ,
तू वहीं है |
तू ही तू है,
सब कहीं है |
जो कहीं है ,
तू वही है |
वायु जल थल ,
सब कहीं है |
मैं जहां है,
तू नहीं है |
तू जहां है ,
मैं नहीं है |
मैं न मेरा,
सच यही है |
तत्व सारा,
बस यही है |
मैं वही हूँ ,
तू वही है |
प्रश्न का तो,
हल यही है |
श्याम ही है,
श्याम ही है ||
कलापक्ष के अनुसार सुन्दर ग़ज़ल है ...हाँ भाव पक्ष एवं अर्थ-प्रतीति एक दम अस्पष्ट है जो निश्चय ही सायास शब्दों को लाने के प्रयास में होती है ...यथा ...
जवाब देंहटाएंविचित्र व्यक्ति हुये हैं इसी धरातल पर
जिन्हें दिखे ‘क्षिति-कल्याण-तत्व’ गो-धन में ......क्या गोधन में क्षिति-कल्याण तत्व का दिखना ..विचित्र भाव है....? ..
आप के विचारों का स्वागत है मान्यवर
हटाएंविवेच्य शेर में तंज़ का भाव अंतर्निहित है, इसे sataire के point of view के साथ पढ़ने की कृपा करें।
सृजन को भाषा के बंधन में बाँधना ... पता नहीं कहां तक उचित है ...
जवाब देंहटाएंपर हमें तो रस का ध्यान रहता है ... जहां से भी मिले ... जैसे भी मिले ...
आप की अनमोल राय का स्वागत है भाई जी, ख़ुश रहें
हटाएंयदि हिन्दी ग़ज़ल ऐसी होती है तो ईश्वर कभी किसी से हिन्दी ग़ज़ल न कहवाये।
जवाब देंहटाएंस्माइली छूट गया था। :)
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