जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा - नवीन

जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
सीधा मन्तर पढ़ते-पढ़ते उल्टा मन्तर पढ़ बैठा

वो ऐसा तस्वीर-नवाज़ कि जिस को मैं जँचता ही नहीं
और एक मैं, हर फ्रेम के अन्दर चित्र उसी का जड़ बैठा

ज्ञान लुटाने निकला था और झोली में भर लाया प्यार
मैं ऐसा रँगरेज़ हूँ जिस पे रङ्ग चुनर का चढ़ बैठा

परसों मैं बाज़ार गया था दरपन लेने की ख़ातिर
क्या बोलूँ दूकान पे ही मैं शर्म के मारे गड़ बैठा

बाकी बातें फिर कर लेङ्गे - आज ये गुत्थी सुलझा लें
धरती कङ्कड़ पर बैठी - या फिर - उस पर कङ्कड़ बैठा

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं - सालिम सलीम

दालान में कभी-कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
सायों के इंतिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गयी ख़ाक भी मेरी
क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बेकनार
आँखों में अपनी ले के समुन्दर खड़ा हूँ मैं
सहरा – रेगिस्तान, कनार – [समुद्र का] किनारा

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ
बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स आज रात
लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

इक हाथ में है आईना-ए-ज़ात-ओ-कायनात
इक हाथ में लिये हुये पत्थर खड़ा हूँ मैं 


बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

 221 2121 1221 212

हाथ हमारे सब से ऊँचे, हाथों ही से गिला भी है - रईस फ़रोग़

हाथ हमारे सब से ऊँचे, हाथों ही से गिला भी है
घर ऐसे को सौंप दिया जो आग भी है और हवा भी है

अपनी अना का जाल किसी दिन पागल-पन में तोड़ूँगा
अपनी अना के जाल को मैं ने पागल-पन में बुना भी है

दिये के जलने और बुझने का भेद समझ में आये तो क्या
इसी हवा से जल भी रहा था इसी हवा से बुझा भी है

रौशनियों पर पाँव जमा के चलना हम को आये नहीं
वैसे दर-ए-ख़ुर्शीद तो हम पर गाहे-गाहे खुला भी है

दर्द की झिलमिल रौशनियों से बारह ख़्वाब की दूरी पर
हम ने देखी एक धनक जो शोला भी है सदा भी है

तेज़ हवा के साथ चला है ज़र्द मुसाफ़िर मौसम का
ओस ने दामन थाम लिया तो पल दो पल को रुका भी है

साहिल जैसी उम्र में हम से सागर ने इक बात न की
लहरों ने तो जाने का-क्या कहा भी है और सुना भी है

इश्क़ तो इक इल्ज़ाम है उस का वस्ल को तो बस नाम हुआ
वो आया था क़ातिल बन के क़त्ल ही कर के गया भी है 

रईस फ़रोग़

फिर विचारों पर सियासी रंग गहराने लगे, - अशोक रावत

फिर विचारों पर सियासी रंग गहराने लगे,
फिर छतों पर लाल-पीले ध्व ज नज़र आने लगे.

रंग पिछले इश्तलहारों के अभी उतरे नहीं,
फिर फ़सीलों पर नये नारे लिखे जाने लगे.

अंत में ख़ामोश होकर रह गए अख़बार भी,
साजि़शों में रहबरों के नाम जब आने लगे.

आज अपनी ही गली में से गुज़रते डर लगा,
आज अपने ही शहर के लोग अनजाने लगे.

जान पाए तब ही कोई पास में मारा गया,
जब पुलिसवाले उठाकर लाश ले जाने लगे.

हो गईं वीरान सड़कें और कर्फ़्यू लग गया,
फिर शहर के आसमॉं पर गिद्ध मॅंडराने लगे.

अशोक रावत

काला तिल नसवारी आँखें – नज़ीर जालन्धरी

काला तिल नसवारी आँखें
हैं मश्कूक तुम्हारी आँखें

सब्र की रिश्वत माँग रही हैं
साजन की पटवारी आँखें

जब भी शॉपिंग करने निकलो
फ़िट कर लो बाज़ारी आँखें

लरज़ गया तन मेरा, उस ने –
ऐसे जोड़ के मारी आँखें

पास मेरे आ बच के, बचा के
देखती हैं सरकारी आँखें

जी में है छुप जाऊँ उन में
हाय तेरी अलमारी आँखें

नज़ीर जालन्धरी

जो दिल से गुजरती है पुरवाई महकती है - हसन फतेहपुरी

जो दिल से गुजरती है पुरवाई महकती है
इस प्यार की ख़ुशबू से अँगनाई महकती है

उस फूल से चेहरे को एक बार ही देखा था
और आज तलक मेरी बीनाई महकती है
बीनाई – दृष्टि

मेंहदी लगे हाथों की दालान में ख़ुशबू है
खेतों की मुँडेरों पर शहनाई महकती है

घर वालों से छुप-छुप कर मिलते थे जहाँ हम-तुम
उस गाँव की सरहद की अमराई महकती है

मज़दूरों का जज़्बा भी था शाहजहाँ जैसा
पत्थर में मुहब्बत की सच्चाई महकती है

कल रात हसन मेरे ख़्वाबों में वो आया था
अब तक मेरे कमरे की तनहाई महकती है 

:- हसन फतेहपुरी


बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन

221 1222  221 1222

राजस्थानी गजल - है दसूं दिश अमूझो घणो श्हैर में - राजेन्द्र स्वर्णकार

है दसूं दिश अमूझो घणो श्हैर में
म्हैं  रैवूं बैवतो आपरी लै’र में
दसों दिशाओं में दमघोटू गुम्फन है इस शहर में
(लेकिन) मैं अपनी ही मौज में (इन सबसे अछूता) घूमता रहता हूं

भीड़ मांहीं मुळकता म्हनैं बै मिळ्या
ले लियो म्हैं अमी रौ मज़ो ज्हैर में
भीड़ में मुझे मुस्कुराती हुई वे मिल गईं
मैंने ज़हर में भी अमृत का आनंद पा लिया

कोई अणजाण बाथां में जद आयग्यो
भेद रैयो कठै आपणै-गैर में
जब कोई अपरिचित बाहों में समा गया तो
अपने-पराये का भेद कहां रहा

भाव कंवळा सवाया हुया प्रीत में
ज्यूं कै बिरखा रौ पाणी मिळ्यो न्हैर में
प्यार में कोमल भावों में श्रीवृद्धि हुई
मानो नहर में वर्षा का शुद्ध जल मिल गया

रीस रै मिस लड़ण’ बै घरै आयग्या
नीं इंयां धन कियो बै म्हनैं म्हैर में
गुस्से के बहाने झगड़ने वे घर आ गईं
मेहरबां हो'कर कभी उन्होंने ऐसे धन्य नहीं किया

आवो बैठो , करो बात मीठी कोई
कैवै राजिंद कांईं पड़्यो बैर में
आओ बैठो , कुछ मीठी बातें करें
राजेन्द्र कहता है कि बैर-विरोध में पड़ा क्या है 

बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 212

:- राजेन्द्र स्वर्णकार

हिमाचली गजल - इक्क जमोरड़ ऐब पुराणाँ सीह्स्से दा - द्विजेन्द्र द्विज

इक्क जमोरड़ ऐब पुराणाँ  सीह्स्से दा
छुटदा ई नी‍ सच्च गलाणाँ सीह्स्से दा

दर्पण का एक जन्मजात  पुराना ऐब है
दर्पण से सच कहने की आदत नहीं छूटती

तोड़ी नैं, भन्नी नैं, प’थराँ मारी नैं ?
दस्सा कीह्याँ सच्च छडाणाँ सीह्स्से दा

तोड़ कर? मरोड़कर? या पत्थर मार कर
बताइये दर्पण से सच कहने की लत छुड़वाई जाए।

अपणे चेहरे दा नीं झलणाँ सच्च मितराँ
प’थराँ ने थोब्बड़ छड़काणाँ सीह्स्से दा

मित्र अपने चेहरे का सच झेल नहीं पाते
लेकिन दर्पण का मुँह तोड़ देना चाहते हैं

किरचाँ दा एह ढेर तुसाँ जे दिक्खा दे
एह्त्थू इ था सै सैह्र पुराणाँ सीह्स्से दा

किरचों का ये ढेर जो आप देख रहे हैं
दर्पण का शहर भी यहीं कहीं था

कदी ता मितरो ! मूँह्यें अपणे भी पूँह्ज्जा
घड़-घड़ियें भी क्या लसकाणाँ सीह्स्से दा

मित्रों ! कभी तो अपना चेहरा भी साफ कीजिए
बार-बार  दर्पण का भी क्या साफ करेंगे ?

इट कुत्ते दा बैर ए सीह्स्से प’थरे दा
प’थराँ नैं क्या हाल सुणाणाँ सीह्स्से दा

दर्पण और पत्थर का ईंट और कुत्ते का बैर है
पत्थरों से  दर्पण का हाल कैसे कहें?

इक्क स्याणाँ माह्णूँ एह समझान्दा था
प’थराँ बिच नीं सैह्र बसाणाँ सीह्स्से दा

एक बुद्धिमान व्यक्ति यह समझाता था
पत्थरों के बीच दर्पणों का शहर नहीं बसाना चाहिए

भखियो तौन्दी अग्ग बर्हा दी पर अपणाँ
हर समियान्नाँ, ठोह्र-ठकाणाँ सीह्स्से दा

ग्रीष्म ऋतु अपने चरम पर है, आग बरस रही है
लेकिन हमारा तो हर शामियाना काँच का है

जे घड़ेया सैह भजणाँ भी ता था इक दिन
‘द्विज’ जी ! किह्तणाँ सोग मनाणाँ सीह्स्से दा

जो घड़ा (गढ़ा) गया था उसे एक दिन टूटना भी तो था
द्विज जी ! काँच के टूटने का कितना शोक मनाओगे

द्विजेंद्र द्विज

अवधी गजल - जन गण मन अधिनायक होइगा। - अशोक अज्ञानी

जन गण मन अधिनायक होइगा।
गुण्डा    रहै,    विधायक   होइगा।

पढ़े – लिखे    करमन   का   र्‌वावैं,
बिना  पढ़ा   सब  लायक  होइगा।

जीवन  भर  अपराध  किहिस जो,
राम   नाम  गुण  गायक  होइगा।

कुरसी  केरि  हनक  मिलतै  खन,
कूकुर    सेरु   यकायक    होइगा।

गवा  गाँव  ते  जीति  केलेकिन
सहरन   का   परिचायक होइगा।

वादा    कइके    गा    जनता   ते,
च्वारन  क्यार सहायक होइगा।

जेहि   पर   रहै   भरोसा  सबका,
अग्यानी’   दुखदायक   होइगा।


ग़ज़लकार  अशोक ‘अग्यानी’
प्रस्तुति - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन

परिचर्चा - पत्रिकाओं में छपते छन्द और ग़ज़लें

हर महीने दर्जन भर से अधिक पत्रिकाओं से गुजरने का मौक़ा मिलता है। आज के साहित्यिक-क्षरण के दौर में साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रयासों को न सराहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता , परन्तु एक बात हर बार व्यथित करती है। इन में से अधिकान्श पत्रिकाओं के सम्पादक ग़ज़ल और छन्द के नाम पर कुछ भी छापे जा रहे हैं।

जब-जब इस बिन्दु पर ध्यान जाता है तो सिक्के के दूसरे पहलू वाले सिद्धान्त का अनुसरण करते हुये यह बात भी अवश्य ही ध्यान में आती है कि हम भी तो कभी इसी डगर से गुजरे हैं और आज भी अधिकार के साथ कहना मुश्किल ही होगा कि हम पारङ्गत हो चुके हैं।

इन दो बिन्दुओं पर मनन करने के बाद मन में विचार आता है कि इन सम्पादकों को उक्त रचनाओं को प्रकाशित करने से पूर्व किसी जानकार से चेक करवा लेना चाहिये और उत्साहवर्धन या कि फिर फेसिलिटेशन , जैसा भी हो, वाले काम को ध्यान में रखते हुये उक्त रचनाओं को ग़ज़ल या छन्द शीर्षक के बजाय अन्य-रचनाएँ शीर्षक के अन्तर्गत छापना चाहिये।


अपने मन की बात रखी है, विद्वतसमुदाय की राय की प्रतीक्षा रहेगी 

पुस्तक समीक्षा - ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर (‘सज्जन’ धर्मेन्द्र) - ज़हीर कुरैशी

अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद के साहित्य सुलभ संस्करण की आठ काव्य पुस्तकों के लोकापर्ण के अवसर पर दिनांक 22 फ़रवरी, 2014 को मुख्य अतिथि की आसंदी से ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी (भोपाल) का वक्तव्य और पुस्तक समीक्षा

डॉ अख़्तर नज़्मी का एक शे’र है

बात करती हैं किताबें,
पढ़ने वाला कौन है।

न पढ़ने के कारणों पर जब डॉ. नज़्मी से चर्चा हो रही थी तो शायर ने साहित्य की पुस्तकें मँहगी होने को भी एक कारण गिनाया था।

बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह या कहानी की पुस्तक का मुल्य 400-500 रूपए से कम नहीं होता। ऐसे में साहित्य का सच्चा पाठक भी दस बार सोचता है। कई बार वह पुस्तक के अधिक मूल्य के कारण मन मसोस कर रह जाता है।

ऐसे बाजारवादी समय में, अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद की 112 पृष्ठों की कविता की पुस्तक 20 रूपए में उपलब्ध होना मरुस्थल में शीतल झरने की तरह है। वीनस केसरी के इस प्रयास की जितनी भी सराहना की जाय, उतनी कम है। साहित्य सुलभ संस्करण की 8 पुस्तकों के लोकार्पण के अवसर पर मैं उनको ढेरों बधाइयाँ देता हूँ और विमोचित पुस्तकों पर चर्चा शुरू करता हूँ।

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34 वर्षीय युवा ग़ज़लगो ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का ग़ज़ल संग्रह ‘ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर’ भी पर्याप्त ध्यानाकर्षण करता है। ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़ल यात्रा कोई बहुत लंबी नहीं है, इस संग्रह की ग़ज़लें वर्ष 2011 से वर्ष 2013 के बीच कही गई हैं। ग़ज़लों में भी परोक्ष रूप से उनके रोल मॉडल ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी हैं। उनके अनेक शे’र पढ़ते हुए अनायास अदम गोंडवी की याद आती है। जैसे

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें,
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइए।

गरीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है
वही इस देश में मज़लूम लोगों का विधाता है।

ये मेरे देश की संसद या कोई घर है शीशे का,
जो बच्चों के भी पत्थर मारते ही टूट जाता है।

लेकिन ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र को इस कोण से देखना भर उनके ग़ज़लगो के साथ अन्याय होगा। जब वे अपनी शैली में शेरों को निकालते हैं तो चकित करते हैं। मसलन

सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है,
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है।

नूर सूरज से छीन लेता है,
पेड़ यूँ ही हरा नहीं होता।

अंधविश्वासअशिक्षा यही घर घुसरापन,
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा।

अपनी बात’ के अंतर्गत ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र एक बड़ी मार्के की बात कहते हैं - जब तक ग़ज़ल का पदार्पण हिन्दी भाषा में हुआ, तब तक हिन्दी की ज्यादातर कविता छंदमुक्त हो चुकी थी। दुष्यंत ने उसी छंदमुक्त और मुक्त-छंद कविता के कोलाहल में ‘साए में धूप’ की अंदर तक छू जाने वाली ग़ज़लों के बिरवे रोपे, जो कालान्तर में हिन्दी ग़ज़लकारों की मुस्तैद पीढ़ियों द्वारा खाद-पानी देने से कद्दावर वृक्षों में तब्दील हुए।

सज्जन’ धर्मेन्द्र की ग़ज़लों में नव्यता बोध के आग्रह के साथ भाव बोध और अनुभूतियों का एक ऐसा समन्वय है, जो शेरों के अर्थ को एक बड़े विस्तार में ध्वनित करता है।

धर्मेन्द्र के यहाँ वज़्न और बह्र की कुछ एक ख़ामियाँ दिखाई पड़ती हैं। उनको तीन वर्ष पुराने ग़ज़लगो होने के नाते नज़रअंदाज करते हुए, मैं उन्हें केवल एक ही सलाह देना चाहूँगा कि वे दुष्यंत और अदम की परंपरा एवं सोच से आगे निकलें।

तीन अगीत - डा. श्याम गुप्त

तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना
             तुमने ही मुख फेर लिया क्यों 
  मैंने  तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||     

पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीननारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ?

परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व  में  साम्य जगत के |
गति से  आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन ||"

डाइरेक्टरी बराए शुअरा ओ शाइरात (कवियों और कवियित्रियों की डाइरेक्टरी)

हम ने एक डाइरेक्टरी मुरत्तब करने का इरादा किया है, जिस में शाइरों और शाइरात के न सिर्फ़ नाम, पता और फोन नंबर होंगे बल्कि उन का एक शेरी नमूना और मुख्तसिर तअर्रूफ़ भी होगा. शुअरा हज़रात से गुज़ारिश है कि इस में शमूलियत के लिये दर्ज ए ज़ैल मालूमात दिये गए अड्रेस पर इरसाल करने की ज़हमत करें. और अपने अतराफ के और शुअरा को भी इस के बारे में ख़बर करेंताकि वो भी इस्तेफ़ादा हासिल कर सकें.

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पता

फोन नंबर.

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अपना एक बेहतरीन शेर

मुख़्तसर तअररुफ़ [संक्षिप्त परिचय]

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